जयप्रकाश त्रिपाठी
फिलहाल तो एक सौ बयालीस करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में सुरक्षित दूरी से कोरोना के प्रकोप से बच निकलने की स्थितियां अनुकूल दिखने से रहीं। देश का जनसंख्या घनत्व आज लगभग चार सौ चौंसठ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो चुका है। यानी हर व्यक्ति के हिस्से दो हजार एक सौ पचपन वर्ग मीटर में दो गज की दूरी बना कर जीना असंभव-सी बात है।
कोरोना विषाणु के नए रूप ओमीक्रान का भी एक नया स्वरूप ‘स्टेल्थ ओमीक्रान’ यानी बीए-2 भी देश में आ चुका है। इसके संक्रमण की रफ्तार मूल ओमीक्रान से भी तेज बताई जा रही है। ऐसे में एक सवाल हर किसी को मथ रहा है कि इस डर की आखिर कितनी परतें हैं। फिलहाल, दुनिया के चालीस देशों सहित स्टेल्थ ओमीक्रान का सबसे ज्यादा संक्रमण डेनमार्क में मिला है। भारत से भी इसके पांच सौ से ज्यादा नमूने जीआइएसएआइडी (ग्लोबल इनीशिएटिव आन शेयरिंग आल इंफ्लुएंजा डाटा) परीक्षण के लिए भेजे गए हैं। देश में कोरोना की तीसरी लहर का उफान भयावह होने के बाद इसमें प्रसार में कुछ नरमी बताई जा रही है, फिर भी रोजाना अभी औसतन ढाई लाख से अधिक लोग इसकी चपेट में आ जा रहे हैं और रोजाना औसतन पांच सौ से ज्यादा लोग दम तोड़ रहे हैं।
महामारी ने लोगों की आपसदारी को छिन्न-भिन्न सा कर दिया है। हर तरह की उत्सवी गतिविधियों को तो जैसे लकवा-सा मार गया है। हां, गुलजार बाजारों, परिवहन केंद्रों पर भीड़ की धक्का-मुक्की देख कर लगता नहीं कि अर्थव्यवस्था की बत्ती गुल होने से बचाने के लिए आम जनमानस पर कोरोना काल में बरती जानी असावधानियों पर कोई खास असर पड़ा है।
ऐसे में कोरोना योद्धाओं की सुस्ती भी गौरतलब है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है। ऐसे में जनसंख्या घनत्व की चिंताओं के बीच दो गज की दूरी की मजबूरियां और सावधानियों, चिकित्सा उपायों का अकाल-सा! एक ओर, लाख चेतावनियों के बावजूद बगैर मास्क, सेनेटाइजर, जनसंख्या घनत्व के बीच दो गज की दूरी (सुरक्षित दूरी) और पहली-दूसरी लहर जैसी कोविड जांच की सुस्त रफ्तार आज के अत्यंत चिंताजनक हालात में कई गंभीर सवाल खड़े कर रही है।
जनसंख्या घनत्व, जिसने देश को मुद्दत से बेरोजगारी, अपराध, गरीबी, भुखमरी के दलदल में झोक रखा है, ने अब कोरोना-ओमीक्रान के असाध्य चक्रव्यूह में धकेल दिया है। फिलहाल, तो एक सौ बयालीस करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में सुरक्षित दूरी से कोरोना के प्रकोप से बच निकलने की स्थितियां अनुकूल दिखने से रहीं। देश का जनसंख्या घनत्व आज लगभग चार सौ चौंसठ व्यक्ति प्रति वर्ग किलो मीटर हो चुका है। यानी हर व्यक्ति के हिस्से दो हजार एक सौ पचपन वर्ग मीटर में दो गज की दूरी बना कर जीना असंभव-सी बात है। जहां तक जनसंख्या घनत्व रोकने की बात है, वह भी दिवा स्वप्न जैसा है।
एक नजर में तो सुरक्षित दूरी पर अमल की बात सिरे से नामुमकिन और हास्यास्पद भी लगती है। एक सामान्य से जोड़-घटाने से पता चलता है कि दो गज की दूरी बना कर रखने के लिए लगभग पंद्रह वर्ग मीटर भूमि की जरूरत होगी। सीधा-सा गणित है कि देश की कुल बत्तीस लाख सत्तासी हजार दो सौ तिरसठ वर्ग किलो मीटर जमीन में से लगभग बत्तीस लाख बत्तीस हजार एक सौ आठ वर्ग किलो मीटर का इस्तेमाल गैर-आवासीय जरूरतों में हो रहा है। ऐसे में एक सौ बयालीस करोड़ की आबादी के निजी इस्तेमाल के लिए मात्र पचपन हजार एक सौ पचपन वर्ग किलो मीटर भूमि उपलब्ध है, जबकि जनसंख्या घनत्व लगभग पच्चीस हजार सात सौ पैंतालीस व्यक्ति प्रति वर्ग किलो मीटर है।
दूसरा डरावना सच आबादी की आवासीय असमानता है जो इस चिंता को एकदम दूसरे सिरे पर ले जाती है। किसी के पास अकूत विस्तार है, तो कोई एक इंच का भी मोहताज है। स्थानीय स्तरों पर हमारी अपंग चिकित्सा सेवाओं का बेहद कमजोर होना भी कोरोना अथवा अन्य किसी बीमारी के महामारी बन जाने की एक बड़ी वजह है। आबादी के अनुपात में चिकित्सालयों की पहुंच का सवाल, आजादी मिलने के दशकों बाद भी जस का तस प्रासंगिक बना हुआ है।
