अब पीके ने नया शिगूफा छोड़ा है। उनका दावा है कि नीतीश अभी भी भाजपा के संपर्क में हैं। वे फिर भाजपा का दामन थाम सकते हैं। इसके पीछे संपर्क सूत्र पीके ने राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश सिंह को बताया है। दरअसल, भाजपा से गठबंधन टूट जाने के बाद भी हरिवंश ने उपसभापति पद से इस्तीफा नहीं दिया। वे कह चुके हैं कि वे अपने दायित्व का निर्वाह नीतीश की सहमति से ही कर रहे हैं।
उधर जनता दल (एकी) के महासचिव केसी त्यागी ने पीके के बयान को गलत बताया है और सफाई दी है कि नीतीश खुद घोषित कर चुके हैं कि वे भाजपा के साथ आइंदा नहीं जाएंगे। पीके का भाजपा हितैषी होने का नीतीश का आरोप बेबुनियाद लगता भी नहीं। एक तो पीके कभी भी भाजपा पर वार नहीं करते।
दूसरे, 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान अमेरिका छोड़कर भाजपा की चुनावी रणनीति बनाने ही तो वापस आए थे वे अपने देश। प्रशांत किशोर की अब अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है और वे भी बिहार की जमीन से ताल्लुक रखते हैं।
दीदी का पैतरा
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को कमजोर कर अपनी जड़ें जमाने की भाजपाई कोशिशें परवान नहीं चढ़ पा रही हैं। अलबत्ता भाजपा खुद ही ममता बनर्जी को कोई न कोई ऐसा मुद्दा थमा देती है, जिसका सियासी फायदा उठाने में दीदी चूकती नहीं।
वैसे तो पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में पुरजोर ताकत लगाने के बाद भी अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से भाजपा का मनोबल कमजोर हुआ था। पार्टी को दूसरा नुकसान तृणमूल कांग्रेस छोड़कर आने वाले नेताओं की घर वापसी की होड़ से हुआ था। देश के बाकी राज्यों में कांगे्रसी जिस तरह लगातार भाजपा में शामिल हो रहे हैं,
कुछ उसी तरह का नजारा पश्चिम बंगाल में दिखता है। फर्क है तो बस इतना कि वहां पार्टी छोड़ने वाले भाजपाई हैं और उनका रुझान सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की तरफ है। दो पाटन के बीच फंस गए हों जैसे।
भाजपा में रहते हैं तो पश्चिम बंगाल की पुलिस पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ती है, भाजपा छोड़ते हैं तो सीबीआइ और ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजंसियों का भूत पीछे लग जाता है। लेकिन, ममता को भाजपा ने नया मुद्दा दादा के तिरस्कार से दिया है। दादा यानी भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान सौरभ गांगुली।
सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल जाने पर भी गांगुली की जगह रोजर बिन्नी बन गए बीसीसीआई के अध्यक्ष। गांगुली ने इस्तीफा क्यों दिया, किसी को नहीं बताया। पर ममता बनर्जी मैदान में कूद पड़ी। प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख गांगुली को आइसीसी भेजने की मांग कर डाली। बंगाली अस्मिता से जोड़ दिया गांगुली की उपेक्षा को। उनकी पार्टी के सांसद सौगत राय ने तो भाजपा को बंगाल विरोधी और सियासी प्रतिशोध लेने वाली पार्टी तक बता दिया।
फरमाया कि गांगुली केवल बंगाल के नहीं बल्कि सारे देश का गौरव हैं। भाजपाई इस मुद्दे पर मौन हैं। कोई प्रतिक्रिया नहीं सूझ रही। पाठकों को बता दें कि विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने गांगुली को खासा महत्व दिया था।
चर्चा है कि भाजपा में शामिल होने की पेशकश को कबूल न कर दादा ने अपना खेल खुद बिगाड़ा है। यह बात अलग है कि वे शुरू से ही कह रहे थे कि राजनीति में उनकी कोई रुचि नहीं। लेकिन उनकी रुचि से क्या, दीदी ने तो उन्हें राजनीति में डाल ही दिया।
वोटों का डेरा…
दो शिष्या से बलात्कार, एक पत्रकार और आश्रम के ही एक प्रबंधक की हत्या का दोषी ठहरा चुकी है डेरा प्रमुख के नाम से चर्चित गुरमीत रामरहीम को अदालत। कहने को वे उम्रकैद की सजा भुगत रहे हैं पर हरियाणा सरकार की दरियादिली से जब चाहे तब पैरोल पर जेल से बाहर आ जाते हैं। इसे लेकर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। आजकल फिर पैरोल पर हैं और उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के बरनावा गांव में स्थित अपने विशाल और भव्य डेरे में निवास कर रहे हैं।
18 अक्तूबर को यहीं सत्संग किया तो उसमें हजारों अनुयायी पहुंचे। इनमें करनाल की भाजपा की पूर्व मेयर रेनू बाला गुप्ता भी थी। आम जनता की नजर में गुरमीत भले बलात्कारी और हत्यारे हों पर अनुयायियों पर तो उनकी पकड़ बरकरार है। पाठकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह रिहाई हरियाणा में हो रहे पंचायत चुनाव और आदमपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव के मौके पर हुई है।
करनाल में गुरमीत का खासा प्रभाव है और मुख्यमंत्री मनोहर लाल इसी जिले की सीट से विधायक हैं। हरियाणा में जिस तरह से डेरों का वोटरों पर प्रभाव है, उसे कोई भी सरकार छोड़ना नहीं चाहती। यहां आनेवाला जनसमुदाय उन्हें ही वोट करता है जिससे कोई डेरा प्रमुख प्रभावित रहता है।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)