जल संकट का असर अब दुनिया के तमाम देशों में देखा जाने लगा है। आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में 1.6 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पा रहा है। इस वजह से परेशानियां, बीमारियां, पलायन, हिंसा, सामाजिक कटुता और दूसरी विकृतियां बढ़ रही हैं। संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2022 के मुताबिक झीलों, जलधाराओं और मानव निर्मित जलाशयों से ताजा जल की तेजी से निकासी के साथ-साथ विश्व भर में आसन्न जल तनाव और दूसरी समस्याएं बढ़ रही हैं।
जरूरत से ज्यादा भूजल का दोहन भारत में जल संकट की है वजह
विश्व स्तर पर देखें तो जल का 69 प्रतिशत कृषि में, 23 प्रतिशत उद्योगों में और महज 8 प्रतिशत घरेलू कार्यों में इस्तेमाल होता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में जल संकट की वजह यहां जरूरत से ज्यादा भूजल का दोहन है।केंद्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार भारत में सिंचाई के लिए हर साल 230 अरब घन मीटर भूजल निकाला जाता है, इस वजह से देश के कई इलाकों में भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। गौरतलब है कि भारत में भूजल का अट्ठासी प्रतिशत सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है। नौ प्रतिशत घरेलू इस्तेमाल में और उद्योगों में लगभग तीन प्रतिशत जल इस्तेमाल होता है।
केंद्र राष्ट्रीय जल नीति 2012, ‘जल जीवन मिशन’ से जरूरतें पूरी करने का चला रहा अभियान
भारत में जल तनाव (मांग से बहुत कम उपलब्ध होना) और जल संकट से बढ़ने वाली समस्याएं तमाम कवायदों के बावजूद घटने के बजाय, बढ़ रही हैं। केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय जल नीति 2012, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, जलशक्ति अभियान, अटल भूजल योजना और 2020 से ‘जल जीवन मिशन’ के जरिए जल संबंधी जरूरतें पूरी करने का अभियान चलाया जा रहा है।
हजारों गांवों में आज भी लोगों को कई किलोमीटर से पीने का पानी लाना पड़ता है
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रहीं जल परियोजनाएं कितनी कारगर हैं, यह इस बात से पता चलता है कि हजारों गांवों में आज भी लोगों को कई किलोमीटर से पीने का पानी लाना पड़ता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक जैसे-जैसे धरती का तापमान बढ़ रहा है और ऋतु-चक्र में बदलाव हो रहा है, वैसे-वैसे पानी की किल्लत से परेशानियां बढ़ रही हैं।
विश्व में बढ़ते जल संकट के कारण यों तो अलग-अलग हैं, लेकिन पिछले बीस सालों में धरती के बढ़ते तापमान, ग्रीन हाउस गैसों का असर और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ऋतु-चक्र में आए बदलाव के चलते ‘अल-नीनो’ का असर अब लगातार देखने को मिल रहा है। इससे जहां बरसात कम हो रही है, वहीं गर्मी भी बेतहाशा पड़ती है। इससे पानी की खपत खेती-किसानी और घरेलू इस्तेमाल में ज्यादा होती है। सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में पानी की बर्बादी, दूसरे देशों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती है। मसलन, कृषि-क्षेत्र में जल का इस्तेमाल ज्यादा होता है। जिन फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य सबसे ज्यादा होता है, किसान उन्हीं फसलों का उत्पादन करते हैं।
गौरतलब है कि पंजाब, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ में धान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना और दूसरे राज्यों में गेहूं तथा कपास की खेती को किसान प्राथमिकता देते हैं। इस वजह से कई राज्यों में भूजल का स्तर इतना नीचे चला गया है कि नलकूप से पानी निकालना मुश्किल हो गया है। इसके बावजूद किसान ऐसी फसलें उगाते हैं, जिनमें पानी की खपत बहुत ज्यादा होती है। महाराष्ट्र में केला और गुजरात में कपास की उपज से मुनाफा कमाना, इसी सोच का परिणाम है। इसी तरह शीतल पेय बनाने वाली कंपनियों के भूजल के अकूत दोहन से भी कई क्षेत्रों में जल संकट गहराने की खबर है।
