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राजनीतिः जैव विविधता का पश्चिमी घाट

हमारे देश में दुनिया की बारह फीसद जैव विविधता है, लेकिन उस पर कितना काम हो पाया है, कितने वनस्पति और जीवों के जीन की पहचान हो पाई है, यह एक अहम सवाल है। लोक लेखा समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पर्यावरण और वन मंत्रालय पैंतालीस हजार पौधों और इक्यानबे हजार जानवरों की प्रजातियों की पहचान के बावजूद जैव विविधता के संरक्षण के मोर्चे पर विफल रहा है।

Western Ghat
वनस्पतियों की विविधता और जंगली जमीन। (फोटो- स्मिता नायर- इंडियन एक्सप्रेस)

लालजी जायसवाल

हमारे देश के विभिन्न हिस्सों की पारिस्थितिकी में पश्चिमी घाट की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। यह ऐसे कई पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं का आवास क्षेत्र है, जो विश्व में कहीं और नहीं पाए जाते। पूर्वोत्तर के वन क्षेत्र, पश्चिमी घाट, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह क्षेत्रफल के लिहाज से बहुत छोटे हैं, मगर यहां फूलदार पौधों की लगभग दो सौ प्रजातियों के साथ सौ प्रकार की फर्न पाई जाती हैं। यहां के समुद्र में फैली मूंगे की चट्टानें जैव विविधता की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

उत्तर-पूर्वी वन में पंद्रह सौ स्थानिक पादप प्रजातियां पाई जाती हैं, तो वहीं पश्चिमी घाट अनेक दुर्लभ उभयचरों, सरीसृपों और विशिष्ट पादप समूहों के लिए प्रसिद्ध है। दुनिया भर की चौंतीस चिह्नित जगहों में से भारत में हिमालय, भारत-बर्मा, श्रीलंका और पश्चिमी घाट जैव विविधता के प्रमुख स्थान हैं। पश्चिमी घाट देश की सत्ताइस फीसद वनस्पतियों के अलावा वैश्विक स्तर पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे तीन सौ से अधिक पक्षियों, उभयचरों, सरीसृपों और मछलियों की प्रजातियों का घर है। हालांकि, पेड़ काटने, खनन और अतिक्रमण के कारण पश्चिमी घाट के पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर पड़ रहा है।

गोवा में 2006-11 तक करीब पैंतीस हजार करोड़ रुपए का अवैध खनन किया गया था। इसमें अनेक वन बर्बाद हुए। वनों की कटाई, खनन, बहुमंजिला इमारतों के निर्माण के लिए पहाड़ियों को अवैज्ञानिक आकार देना, एक-फसलीय कृषि चक्र आदि ऐसे कारण हैं, जिनसे भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। इसरो के एक अध्ययन के अनुसार 1920-2013 की अवधि में पश्चिमी घाट का पैंतीस फीसद क्षेत्र नष्ट हो चुका है। अवैध और अवैज्ञानिक गतिविधियों के चलते इस क्षेत्र में सूखा, अकाल, पानी की कमी तथा उपज में कमी आदि बढ़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इस क्षेत्र से बहने वाली अट्ठावन नदियों का पानी प्रदूषित हो गया है। इससे देश की लगभग एक चौथाई आबादी प्रभावित हो रही है।

गौरतलब है कि प्रकृति के निर्माण और इसके अस्तित्व के लिए जैव विविधता की प्रमुख भूमिका होती है, पर यदि इसका ह्रास होता है, तो पर्यावरण चक्र में गतिरोध से जीवों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है। वर्तमान में जैव विविधता के प्रति सचेष्ट होने के कारण जैव विविधता की तीव्र गति से हानि हो रही है। इस पृथ्वी पर लगभग बीस लाख जैव प्रजातियों का अस्तित्व है और प्रत्येक जीव का पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्व है।

हमारे देश में दुनिया की बारह फीसद जैव विविधता है, लेकिन उस पर कितना काम हो पाया है, कितने वनस्पति और जीवों के जीन की पहचान हो पाई है, यह एक अहम सवाल है। लोक लेखा समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पर्यावरण और वन मंत्रालय पैंतालीस हजार पौधों और इक्यानबे हजार जानवरों की प्रजातियों की पहचान के बावजूद जैव विविधता के संरक्षण के मोर्चे पर विफल रहा है।

जैव विविधता के मामले में भारत के समृद्ध राष्ट्र होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि देश में कृषि और पशुपालन, दोनों का काफी महत्त्व है। लेकिन दुर्भाग्य से यह विविधता अब बहुत तेजी से खत्म हो रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को पश्चिमी घाट के इलाके में साइट फ्रॉग्स की कुल सात प्रजातियां मिली हैं, इनमें से चार मिनिएचर मेढक हैं, जिनकी लंबाई बारह से साढ़े पंद्रह मिलीमीटर के बीच है और यह दुनिया में पाए जाने वाले सबसे छोटे मेढकों में से एक हैं।

