परमजीत सिंह वोहरा
मसलन, चालू वित्तवर्ष में चार से अधिक बार ब्याज दरों में परिवर्तन किए तथा रेपो दर को अप्रत्याशित रूप से बढ़ाया। अब तकरीबन पंद्रह वर्षों बाद पहली बार भारत में रेपो दर छह फीसद के आंकड़े पर है।यह चालू वित्तवर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था को हुए नफे-नुकसान के विश्लेषण का समय है, क्योंकि बजट जल्द ही आने वाला है। ऊपरी तौर पर देखा जाए तो चालू वित्तवर्ष 2022-23 भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत उठापटक वाला वर्ष रहा है। इसमें वैश्विक आर्थिक संकटों का ज्यादा प्रभाव रहा है, जिसकी शुरुआत पिछले वर्ष फरवरी में रूस और यूक्रेन युद्ध से हुई थी।
इस युद्ध से वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ीं, जिसके चलते भारत में सभी तरह के आयात लगातार महंगे होते गए तथा उनका विकट प्रभाव घरेलू मोर्चे पर महंगाई में बढ़ोतरी के रूप में देखने को मिला। इन सब का पूर्वानुमान सामान्य भारतीय उपभोक्ता को नहीं था। कोरोना महामारी के दो विकट वर्षों के बाद वह अपनी आर्थिक स्थिति में कुछ मजबूती की उम्मीद कर रहा था, जिसे लगातार बढ़ रही महंगाई तथा बेरोजगारी ने संभव नहीं होने दिया।
दूसरा प्रभाव अमेरिकी आर्थिक नीतियों के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा। अमेरिकी केंद्रीय बैंक ने महंगाई को नियंत्रित करने के लिए जानबूझ कर अपने यहां ब्याज दरें बढ़ार्इं, जिससे तुलनात्मक रूप से डालर भारतीय रुपए के मुकाबले मजबूत हो गया। भारतीय रुपया कमजोर होता गया और ऐतिहासिक गिरावट के स्तर पर पहुंच गया। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए रुपए का कमजोर होना बहुत बड़ी मार के रूप में सामने आया, क्योंकि इसने भारत की वैश्विक खरीदारी को और महंगा कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप घरेलू मोर्चे पर महंगाई अनियंत्रित होती चली गई।
इन सबके बीच चालू वित्तवर्ष में विभिन्न वैश्विक तथा आंतरिक आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए रिजर्व बैंक ने बहुत अच्छे प्रयास किए। मसलन, चालू वित्तवर्ष में चार से अधिक बार ब्याज दरों में परिवर्तन किए तथा रेपो दर को अप्रत्याशित रूप से बढ़ाया। अब तकरीबन पंद्रह वर्षों बाद पहली बार भारत में रेपो दर छह प्रतिशत के आंकड़े पर है। इसके पीछे मुख्य कारण अमेरिकी फेड द्वारा बढ़ाई गई ब्याज दरें थी, जिसके परिणामस्वरूप भारत का रुपया कमजोर हुआ और घरेलू मोर्चे पर महंगाई बढ़ी। अगर ऐसा न होता तो इसके कई नकारात्मक परिणाम सामने होते, जिनमें आर्थिक मंदी भी सम्मिलित हो सकती थी।
गौरतलब है कि आज भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तथा इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े साझीदार अमेरिका और चीन दोनों आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। चीन में कोरोना महामारी काबू से बाहर है और अर्थव्यवस्था फिर संकट से गुजर रही है, तो वहीं कोरोना के दौरान 2020-21 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जानबूझ कर बढ़ाई गई वित्तीय तरलता ने अब वहां घरेलू स्तर पर महंगाई को पिछले पचास वर्षों के आंकड़ों से ऊपर लाकर खड़ा कर दिया है, जिसके परिणाम स्वरूप दोनों देशों ने अपनी आर्थिक नीतियों में काफी आमूलचूल परिवर्तन किए हैं। इसलिए निश्चित रूप से इसका आर्थिक दुष्प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ना था, मगर फिर भी आरबीआइ की दूरगामी सोच के चलते आज भारत बहुत विकट परिस्थिति में नहीं है।
इन सबके बीच एक सुखद स्थिति यह भी रही कि लंबे अरसे के बाद महंगाई की दरें नियंत्रित होती प्रतीत हो रही हैं। नवंबर 2022 में महंगाई दर को निर्धारित करने वाले- उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी कि सीबीआइ और थोक मूल्य सूचकांक यानी कि डब्लूपीआइ छह फीसद से नीचे दर्ज किए गए। सीपीआइ में गिरावट जनवरी 2022 के बाद पहली बार देखी गई। वहीं दूसरी तरफ डब्लूपीआइ 5.85 फीसद दर्ज हुई, जिसमें वर्ष 2021 के बाद पहली बार इतनी गिरावट देखी गई। इससे पहले यह 8.39 फीसद थी।
