दो भाषण, दो नजरिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दर्शन की बुनियादी अवधारणा है कि ‘राष्ट्र सर्वोच्च’ है और यही उनके भाषण की मुख्य बात भी थी।

बस कुछ दिनों के अंतराल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अलग अलग मुसलिम मंचों को संबोधित किया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 मार्च 2016 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में विश्व सूफी फोरम को संबोधित किया, जबकि 12 मार्च को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का भाषण जमीयत उलेमा-ए-हिंद द्वारा आयोजित राष्ट्रीय एकता सम्मलेन में पढ़ा गया। यह जानना दिलचस्प होगा कि विश्व सूफी फोरम में बीस देशों से विद्वान, धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के ज्ञाता पधारे थे, जबकि सोनिया गांधी का भाषण गुलाम नबी आजाद ने पढ़ कर सुनाया। उनके श्रोताओं में मणिशंकर अय्यर सरीखे लोग मौजूद थे।
दोनों नेताओं के भाषण में जमीन-आसमान का अंतर था। नरेंद्र मोदी के भाषण में जो बातें बताई गई थीं उसमें महत्त्वपूर्ण बिंदु थे- सूफी मत की महानता, भारत पर सूफी मत का प्रभाव, शांति के धर्म के रूप में इस्लाम की पहचान, भारत की बहुलतावादी पहचान और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि किस तरह से धर्म से आतंक को अलग किया जाए। सोनिया गांधी के लिखित भाषण में एक ही मुख्य संदेश था और वह यह कि भारत एक मुश्किल दौर से गुजर रहा है, सेकुलरिज्म खतरे में है और भारत की सेकुलर परंपरा को बचाए रखने के लिए एकता क्यों सबसे जरूरी तरीका है।
सूफी सम्मेलन में मोदी के संबोधन का गहरा असर हुआ। यों तो सूफी मत हमेशा से मजहबी कट्टरता की मुखालफत के लिए जाना जाता रहा है, पर इस सम्मेलन से यह रुख और भी साहसिक ढंग से जाहिर हुआ। सम्मेलन ने एक स्वर से आतंकवाद की निंदा की, आतंकवाद के खिलाफ साझे संघर्ष का आह्वान किया। यह उन लोगों की आवाज थी जो धर्म के आध्यात्मिक आयाम पर जोर देते हैं और इस तरह धर्म के मूल स्वरूप की बहाली चाहते हैं।
राष्ट्र बनाम राजनीति
प्रधानमंत्री के दर्शन की बुनियादी अवधारणा है कि ‘राष्ट्र सर्वोच्च’ है और यही उनके भाषण की मुख्य बात भी थी। उन्होंने भारत की बहुलता को एक उत्सव स्वरूप बताया, और हर भारतीय की सकारात्मकता को रेखांकित किया जो अब पूरी दुनिया में नजर आ रही है। उन्होंने बिलकुल साफ कर दिया कि भारत की ताकत इस बात से आती है कि सभी धर्मों के लोग और बहुत सारे नास्तिक लोग भारत को अपना घर कहने में गर्व का अनुभव करते हैं।
इसके विपरीत सोनिया गांधी के लिखित भाषण के अनुसार देश में कुछ भी ठीक नहीं है। यह कह कर उन्होंने एक अंधकारमय संदेश दिया। संकट के दौर के बारे में उनके उल्लेख ने उनकी बात को रेखांकित किया। उनकी बात से ऐसा लगता था जैसे देश के सामने कोई परेशानी आने वाली है।
आशा का चित्रण और दहशत
भारतीय और विदेशी श्रोताओं के सामने जो कुछ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा उससे न केवल भारत में बल्कि समूची मानवता के मूल्यों में भरोसा बढ़ता है। नरेंद्र मोदी का भाषण सुन कर भारत की सकारात्मकता और एकता में विश्वास बढ़ा होगा। लेकिन दुर्भाग्य से सोनिया गांधी के भाषण से ऐसा लगा जैसे जान-बूझ कर अल्पसंख्यक समुदायों के बीच दहशत और नकारात्मकता का माहौल पैदा किया जा रहा हो और वोट की राजनीति खेली जा रही हो।
शब्दों का मरहम
नरेंद्र मोदी एक राजनेता (स्टेट्समैन) हैं। एक स्टेट्समैन की तरह प्रधानमंत्री के शब्दों ने सूफी फोरम में मरहम का काम किया। उन्होंने धर्म और आतंक के बीच किसी तरह के संबंधों को पक्के तौर पर और पूरी तरह से खारिज कर दिया। उन्होंने धर्म के नाम पर हिंसा करने वालों को साफ संदेश दे दिया और कहा कि धर्म के नाम पर हिंसा सबसे बड़ा अधार्मिक कार्य है।
उन्होंने सूफी मत की प्रशंसा की और बताया कि इसने किस तरह से शांति और समरसता में योगदान किया है। जब उन्होंने कहा कि अल्लाह के 99 नामों में एक भी हिंसा की तरफ इशारा नहीं करता, तो पूरा विज्ञान भवन तालियों से गूंज उठा। सही बात है, क्योंकि जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नेता इतनी प्रभावशाली बात करता है तो सबको बहुत ज्यादा भरोसा हो जाता है ।
खुशी का माहौल और कव्वाली
विश्व सूफी फोरम के आयोजन में चारों तरफ खुशी का माहौल था। जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंच पर आए, लोग भारत माता की जय के नारे लगाने लगे। उनके भाषण के दौरान तालियां बजती रहीं। हॉल में मौजूद लोगों ने उनके भाषण का खड़े होकर स्वागत किया। भाषणों के बाद प्रधानमंत्री ने कव्वाली का आनंद लिया। इसके पहले अपने भाषण में भी उन्होंने संगीत के क्षेत्र में सूफी मत के योगदान की चर्चा की थी। उन्होंने खास तौर पर महान साहित्यकार और सूफी संत अमीर खुसरो का जिक्र किया था। यह अजीब बात है कि मीडिया के एक वर्ग ने दोनों ही भाषणों के कवरेज में लगभग बराबर का स्पेस दिया। कुछ संगठन तो तथाकथित ‘सेकुलर’ भाषण की प्रशंसा के भाव को छुपा नहीं पा रहे थे।
राजनेता अगर चाहें तो लोगों के बीच सकारात्मकता भर सकते हैं या उनके दिमाग में डर पैदा कर सकते हैं। डर पैदा करने वाले अपने छुद्र्र राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। जबकि पहली तरह के नेता को अपने लोगों में भरोसा होता है और उनकी शक्ति का अंदाजा होता है।
नरेंद्र मोदी ने सूफी फोरम के मंच का इस्तेमाल भारत की महानता की याद दिलाने के लिए किया। इसके साथ ही इस्लाम और आतंक के बारे में होने वाली चर्चाओं को खारिज किया। उन्होंने दुनिया के लोगों से अपील की कि शांति का एक ऐसा बगीचा बनाएं जहां दया और प्रेम हिंसा को बेदखल कर दें। लेकिन दुख की बात है कि सोनिया गांधी के लिखित भाषण में यही बताया गया कि भारत में कुछ भी ठीक नहीं हैं। डर पैदा करने की कोशिश की गई और सवा सौ करोड़ भारतीयों को बहुत ही कमजोर और मजबूर बताने की कोशिश की गई।
(लेखक भाजपा से संबद्ध हैं)