पानी की किल्लत भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में इस तरह असर डाल रही है कि यह झगड़े-फसाद की वजह बन रहा है। जानकार कहते हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी के एकाधिकार को लेकर हो सकता है। जल संकट सामाजिक समरसता, आर्थिक विकास, स्वास्थ्य संतुलन, जैव विविधता को भी प्रभावित करने लगा है। विस्थापन, बीमारियों का प्रसार, समय की बर्बादी, अधिक श्रम की जरूरत और बिजली का उत्पादन और खपत भी जल संकट की वजह से बड़े पैमाने पर देखा जाने लगा है। महाराष्ट्र में कई लोगों ने दूसरी शादी (जिसको ‘वाटर वाइफ’ कहते हैं) इसलिए की कि दूसरी पत्नी पानी लाने का काम करे और पहली पत्नी घरेलू कार्य निपटा सके। अगर ऐसे हालात दूसरे राज्यों में होंगे तो संभव है, महाराष्ट्र का यह प्रयोग दूसरे राज्य के लोग भी करने लग जाएं, जो आगे चलकर कई सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक समस्याओं का कारण बन सकता है।
फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य में सबसे महंगी बिकने वाली, लेकिन अधिक पानी सोखने वाली फसलों के प्रति किसानों को हतोत्साहित करने की जरूरत है। मगर यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि विकल्प में किसान जिन कम पानी लेने वाली फसलों को उगाएं, उनका न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों के हक में हो, ताकि उन्हें उन फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहन मिल सके।
केंद्र सरकार द्वारा मोटे अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए बनाई गई नीति बेहद फायदेमंद है, लेकिन उन मोटे अनाजों की पैदावार, उनकी बिक्री से होने वाली आय इतनी जरूर होनी चाहिए, जिससे किसान खुश होकर उन्हें अपने फसल-चक्र में शामिल कर लें। पानी की बर्बादी गांव, कस्बे और शहर हर जगह रुकनी चाहिए। साथ ही, वर्षा जल का संचय करने के लिए हर परिवार को जागरूक और प्रोत्साहित करना जरूरी है।
जल संकट बढ़ने की एक वजह कारखानों के जहरीले पानी को पाइप के जरिए जमीन के अंदर पहुंचाना भी है। भारत में तीन लाख से अधिक छोटे-बड़े बूचड़खाने हैं, जिनमें प्रतिदिन करोड़ों लीटर पानी बर्बाद होता है। इसी तरह दूसरे देशों में भी बूचड़खानों के कारण करोड़ों लीटर पानी बर्बाद होता है। उन देशों में भी, जहां पानी दूध और पेट्रोल से भी मंहगा है। भारत में भी कई इलाके ऐसे हैं जहां लोगों को ऊंचे दाम देकर पानी प्राप्त करना पड़ता है।
मतलब, पानी की यहां जो किल्लत पिछले बीस-पच्चीस सालों में पैदा हुई है, सरकार की गलत नीतियों के कारण है। इन नीतियों का ही परिणाम रहा कि दिल्ली और इससे सटे राज्य हरियाणा में धरती के नीचे का पानी दस से पंद्रह फुट तक नीचे चला गया है। इन इलाकों में बोतलबंद पानी का कारोबार बड़े पैमाने पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां कर रहीं है। शीतल पेय बनाने के विशालकाय संयंत्र भी बड़ी तादाद में चल रहे हैं। इनके खिलाफ सख्त कदम उठाने की जरूरत है।
देश में ऐसे कई इलाके हैं, जहां के पानी में जहरीले रासायनिक तत्त्व घुले हुए हैं, जिसकी वजह से उन क्षेत्रों का पानी किसी भी काम का नहीं रह गया है। प्रदूषित जल को इस्तेमाल करने लायक बनाने या इस्तेमाल किए गए जल को फिर से इस्तेमाल करने की विधि सीखने के प्रति लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए भारत में जल संकट दुनिया के दूसरे देशों की अपेक्षा अधिक गहरा है। इजराइल जैसे देश से हम इस बाबत बहुत कुछ सीख सकते हैं।
गौरतलब है कि इजराइल के लोगों ने वर्षा जल संचय के साथ पानी का बेहतर इस्तेमाल कर जल संकट से छुटकारा पा लिया। भारत में जितनी बरसात साल भर में होती है, अगर उसका संचय किया जाए और नई तकनीक से उसे पीने के लायक बनाकर इस्तेमाल किया जाए, तो पीने के पानी की समस्या से निजात तो पाया ही जा सकता है। जरूरत है कि पानी को बचाने के लिए हम प्रतिबद्ध हों, तभी पानी हमारा ‘जीवन रक्षक’ बन सकेगा।