ट्रंप की पार्टी का बड़ा हिस्सा इसी रणनीति पर चल रहा है। अगर धोखे से अमेरिका ईसाई राष्ट्र बनता है, तो यह समूची दुनिया में धर्मनिरपेक्षता के लिए मारक घटना होगी और शायद दुनिया के बहुत सारे देश, जो धर्मनिरपेक्ष हैं, उन्हें एक धर्म का राष्ट्र बनने की ओर धकेलेगी। दुनिया में शक्ति संतुलन का स्वरूप बदल जाएगा।
अमेरिका का जन्म ही एक प्रकार से साम्राज्यवाद से हुआ है। ब्रिटिश नस्ल के लोगों ने वहां पहुंच कर न केवल अमेरिकी भू-भाग पर आधिपत्य जमाया, बल्कि वहां के स्थानीय लोगों, जो अधिकतर आदिवासी और काले रंग के थे, को दास बनाया तथा उन्हें जंगलों तक सिकोड़ दिया। कुछ अंतराल के बाद इस दास प्रथा और सत्ता के विरुद्ध वहां के मूल निवासियों ने भारी विद्रोह किया। इस गृहयुद्ध के फलस्वरूप अंतत: अमेरिकी सरकार ने दास प्रथा की समाप्ति की घोषणा की। अमेरिका में आजादी की प्रतिमा (स्टैचू आफ लिबर्टी) आजादी के प्रतीक के रूप में स्थापित की गई थी और वहां रंगभेद तथा नस्लभेद मिटाने के लिए न केवल कानून बनाए गए, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक अभियान भी चले।
अमेरिकी समाज एक खुले आजाद और सहनशील समाज के रूप में स्थापित हुआ था, जहां कोई दूसरे के भीतर तांक-झांक नहीं करता था। वहां की संपन्नता और सुविधायुक्त जीवन ने दुनिया को आकर्षित किया। द्वितीय विश्वयुद्ध तथा जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बमों का प्रयोग कर वह आर्थिक और सामरिक शक्ति के मामले में विश्व शक्ति बन गया। कई दशक तक अमेरिका एकमात्र विश्व शक्ति बना रहा और लगभग दो दशक के बाद जब साम्यवादी रूस और चीन की सामरिक शक्ति बढ़ी, तो अमेरिका को कुछ चुनौती मिली और शीत युद्ध आरंभ हुआ।
शीत युद्ध एक प्रकार से कूटनीति और रणनीति के कौशल का युद्ध था, जिसमें सीधे हथियारों का प्रयोग अमेरिका का सैन्य समूह नेटो और साम्यवादी देशों का सैन्य समूह सेंटो युद्ध नहीं करते थे, बल्कि ये दोनों पीछे से अपने प्यादे और मोहरों को लड़ाते थे, उन्हें शस्त्र, धन आदि की आपूर्ति करते थे। लगभग दो दशक तक यह स्थिति रही और रूस के बिखराव के बाद अमेरिका फिर से एक नई विश्व शक्ति के रूप में स्थापित हो गया।
हालांकि बीसवीं सदी की समाप्ति और इक्कीसवीं सदी के आरंभ के बाद चीन ने अमेरिकी आर्थिक साम्राज्यवाद और एकमात्र विश्व शक्ति होने के दर्जे को चुनौती दी और इक्कीसवीं सदी के आंरभ के कुछ समय बाद ही वैश्विक परिदृश्य में बदलाव आया। पर दुनिया के पढ़े-लिखे और अपने आप को सभ्य समझने वाले लोगों के लिए अमेरिका रहने और सुखमय जीवन जीने के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है।
उन्नीसवीं सदी में अमेरिका दुनिया के लोगों की नजरों में एक लोकतांत्रिक राज्य था, जहां संपन्नता और आजादी दोनों उपलब्ध थीं। दुनिया के कला प्रेमियों के लिए फ्रांस और सुख उपभोग खोजियों के लिए अमेरिका सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता था। हालांकि यह अमेरिका का बाहरी चेहरा था। शक्ति और संपन्नता के शीर्षकाल में भी अमेरिका सीआइए के माध्यम से समूची दुनिया के देशों में उथल-पुथल करने के बीजारोपण का केंद्र बना रहा और गैरअमेरिकी दुनिया के देशों को कैसे अस्थिर रखना है, कहां कैसे अनुकूल सरकारें बनवाना हैं या प्रतिकूल सरकारों को गिराना है, इन सब षड्यंत्रों का केंद्र भी अमेरिका रहा।
हालांकि उन्नीसवीं सदी के अंत में अमेरिका में रंगभेद मिटाने के लिए कई सुनियोजित प्रयास हुए। काले और गोरों की शादियों की लोकतांत्रिक पहल भी हुई, यहां तक कि रंग परिवर्तन या नस्ल परिवर्तन के लिए तकनीकी उपाय, दवाएं और वैज्ञानिक प्रयोग भी शुरू किए गए। पर चीन की आर्थिक संपन्नता और सामरिक शक्ति के तेजी से विकास के बाद एक नए प्रकार का राष्ट्रवाद अमेरिका में शुरू हुआ है। जो अमेरिका पहले दुनिया भर के लोगों के लिए रोजगार का केंद्र था, वह अब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बाहरी लोगों से मुक्ति पाना चाहता है।