इनके अनुवांशिक पदार्थ डीएनए की जांच, शारीरिक तुलनाओं और बायोएकूस्टिक्स से इस बात की पुष्टि की गई है कि ये सब नई प्रजातियां हैं। भारत में मेढकों की दो सौ चालीस से भी अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से आधी की खोज पश्चिमी भारत के इसी पहाड़ी इलाके में ही हुई है, जिसे जैव विविधता का ग्लोबल हॉटस्पॉट माना जाता है।

अब तक नाइट फ्रॉग्स की करीब पैंतीस प्रजातियों का पता लगाया जा चुका है। लेकिन चिंता की बात यह है कि लगातार हो रहे जैव विविधता के क्षरण में ये प्रजातियां अपना अस्तित्व बचा पाएंगी? विश्व संरक्षण एवं नियंत्रण केंद्र के अनुसार इस समय लगभग अट्ठासी हजार पादप और दो हजार जंतु प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।

पश्चिमी घाट की जैव विविधता के संरक्षण के लिए 2010 में माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गठित पश्चिमी घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल ने इस संपूर्ण क्षेत्र को पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र का दर्जा दिया था। बाद में, इस पैनल की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए कस्तूरीरंगन समिति का भी गठन किया गया। भारत में गुजरात और महाराष्ट्र की सीमा से शुरू होकर गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के बाद कन्याकुमारी तक जाने वाले सोलह सौ किलोमीटर लंबे इलाके को पश्चिमी घाट पर्वतीय शृंखला कहा जाता है। यहां के वन भारतीय मानसून की स्थिति को भी प्रभावित करते हैं।

कस्तूरीरंगन समिति ने अप्रैल, 2013 की अपनी रिपोर्ट में गाडगिल समिति की कई सिफारिशों को बदल दिया था। गाडगिल समिति ने पश्चिमी घाटों को पारिस्थितिकी के लिए पूरी तरह संवेदनशील घोषित किया था और यहां पर सीमित खनन का पक्ष लिया था। दोनों समितियों की रिपोर्टों में ज्यादा अंतर नहीं था।

कस्तूरीरंगन समिति ने ईको सेंसिटिव जोन में पश्चिमी घाट के सैंतीस प्रतिशत हिस्से यानी करीब साठ हजार हेक्टेयर को चिह्नित किया था, जबकि गाडगिल समिति ने एक लाख सैंतीस हजार हेक्टेयर से कम को चिह्नित किया। लेकिन वन मंत्रालय का कहना है कि पहले से ही पश्चिमी घाट में बहुत सारे प्रतिबंध हैं। ऐसे में अगर कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट के अनुसार और अधिक प्रतिबंध लगाए जाते हैं तो ये पश्चिमी घाट क्षेत्र के विकास के लिए हानिकारक साबित होंगे। सैकड़ों गांवों के हजारों लोगों का न सिर्फ निवास छिनेगा, बल्कि रोजगार का भी संकट आ जाएगा।

कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट पर स्थानीय लोगों में भारी रोष और इसके क्रियान्वयन का जोरदार विरोध की वजह से आज तक जैव विविधता को लेकर उदासीनता बनी हुई है। लेकिन लोगों को जागरुक करना होगा, क्योंकि कुछ निहित स्वार्थों पर जैव विविधता की सुरक्षा भेंट नही चढ़ाई जा सकती।

अगर हम सुरक्षा में वहां के निवासियों का सहयोग लेंगे तो इसके दो फायदे त्वरित सामने होंगे। एक तो जैव विविधता का बचाव संभव होगा तथा दूसरा, जो लोग इसका विरोध करते हैं, वे इसके सहायक बन कर रक्षा की जिम्मेदारी लेंगे। सर्वविदित है कि किसी भी भौगोलिक परिस्थितियों की जानकारी वहां के निवासियों से बेहतर कोई नहीं जान सकता है। क्षरण अधिकतर मानवीय क्रियाओं द्वारा ही हो रहा है।

कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रति वर्ष चार हजार से सत्रह हजार प्रजातियां समाप्त हो रही हैं। इस प्रकार की हानि न केवल भारत, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए हानिकारक है। प्रेस्बायटिस जोहनी, दक्षिण भारत में पश्चिमी घाट के नीलगिरी की पहाड़ियों में पाए जाते हैं, इसकी रेंज कर्नाटक में कोडागू, तमिलनाडु में कोड्यार हिल्स और केरल और तमिलनाडु में कई अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भी शामिल हैं।

ये प्रजातियां वनों की कटाई और उसके फर और मांस में अपने कामोद्दीपक गुण और अवैध शिकार के कारण खतरे में हैं। नीति निर्माताओं और पश्चिमी घाट से जुड़े सभी छह राज्यों की सरकारों को एकजुटता के साथ तथा जन भागीदारी कर अति प्राचीन पारिस्थितिकी तंत्र को लुप्त होने से बचाने के आगे आना चाहिए। अब इसके समुचित स्वरूप की जानकारी कर इसका संरक्षण करना बहुत जरूरी हो गया है। इसके लिए हमें अपनी जरूरतों और उपलब्ध संसाधनों के मध्य सामंजस्य बैठाना ही होगा।

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First published on: 26-12-2020 at 01:04 IST
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