ऐसे हालात में अधकचरी और खतरनाक तकनीक को भी काम पर लगा दिया जाता है, क्योंकि कुछ न करने के खतरे कहीं बड़े हो सकते हैं। तब जनसंख्या घनत्व लोगों को आत्मरक्षा के लिए भगदड़ मचाते चूहों-सा समझ में आता है। ऐसे दौर में ही सबसे बड़ा सवाल सामने आ खड़ा होता है कि बायोमीट्रिक निगरानी के मद्देनजर, हमे सर्वाधिकार-समृद्ध निगरानी राज और नागरिक सशक्तिकरण में से किसको तरजीह देना है। समाज-विज्ञानी बताते हैं कि कोरोना काल में केंद्रीकृत निगरानी और कड़ी सजा, एक उपयोगी दिशानिर्देश को लागू कराने के लिए जरूरी नहीं है।
आज ट्रैकिंग एप्लिकेशनों का इस्तेमाल करने के साथ ही व्यापक स्तर पर देश में कोरोना जांच कराने की जरूरत पहली प्राथमिकता है। लेकिन एक दिन हमें इसी बीच एक अजीब-सी सूचना मिलती है कि कोरोना मरीजों के संपर्क में आने वाले लोगों को जांच कराने की जरूरत नहीं है, जब तक उनकी पहचान ज्यादा जोखिम वाले व्यक्ति के तौर पर न हो। सवाल साफ है कि क्या कोरोना जांच की सुस्त रफ्तार हमें फिर से दूसरी लहर की तरह ही किसी बहुत गंभीर खतरे में डाल सकती है?
एक और चिंताजनक बात लोगों के चेतना के स्तर से जुड़ी है। हमारे यहां लोग, जैसे जन्म से ही अवैज्ञानिकता की घुट्टी पीकर सयाने हो रहे होते हैं। कानून-व्यवस्था की सख्ती, आए दिन की बार-बार की एहतियाती चेतावनियों के बावजूद, एक तो ज्यादातर लोग मास्क लगाएंगे नहीं और जो लोग इस्तेमाल कर रहे हैं, उनमें भी ज्यादातर के मास्क नाक के नीचे नजर आते हैं। ये उसी बेकाबू जनसंख्या घनत्व की मानसिकता वाली वजहों से ही जुड़े तथ्य हैं।
बात-बात में, ‘सब ऊपर वाले की मर्जी’ की दुहाई देकर, देश-समाज अथवा व्यक्तिगत जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेने की प्रवृत्ति भी कुछ कम खतरनाक नहीं है, जिससे कोरोना काल में राज्य को भी हर क्षण दो-चार होना पड़ रहा है। वह भी उसी चेतना के स्तर का खामियाजा रहा, जब देश में पूर्णबंदी लगी, भगदड़-सी मच गई, तमाम लोग जान से हाथ धो बैठे थे। चेतना संपन्न सजग जनता के ऐच्छिक सहयोग से हमारी ढेर सारी मुश्किलें किस तरह आसान हो सकती हैं, इसको हम कोरोना विषाणु का फैलाव रोकने में सफल दक्षिण कोरिया, ताइवान और सिंगापुर के प्रयोगों से भी सीख सकते हैं। मसला जनसंख्या घनत्व का हो, मास्क का हो, दो गज दूरी बरतने का हो, सामाजिक सरोकारों से युक्त, आत्मप्रेरित आबादी जब कोई काम करती है तो वह अधिक कारगर होता है, न कि पुलिसिया कड़ाई से।
इस महत्व को इस तरह भी समझ सकते हैं कि जब उन्नीसवीं सदी में वैज्ञानिकों ने साबुन से हाथ धोने की अहमियत को ठीक से समझा, उससे पहले डाक्टर-नर्स तक आपरेशन के बाद हाथ धोने के प्रति लापरवाह होते थे, आज वे करोड़ों-करोड़ लोग इस चेतना से युक्त हो चुके हैं कि साबुन उन बीमार करने वाले विषाणुओं, जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। फिर भी जनसंख्या घनत्व में ठीक से झांके तो पता चलेगा कि कोरोना के प्रसार में इस आत्मघाती लावरवाही का बहुत बड़ा योगदान है।
तमाम युद्धों और महामारियों से जीवन दुश्वार कर लेने के बावजूद आज कोरोना के तेजी से प्रसार में अवैज्ञानिक समाधान जुगाड़ने की प्रतिस्पर्धा ने भी कम खतरनाक भूमिका नहीं निभाई है। मौजूदा महामारी के परिवेश में तो चिकित्सा विज्ञान की प्रामाणिकता और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जब से कोरोना काल आया है, मास्क के इस्तेमाल पर आए दिन समीक्षाएं-लेख आदि प्रकाशित-प्रसारित हो रहे हैं, जबकि कोरोना के प्रसार में मास्क के प्रभाव की अब तक कोई विज्ञान सम्मत सर्वमान्य चिकित्सा रिपोर्ट सामने नहीं आ सकी है। ऐसे में हमारी विरोधाभासी और भ्रामक नीतियां भी सवालों के घेरे में आ जाती हैं।