विनोद के. शाह
मगर वे अदालती प्रक्रिया में भाग लेने से बचने का प्रयास करते हैं। निर्णय आता है तो विधायिका और कार्यपालिका आदेश के अनुपालन में विलंब करती हैं।यह सुखद है कि उच्चतम न्यायालय ने अब न्यायिक फैसलों का हिंदी सहित क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध कराने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। गणतंत्र दिवस पर शीर्ष न्यायालय के 1091 फैसलों को क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराया गया। शीर्ष अदालत के फैसले अब वेबसाइट, मोबाइल ऐप सहित राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) पोर्टल पर उपलब्ध होंगे।
2010 में उच्चतम न्यायालय की सलाह पर केंद्रीय कानून मंत्रालय ने देश के सभी न्यायालयों को ई-तकनीक से जोड़ने, न्यायिक ग्रिड की स्थापना, एक अदालत से दूसरी अदालत में फाइलें और डेटा स्थानांतरण, वीडियो कान्फ्रेंस के जरिए पक्षकारों और गवाहों के बयान दर्ज करने, अपराधी को अदालत में लाए बिना सुनवाई प्रक्रिया, प्रत्येक न्यायालय में आनलाइन आदेश की प्रति पक्षकारों को उपलब्ध कराने आदि उद्देश्यों को लेकर इस योजना का व्यापक खाका तैयार किया था। पिछले बारह वर्षों में इस योजना पर एक हजार सात सौ करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं।
गणतंत्र दिवस पर हुई इस शुरुआत से पक्षकारों और देश के आम नागरिकों को खुद आदेश पढ़ पाने की सुविधा उपलब्ध हो सकी है। सबसे बड़ी मुश्किल पक्षकारों के सामने तब आती थी, जब उच्चतम और उच्च न्यायालयों के अंग्रेजी भाषा में लिखित आदेशों को वे भाषा की अज्ञानता के चलते पढ़ने में असमर्थ होते थे। हिंदी देश के बहुसंख्य देशवासियों की संवाद की भाषा है।
मगर उच्चतम और उच्च न्यायालयों ने अपनी भाषा अंग्रेजी को ही बनाया हुआ है। सन 2015 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अदालतों के फैसले हिंदी में लिखने के लिए एक हलफनामा उच्चतम न्ययालय में दाखिल किया था। पर तब उच्चतम न्ययालय ने इसे न्यायाधीशों की कठिनाई बताकर खारिज कर दिया था। हालांकि अब भी फैसले भले हिंदी सहित क्षेत्रीय भाषा में न लिखे जाएं, लेकिन अनुवाद की उपलब्धता भी बड़ी राहत होगी।
हिंदी प्रदेशों की निचली अदालतों में फैसले भले हिंदी में लिखे जाते हैं, लेकिन कानूनी उपयोग की हिंदी भाषा इतनी क्लिष्ट है कि वह पक्षकारों को समझने में कठिनाई होती है। सन 1860 में बनी भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) में उर्दू, अरबी, फारसी के शब्दों की भरमार है, जिन्हें समझना हिंदीभाषी के लिए मुश्किल है। यहां भी भाषा सुधार की आवश्यकता है। इसे राज्य सरकारें भी निर्देशित कर सकती हैं।
देश की अदालतों में न्याय की गति की बात करें, तो दीवानी अदालतों में हालात ये हैं कि अंतिम न्याय मिलने तक तीन पीढ़ियां गुजर जाती हैं, लेकिन उचित न्याय नहीं मिल पाता। देश के सर्वोच्च न्यायविद भी सार्वजनिक मंचों से ‘देर से मिला न्याय अन्याय के बराबर है’ जैसे वाक्य दोहराते हैं। मगर हकीकत यह है कि भारत का आम नागरिक देश की न्याय व्यवस्था को एड़ियां घिसने वाली व्यवस्था मानता है।
देश में पचास फीसद से अधिक लंबित मामलों में कार्यपालिका की विभिन्न शाखाओं की निष्क्रियता और सामंजस्य का अभाव आम आदमी को अदालत का दरवाजा खटखटाने पर मजबूर करता है। केंद्र और राज्य सरकारें वर्षों अदालतों के फैसलों को लागू नहीं कर पाती हैं। लंबित मामलों के मुकाबले अदालतों में जजों की संख्या भी बहुत कम है। देश की प्रति दस लाख की आबादी पर मात्र बीस न्यायाधीश हैं। मगर जजों की संख्या बढ़ाने को सरकारें प्राथमिकता नहीं दे रही हैं।
न्याय की देहरी पर आज भी देश का आम जन न केवल डरते-डरते मजबूरीवश चढ़ता है, बल्कि इस प्रक्रिया में अनेक तरह से उसका उत्पीड़न भी होता है। तारीख पर तारीख मिलती जाती है और अगली तारीख जानने के लिए उसे बाबुओं और वकीलों पैसा तक देना पड़ता है। गरीब, महिलाओं और जातिगत रियायत के आधार पर सरकार ने कानूनी सहायता के लिए अदालतों में विधिक सेवा प्राधिकरणों की स्थापना की है, लेकिन इन संस्थानों की कार्यपद्धति मात्र औपचारिकता तक सीमित है।