निश्चित रूप से आरबीआइ द्वारा चालू वित्तवर्ष में बढ़ाया गया रेपो रेट इसके पीछे एक मुख्य कारण है, क्योंकि इसे वित्तीय तरलता पर काफी नियंत्रण किया जा सका। हालांकि विश्लेषण में यह पक्ष भी सामने आता है कि इन दिनों सब्जियों और फलों की आवक एकाएक बहुत बढ़ गई, इसकी वजह से इनके मूल्यों में कमी दर्ज की गई है तथा इसी करण सीपीआइ और डब्लूपीआइ में गिरावट दर्ज हुई। इसीलिए यह चर्चा भी आम है कि महंगाई की दरों में आई गिरावट नकारात्मक प्रतीत होती है, क्योंकि इससे आम आदमी को आर्थिक संबल नहीं मिला है।
इन सबके बीच भारतीय लोकतंत्र में लोकलुभावन राजनीति भी एक ऐसे दौर में प्रवेश कर गई है, जिसने आर्थिक संकटों के अंदेशे को गहरा दिया है। इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था में आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया वाली कहावत बिल्कुल सही प्रतीत होती है। मुफ्त बांटने की राजनीति इतनी विस्तृत हो गई है कि वोट पाने के चक्कर में राजनीतिक दल आर्थिक संकटों के पूर्वानुमानों की बिल्कुल उपेक्षा कर रहे हैं।
एक रिपोर्ट के ताजा आंकड़ों के मुताबिक इन दिनों भारत के सभी राज्यों के वित्तीय कर्ज भारतीय अर्थव्यवस्था के जीडीपी का इकतीस फीसद से अधिक है। इस संदर्भ में यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि वर्ष 2018 में संसद द्वारा राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (एफआरबीएम) कानून के प्रावधानों के अनुसार अर्थव्यवस्था में जीडीपी के साठ फीसद तक ही कर्ज की सीमा होनी चाहिए, जिसमें केंद्र का हिस्सा चालीस फीसद और बाकी सभी राज्यों का हिस्सा रहना चाहिए। वर्तमान में राज्यों का हिस्सा बहुत बढ़ चुका है, जो कि अत्यंत चिंतनीय विषय है।
निश्चित रूप से इस संदर्भ में राज्यों को आने वाले समय में केंद्र से अधिक मदद की दरकार रहेगी और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव विकास दर में गिरावट के रूप में देखने को मिलेगा। राज्यों के बढ़ रहे लगातार घाटों के अंतर्गत उनके द्वारा मुफ्त बांटने की राजनीति अपनी पराकाष्ठा पर है, बजाय इसके कि रोजगार के अधिक से अधिक संसाधन विकसित किए जाएं तथा ग्रामीण और छोटे शहरों को आर्थिक विकास की मुख्यधारा में लाया जाए।
चालू वित्तवर्ष 2022-23 पड़ोसी मुल्कों की आर्थिक मोर्चे पर विफलता के साथ भारत के लिए भी काफी निराशाजनक रहा है। श्रीलंका की आर्थिक बदहाली और बांग्लादेश तथा पाकिस्तान की लगातार कमजोर होती जा रही अर्थव्यवस्था को सबने महसूस किया है। विशेष रूप से यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चिंतनीय विषय है, क्योंकि वैश्वीकरण के इस दौर में हम पड़ोसी मुल्कों की आर्थिक कमजोरियों से बिल्कुल अछूते नहीं रह सकते। इस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रति व्यक्ति क्रय क्षमता, वित्तीय ऋण और विदेशी मुद्रा का संग्रहण सभी एक आदर्श स्थिति में है, जिससे इस बात का कोई अंदेशा नहीं है कि आने वाले वित्तवर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोई घबराहट का दौर रहेगा।
सरकार को अब चाहिए कि बड़ी मजबूती के साथ आर्थिक नीतियों में कुछ ऐसे परिवर्तन करे, जिनका प्रभाव आम आदमी के जीवन में देखने को मिले, जिसमें मुख्य रूप से समाज के छोटे वेतनभोगी को आयकर से राहत दिलाना मुख्य हो। वहीं दूसरी तरफ बैंकिंग नीतियों में परिवर्तन भी किया जाए, जिसमें निर्माण क्षेत्र के अंतर्गत पीएलआइ योजना के माध्यम से अधिक से अधिक रोजगार प्रदान करने वाले उद्योगों को वित्तीय रियायतें दी जाएं। इसके अलावा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अधिक रोजगार का सृजन करने के लिए आवासीय तथा निर्माण क्षेत्र को और विस्तृत किया जाए। इसके परिणाम स्वरूप सभी मुख्य कारकों की मांग में वृद्धि होगी तथा अर्थव्यवस्था में तेजी बनी रहेगी।
इसके अलावा एक अन्य मुख्य आवश्यकता यह भी है कि आर्थिक नीतियों के अंतर्गत घरेलू बचत को अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाए और इसके लिए आधारभूत ढांचे के विकास के लिए नए सरकारी बांडों की घोषणा हो। उससे प्रत्यक्ष फायदा यह मिलेगा कि सरकारी निवेश के साथ निजी निवेश भी आर्थिक विकास के लिए मुख्यधारा में रहेगा।