इसका पहला चरण है, आप्रवासियों को वापस भगाना, और इसके लिए अमेरिका ने ‘ग्रेट रिप्लेसमेंट स्ट्रेटजीज’ पर काम करना शुरू किया है। किसी न किसी बहाने से आप्रवासियों के आने को रोका जा रहा है और जो आ चुके हैं उन्हें विभिन्न कठोर नियमों के आधार पर वापस जाने को बाध्य किया जा रहा है। अमेरिका में अवैध प्रवेश का सबसे बड़ा दरवाजा मैक्सिको का बर्फीला इलाका था।
इस इलाके पर अमेरिका ने पर्याप्त अवरोध खड़े कर दिए हैं। वीजा के नियम क्रमश: सख्त किए जा रहे हैं, ताकि बाहर से वैधानिक आगमन न्यूनतम हो। तकनीकी विकास के माध्यम से वहां कारपोरेट का मुनाफा तो बढ़ रहा है, पर रोजगार क्रमश: कम हो रहे हैं। हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार वहां सूचना तकनीक के क्षेत्र में कई लाख रोजगार कम हो जाएंगे। एलेन मस्क और जुकरबर्ग ने भी छंटनी शुरू कर दी है और कई हजार लोग काम से हटाए गए हैं। ऐसे और भी रोजगार घटेंगे।
दूसरी तरफ, अमेरिकी समाज में रंगभेद की कट्टरता बढ़ रही है। बाहरी लोगों के खिलाफ जो अमेरिकी नागरिकों में आनलाइन नफरत का प्रचार चल रहा है, उससे अमेरिकी युवकों में आप्रवासियों के खिलाफ नफरत की भावना बढ़ी है। जिस प्रकार पिछले दिनों भारत में भीड़ हिंसा की घटनाएं घटीं, उसी प्रकार अमेरिका में ‘मास शूटिंग’ की घटनाएं बढ़ी हैं। न्यूयार्क के बफेलो प्रदेश में सरकार ने इसके कारणों की जांच कराई तो पता चला कि आनलाइन मंचों पर घृणा की सामग्री इतनी अधिक फैलाई जा रही है, कि उससे आम अमेरिकी युवक न केवल बाहरी, बल्कि अश्वेत लोगों के खिलाफ भी हिंसक बन रहे हैं।
अमेरिका के अटार्नी जनरल जेम्स ने अपनी रपट में इन आनलाइन और कट्टरपंथी विचारधारा के लोगों की भूमिका को स्वीकार किया है। बफेलो ‘मास शूटिंग’ के अपराधी गोडरोल ने भी यही किया था। 7 सितंबर, 2022 को लाथन जानसन नामक व्यक्ति ने चौदह हिंदू महिलाओं पर हमला किया और उनकी माथे की बिंदी तथा साड़ियों पर टिप्पणी की।
यह अमेरिका में पनप रही एकमात्र भारत विरोधी घटना नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है। घृणात्मक प्रचार का परिणाम हम भारत में अनेक बार देख चुके हैं। अमेरिका में भी यह प्रचार भारत की तरह चल रहा है कि अमेरिका में 2010 में श्वेत आबादी चौंसठ प्रतिशत थी, जो अब घट कर साठ प्रतिशत रह गई है और 2045 में श्वेत अल्पसंख्यक हो जाएंगे। इस प्रचार ने अमेरिका में आम श्वेत युवकों में अन्यों के प्रति एक गहरी नफरत का भाव भरा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति खुलेआम नारा दे रहे हैं कि श्वेत-श्वेत को वोट दो और ‘क्यूरिसर्च’ में यह बताया गया है कि अमेरिका के पैंतालीस प्रतिशत लोग अमेरिका को ईसाई राष्ट्र घोषित करना चाहते हैं।
इससे अमेरिका में रंगभेद की क्रूरता और हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं। ट्रंप की पार्टी का बड़ा हिस्सा इसी रणनीति पर चल रहा है। अगर धोखे से अमेरिका ईसाई राष्ट्र बनता है, तो यह समूची दुनिया में धर्मनिरपेक्षता के लिए मारक घटना होगी और शायद दुनिया के बहुत सारे देश, जो धर्मनिरपेक्ष हैं, उन्हें एक धर्म का राष्ट्र बनने की ओर धकेलेगी। दुनिया में शक्ति संतुलन का स्वरूप बदल जाएगा।
अभी जो पूंजीवाद के विस्तार या साम्राज्यवाद के लिए युद्ध हो रहे हैं वे शायद धर्म युद्ध में बदल जाएंगे। यह नियोजित है या आकस्मिक, कहना मुश्किल है, पर दुनिया के प्रवृत्त जगत के एक बड़े हिस्से में यह चिंता का कारण है। इक्कीसवीं सदी का यह ऐसा दौर है कि जब दुनिया के अनेक देशों में कट्टरपंथी विचार चुन कर सत्ता में आ रहे हैं। इटली और इजराइल के हाल के चुनाव के भी यही संकेत हैं।