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राजपाट: वरुण की राजनीति और भाजपा से दूर होते सहयोगी दल के बीच फिजी ने बढ़ाई हिंदी की शान

वरुण के बागी तेवरों से यह संभावना कम नजर आ रही है कि भाजपा अगले साल उन्हें लोकसभा का टिकट देगी। उनका तो टिकट कटना भाई लोग तय मान ही रहे हैं, अब तो डर यह भी है कि भाजपा उनकी मां मेनका गांधी को भी शायद ही उम्मीदवार बनाए।

Fiji |
सांसद वरुण गांधी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर।

बेबाक बागी

वरुण गांधी के बागी तेवर बरकरार हैं। अपनी ढपली पर अपना राग वे 2017 से ही बजाते आ रहे हैं। इस समय पीलीभीत से लोकसभा सदस्य हैं। जबकि 2014 में सुल्तानपुर से विजयी हुए थे। उनकी मां मेनका गांधी तो लंबे समय से भाजपा में ही हैं पर वरुण ने पहला चुनाव 2009 में पीलीभीत से ही लड़ा था। तब उनकी मां ने उनके लिए सीट छोड़ी थी। खुद वे आंवला सीट से चुनाव लड़ी थी। बेटे वरुण ने 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बनने का सपना संजोया था। पर, उनकी अति महत्त्वाकांक्षा ने उन्हें तो हाशिये पर धकेला ही, 2019 में उनकी मां मेनका का केंद्र का मंत्रिपद भी झटक लिया।

उत्तर प्रदेश हो या केंद्र की सरकार। वरुण गांधी मुद्दों पर बेबाकी और मुखरता से अपनी बात कहते रहे हैं। किसान आंदोलन और कोरोना संक्रमण के लिए उन्होंने अपनी ही पार्टी की सरकार की संवेदनहीनता के लिए तीखी आलोचना की थी। वरुण चाहते हैं कि विधायकों और सांसदों की पेंशन बंद होनी चाहिए। वे अपने संसदीय क्षेत्र पीलीभीत में लोगों को अपने अधिकार के लिए सरकारी तंत्र से उलझ जाने की खुलकर सलाह दे रहे हैं। अब तो मुफ्त रेवड़ियां बांटने की सियासी प्रवृत्ति के लिए भी मुखरता से बयान दिया है। पाठकों को बता दें कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने भी किसानों के सिंचाई वाले नलकूप के बिजली बिल माफ करने का आदेश जारी किया है।

बीच में वरुण के कांग्रेस में शामिल होने की अटकलें भी लगाई गई थी, पर राहुल गांधी ने वरुण के आरएसएस की विचारधारा से मोह पालने को कांग्रेस में उनकी वापसी का अवरोध बताकर ऐसी अटकलों पर विराम लगाया था। वरुण के बागी तेवरों से यह संभावना कम नजर आ रही है कि भाजपा अगले साल उन्हें लोकसभा का टिकट देगी। उनका तो टिकट कटना भाई लोग तय मान ही रहे हैं, अब तो डर यह भी है कि भाजपा उनकी मां मेनका गांधी को भी शायद ही उम्मीदवार बनाए। वरुण की अखिलेश यादव ने भी तारीफ की थी। उसके भी निहितार्थ उनकी सपा में वापसी की संभावना के रूप में निकाले गए थे।

सिमटता कुनबा

नाम के लिए ही अब बचा है राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA)। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो एनडीए में देश के छोटे-बड़े करीब दो दर्जन राजनीतिक दल शामिल थे। आज ले-देकर उत्तर प्रदेश के अपना दल और उत्तर पूर्वी राज्यों के कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़कर एनडीए में कोई प्रमुख सियासी दल बचा ही नहीं। आखिरी अलविदा पिछले महीने मेघालय के मुख्यमंत्री संगमा ने कही। उनकी नेशनल पीपुल्स पार्टी सूबे का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ी है। पिछले दो साल के भीतर सबसे पुराने दो सहयोगियों से भाजपा की कुट्टी हुई। महाराष्ट्र में शिवसेना और पंजाब में अकाली दल ने संकट में भी भाजपा का साथ दिया। लेकिन, भाजपा मजबूत हुई तो उसने सहयोगियों की उपेक्षा शुरू कर दी। तभी तो बिहार में नीतीश कुमार भी भाजपा का साथ छोड़ने को मजबूर हुए। चिराग पासवान को तो भाजपा ने 2020 के विधानसभा चुनाव में ही अकेला छोड़ दिया था।

इससे पहले कश्मीर में पीडीपी से और गोवा में गोवा फारवर्ड पार्टी भी एनडीए से अलग हो गए थे। कहने को तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक जरूर अभी तक एनडीए में है। पर जयललिता की मौत के बाद इस पार्टी का अव्वल तो खास वजूद बचा नहीं था, ऊपर से पार्टी गुटबाजी के कारण अपनी चमक अलग खो चुकी है। पर, भाजपा के पास यहां कोई और विकल्प भी तो नहीं। भाजपा कह सकती है कि अब उसे सहयोगियों की कोई जरूरत है ही नहीं। पर, राजनीति में कुछ नहीं कहा जा सकता। जब तक केंद्र की सत्ता है, बेशक छोटे दल डर कर उसका साथ देने को राजी हो जाते हैं। पर इससे पार्टी की साख तो नहीं बढ़ती। अब तो दूसरे दलों को यही डर सताने लगता है कि भाजपा उनका जनाधार भी समेट लेगी। शिवसेना और जनता दल (एकी) की तो यही शिकायत है कि भाजपा ने गठबंधन धर्म ईमानदारी से नहीं निभाया।

फिजी का फसाना

फिजी में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन से हिंदी को कितना फायदा हुआ यह तो विश्लेषण से परे है। लेकिन, इसे लेकर सरकार ने अपने अधिकारियों को जितना परेशान किया वह तो किसी कविता, कहानी नहीं पूरे एक उपन्यास का विषय हो सकता है। वेब कड़ी भी बन सकती है-वो साठ घंटे। भारत सरकार के एक दर्जन से ज्यादा अधिकारियों के फिजी के नाडी हवाईअड्डे पहुंचते ही देश से फरमान आया कि वापस लौटें क्योंकि उनकी यात्रा अनधिकृत है। अचानक से वित्त मंत्रालय को ख्याल आया कि फिजी में जरूरत से ज्यादा अधिकारियों को भेजा जा रहा है, और इनमें से कई अधिकारी वैसे हैं जिनका अकादमिक कार्य से कोई लेना-देना नहीं है।

सरकार की नींद तो देर से टूटी, लेकिन उन अधिकारियों की क्या हालत हुई होगी जो 30 घंटे का हवाई सफर करके फिजी पहुंचे और उन्हें हवाईअड्डे से ही वतन वापसी का हुक्म सुना दिया गया। साठ घंटे की हवाई यात्रा करने के बाद अधिकारियों के बीच अब यह असमंजस है कि कहीं उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई तो नहीं शुरू हो जाएगी क्योंकि अब हिंदी में ही उनकी यात्रा को अनधिकृत करार दिया गया था। कार्यक्रम का उद्घाटन विदेश मंत्री एस जयशंकर ने किया था।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)

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First published on: 25-02-2023 at 06:15 IST
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