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आर्थिक मंदी की तरफ दुनिया!, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अर्थशास्त्रियों ने जताई थी आशंका, अनिश्चितता से बढ़ी बेचैनी

एक बार फिर अमेरिका में महत्त्वपूर्ण बैंक डूबे हैं। लोगों को डर है कि कहीं यह वित्तीय संस्थानों के दरकने के सिलसिले की शुरुआत न हो। इसके पहले कई बड़ी कंपनियां अपने कर्मचारियों की छंटनी कर चुकी हैं।

Recession | Global Financial Crisis |
1930 की आर्थिक मंदी ने दुनिया को एक नया राजनीतिक तेवर भी दिखाया। मंदी के दौरान लोगों में क्षेत्रीयता बढ़ी। कई देशों में कट्टरपंथी राजनीतिक विचारों को लोगों का समर्थन मिला।

सिद्धायनी जैन

मार्च के पहले पखवाड़े में ही अमेरिका के दो प्रमुख बैंकों- सिग्नेचर बैंक (Signature Bank) और सिलिकान वैली बैंक (Silicon Valley Bank)- के डूबने की खबरों ने दुनिया भर के शेयर बाजारों ने गोता खाना शुरू कर दिया। उधर क्रेडिट सुइस (Credit Suisse) नाम के वित्तीय संस्थान में भी जागी कुछ अनिश्चितताओं ने तो सबको चिंतित कर दिया। यूरोप के कई बैंकों की आर्थिक स्थिरता पर इसका असर पड़ा और इसने उन लोगों में आशंका पैदा कर दी, जिनके वित्तीय हित किसी भी बैंकिंग संस्थान से जुड़े हैं। उल्लेखनीय है कि कई महीने पहले विश्व मुद्रा कोष (IMF) और कुछ अर्थशास्त्रियों ने आशंका जता दी थी कि 2023 में दुनिया एक बार फिर आर्थिक मंदी (Global Economic Recession) झेलने को मजबूर हो सकती है। क्या सचमुच ऐसा होगा?

पाकिस्तान, श्रीलंका की खराब हालात के बाद अब ब्रिटेन में भी महंगाई से लोग त्रस्त

दुनिया कुछ समय पहले ही एक वैश्विक महामारी से उबरी है। कुछ ही दिन बीते जब श्रीलंका में जनता सत्ता के खिलाफ सड़कों पर थी, पाकिस्तान में भी हालात काबू में नहीं हैं। ब्रिटेन में लोग महंगाई से त्रस्त हैं। रूस और यूक्रेन के बीच साल भर पहले शुरू हुए युद्ध में अब दूसरी ताकतें भी कूदती नजर आ रही हैं। खबर है कि अमेरिका, जिसने यूक्रेन को सैन्य मदद दी है, के कट्टर विरोधी देशों रूस, चीन और ईरान ने ओमान की खाड़ी में संयुक्त युद्धाभ्यास शुरू कर दिया है। क्या यह किसी बड़े विप्लव का संकेत है?

1930 की महामंदी के पहले भी ऐसे ही संकट की स्थिति बनी थी

याद कीजिए कि 1930 की महामंदी के पहले भी कुछ ऐसे ही हालात थे। बस, वित्तीय संस्थानों के डूबने, महामारी और युद्ध के माहौल के क्रम में कुछ तब्दीली है। सन 1914 से 1918 के बीच पहला विश्वयुद्ध लड़ा गया था। युद्ध खत्म ही हुआ था कि स्पेनिश फ्लू की महामारी फैल गई, जिसमें करीब पांच करोड़ लोगों की जान चली गई। उसके बाद हालात सुधरे तो आर्थिक संपन्नता के मुक्त उल्लास के दिन आए। 1920 के दशक में अमेरिका में पूंजीवाद का उत्थान हुआ। लोग गांव छोड़ कर शहरों की तरफ जाने लगे। उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति बढ़ गई। हर पांचवें घर के बाहर एक नई कार खड़ी हो गई। दरअसल, बैंकों ने लोगों को खुल कर ऋण बांटे थे।

पूंजी बाजार में उतार-चढ़ाव से आम आदमी के लिए खतरा बढ़ा

1920 के दशक में अमेरिका में आई आर्थिक समृद्धि के पीछे एक और कारण था पूंजी बाजार। लोग पैसा लगा कर अपनी राशि को बढ़ते हुए देखने के आदी हो गए। आज भी यह निवेश का एक बड़ा बाजार है। हर आर्थिक वर्ग का आदमी शेयर बाजार में पैसा लगाकर सुनहरे भविष्य के सपने संजोए खड़ा है। अच्छे दिनों के सपने देखना बुरा भी नहीं है, लेकिन दिक्कत तब होती है जब अप्रत्याशित तरीके से शेयर बाजार औंधे मुंह गिर जाता है और कम पूंजी वाले लोग ऐसे भंवर में घिर जाते हैं कि उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नजर ही नहीं आता। बैंक अपनी स्थितियों को मजबूत करने के लिए ब्याज दर बढ़ाते हैं, महंगाई बढ़ती रहती है, मुद्रा स्फीति लोगों की उम्मीदों को आंखें दिखाने लगती है।