देश में हर साल उच्चतम और उच्च न्यायालयों में औसतन पच्चीस हजार जनहित याचिकाएं दाखिल होती हैं, जिनमें केंद्र और राज्य सरकारों के विभाग पक्षकार होते हैं। मगर वे अदालती प्रक्रिया में भाग लेने से बचने का प्रयास करते हैं। निर्णय आता है तो विधायिका और कार्यपालिका आदेश के अनुपालन में विलंब करती हैं। कार्यपालिका की जिम्मेदारी के रूप में भारतीय दंड संहिता की धारा 41ए स्थानीय पुलिस को ऐसे अपराध, जिसमें सात साल से कम सजा का प्रावधान है, आरोपित व्यक्ति को गिरफ्तार कर सीधे अदालत में पेश करने से रोकती है।
इसके अंतर्गत पुलिस को पूर्ण विवेचना कर निर्णय लेने का अधिकार है कि वह देखे कि अपराध की श्रेणी प्राथमिकी दर्ज करने योग्य है भी या नहीं। मगर राज्यों की पुलिस ऐसी विवेचना किए बगैर आरोपित व्यक्ति की न केवल सख्ती से गिरफ्तारी करती है, बल्कि जेल वारंट की मांग के साथ आरोपी को निचली अदालत में पेश करती है। भारत में हर साल पचहत्तर लाख आरोपियों को पुलिस सीधे अदालत में पेश करके जेल भेज देती है, जिनमें से अस्सी फीसद मामले बिना किसी गहन पुलिस विवेचना के, मात्र वादी पक्ष के आरोपों के आधार पर निर्धारित होते हैं।
एक सर्वेक्षण से स्पष्ट है कि विचाराधीन मामलों में साठ फीसद आरोपी बाइज्जत बरी होते हैं। इस अदालती बोझ के लिए न केवल पुलिस और अदालतों में आपसी सामंजस्य का अभाव जिम्मेदार है, बल्कि निरपराधियों को जेल और कानूनी प्रताड़ना देने के लिए भी दोषी है। अदालतों पर बोझ न पड़े, इसलिए विभिन्न न्यायायिक और अपीलीय न्यायाधिकरण जैसे बिजली, सशस्त्र सेना, केंद्रीय प्रशासनिक आयोग, कंपनी ला बोर्ड, भारत प्रतिस्पर्धा आयोग, सीमा शुल्क, आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण, बौद्धिक संपदा, राष्ट्रीय हरित पंचाट, भारत प्रतिभूति और विनियामक बोर्ड, सूचना आयोग, उपभोक्ता आयोग का गठन कर आम आदमी को सुलभ न्याय दिलाने का प्रयास किया गया था।
मगर इन संस्थाओं में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार विधायिका के हाथों में होने से, केंद्र और राज्य सरकारें इन संस्थाओं में नियुक्ति प्रक्रिया अपनी सुविधानुसार कर रही हैं। इससे न्याय प्रक्रिया विलंबित होती है। प्रतीक्षारत पक्षकार न्याय मांगने इन न्यायायिक संस्थाओं के बजाय सिविल अदालतों में जाने को मजबूर होता है। हाल ही में न्यायाधिकरणों में लंबे समय से खाली पदों के कारण सुनवाई न होने पर एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को सख्त चेतावनी दी थी कि वे तुरंत नियुक्तियां करें। मगर फिर भी अधिकांश संस्था अब भी पदविहीन बनी हुई हैं।
पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार के मामलों के शीध्र निपटारे और अपराधियों को सजा दिलाने के मकसद से अनेक राज्यों में त्वरित अदालतों की स्थापना गई, दुर्लभतम प्रकरणों में निचली अदालतों ने समय सीमा में फांसी सहित कठोर सजा भी सुनाई हैं। मगर अब ये फैसले अपीलीय उच्च अदालतों के विचाराधीन हो चुके हैं। त्वरित अदालतें सिर्फ निचली अदालतों तक सीमित हैं।
ऊपरी अदालतों में त्वरित व्यवस्था बनाने में उच्चतम न्यायालय विफल रहा है। ऐसे में सवाल है कि त्वरित अदालतों की स्थापना से सिर्फ निचली अदालतों के फैसलों को चर्चित बनाने का प्रयास हुआ है, लेकिन अंतिम न्याय के इंतजार की प्रक्रिया में ही खड़ा कर दिया गया है। चेक बाउंस जैसे सीमित कानूनी प्रक्रिया से जुड़े ‘नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंटस एक्ट’ की धारा 138 में देश की अदालतों में तैंतीस लाख पचास हजार से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें कई मामले पिछले पांच सालों से हिचकोले खा रहे हैं।
न्यायिक प्रक्रिया में होने वाली देरी से मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री सहित राज्यों के मुख्यमंत्री और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश अच्छी तरह परिचित हैं। इसके कारण और निराकरण के उपाय भी उपलब्ध हैं। बस सामंजस्य स्थापित कर व्यापक सुधार की जरूरत है।