1920 के दशक में अमेरिका में आर्थिक उथल- पुथल मची तो अगस्त 1929 तक पहुंचते-पहुंचते बैंकों पर इतना कर्ज चढ़ गया कि उन्हें चुकाना मुश्किल लगने लगा। बाजार में ऋण का प्रवाह कम हुआ तो लोगों की खरीदने की क्षमता कम हुई। इससे उत्पादन घटाना पड़ा। बेरोजगारी बढ़ने लगी। महंगाई को तो बढ़ना ही था। हालात कठिन होते देख कर निवेशकों ने इतने शेयर बेच दिए कि पूंजी बाजार ध्वस्त हो गया। यह प्रवृत्ति बढ़ती गई। आर्थिक हालात बिगड़े तो कई कारखाने बंद हुए। नतीजा यह हुआ कि बेराजगारी चरम पर पहुंच गई। उधार लेकर शान की जिंदगी जीने वाले परिवार कर्ज की दलदल में धंस गए। किसानों के पास खड़ी फसल कटवाने के लिए मजदूरी देने के पैसे नहीं थे।

इस तरह एक तरफ अनाज खेतों में नष्ट हो गया, तो दूसरी तरफ 1930 में अकाल पड़ गया। लोग सरकार की तरफ मदद की आस लगाए देखने लगे। मगर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर लोगों को झूठी दिलासा देते रहे कि यह आर्थिक संकट जल्दी ही खत्म हो जाएगा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि सरकार का काम नौकरियां पैदा करना या आर्थिक सहयोग देना नहीं है। लोग उनसे नाराज हो गए और परिणाम यह हुआ कि 1933 में अमेरिका की कमान फ्रेंकलिन रूजवेल्ट को दे दी गई। धीरे-धीरे रूजवेल्ट ने कुछ पहल की और हालात सुधरे। मगर तब तक इस महामंदी का असर ब्रिटेन, जर्मनी, कनाडा, जापान और भारत तक फैल चुका था।

1930 की आर्थिक मंदी ने दुनिया को एक नया राजनीतिक तेवर भी दिखाया। मंदी के दौरान लोगों में क्षेत्रीयता बढ़ी। कई देशों में कट्टरपंथी राजनीतिक विचारों को लोगों का समर्थन मिला। यही कारण है कि जर्मनी में उन्हीं दिनों हिटलर का उदय हुआ। 1932 के चुनावों के बाद हिटलर की नाजी पार्टी जर्मनी की संसद में पहुंचने वाली सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनी। जब अलग-अलग समूहों की कट्टरता बढ़ती है, तो उनके हित टकराते हैं। ऐसी स्थितियां अगर समय रहते न संभाली जाएं तो विकट युद्ध का रूप धारण कर लेती हैं। वही परिस्थितियां सन 1941 में दूसरे विश्वयुद्ध का कारण बनीं।

एक बार फिर अमेरिका में महत्त्वपूर्ण बैंक डूबे हैं। लोगों को डर है कि कहीं यह वित्तीय संस्थानों के दरकने के सिलसिले की शुरुआत न हो। इसके पहले कई बड़ी कंपनियां अपने कर्मचारियों की छंटनी कर चुकी हैं। जर्मनी, आस्ट्रिया, फ्रांस, हंगरी, इटली और स्पेन जैसे देशों में भी कट्टरवादी राजनीतिक ताकतों ने अपना वर्चस्व बढ़ाया है। मुद्रास्फीति का हाल यह है कि जनवरी 2023 में ही तुर्की की मुद्रास्फीति की दर 55 प्रतिशत से अधिक थी। पिछले अनुभवों को देखते हुए ये स्थितियां आशंकित करती हैं, क्योंकि एक साल की बंदी के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पहले ही चेतावनी दे चुका है कि इसका असर महामंदी जैसा हो सकता है। सन 2008 में भी मंदी की शुरुआत अमेरिका से ही हुई थी। उस साल वहां की नामी वित्तीय कंपनी लेहमन ब्रदर्स दिवालिया हुई, तो दुनिया भर में उथल-पुथल मच गई थी। उस समय निवेशकों को जितना नुकसान हुआ, वह राशि भारत के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर थी

सन 2008 में आई मंदी का असर भारत पर अपेक्षाकृत कम देखने को मिला था, क्योंकि आम भारतीय अब भी अपनी कमाई में से छोटी-छोटी बचत करने का आदी रहा है। आज भी रसोई के किसी कनस्तर में गृहणी द्वारा बचा कर रखा गया धन देखने को मिल सकता है। बच्चों की गुल्ल्क में, छोटी आवर्ती जमा योजनाओं में हमारी बचत इतराती है। यह अलग बात है कि अब बड़े संकट में यह राशि बहुत छोटी प्रतीत होती है। नौकरीपेशा आदमी आयकर बचाने के लिए राष्ट्रीय बचत पत्र, किसान बचत पत्र, पीपीएफ जैसी योजनाओं में निवेश करता हैं और कठिन दिनों के लिए अपना आधार तैयार करता है।

बचत का यह स्वभाव भारतीय मध्यवर्ग के अंतस में बहुत गहरे तक पैठा है। पर चिंता की बात यह भी है कि पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में कर्ज लेकर सुख-सुविधाएं जुटाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। भारत में भी ऋण लेकर भौतिक सुविधाओं का अर्जन अब उतना बुरा नहीं माना जाता, जितना आज से चार या पांच दशक पहले तक माना जाता था। समय बताएगा कि दुनिया धीरे धीरे आर्थिक मंदी के शिकंजे में फंस रही है या अमेरिका के बड़े वित्तीय संस्थानों पर आया यह संकट केवल दुर्योग है?

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First published on: 24-03-2023 at 06:15 IST
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