सुमेर चंद्र

ऐसा लगता है कि अपने देश के राजनीतिकों और बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रीयता के असल रूप व सही अर्थ को भुला दिया है। ज्यों-ज्यों सूचना तंत्र का विस्तार हुआ है त्यों-त्यों हमारे नेताओं व विद्वान कहे जाने वालों ने आम आदमी को छलने की होड़-सी लगा रखी है। देश आजाद होने के बीस-तीस वर्षों तक हमारे नेताओं में इस प्रकार की वृत्ति ने घर नहीं किया था तथा विद्वानों ने तो अपने संचित ज्ञान का सदुपयोग ही किया था। किसी ने भी मौलाना अबुल कलाम आजाद के चरित्र पर अंगुली नहीं उठाई थी और न ही हमारे विद्वान नीलाम हो जाने की हद तक गिरे थे। ये इन दिनों जोड़-तोड़ व जुगत भिड़ाने के नित नए हथकंडे अपना रहे हैं।

मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के चाहे साधारण कार्यकर्ता हों या महत्त्वपूर्णपदाधिकारी, वे जिस एक-दो बात का हमेशा खयाल रखते हैं वह यह किकौन-सी बात बार-बार कहने से, और वह भी चिल्ला-चिल्ला कर कहने से ‘ऊपर’ वाला खुश होगा। भले ऐसी बात कहने से समाज का अहित ही क्यों न होता हो और उनकी अपनी आत्मा भी मलीन क्यों न होती हो। और सच्चाई यह भी है कि अपनी आत्मा की दुहाई देने वाले तो अब काफी अरसे से राजनीतिमें आते ही नहीं हैं। तो फिर देश किस दिशा में चलेगा इसका अनुमान लगाना कठिन कहां रह जाता है! भला ऐसे व्यक्ति और उनका समूह देश को किस दिशा में ले जाएंगे और देश की दशा क्या होगी?

यदि किसी राजनीतिक दल के बडे़ नेता ने किसी बड़े जलसे में यह कह दिया, दो और दो चार होते हैं, तो घंटे भर के भीतर दूसरे मुख्य दल के छुटभैयों के बीच भी बड़ा मुकाबला यह कहने का लग जाएगा कि इन लोगों की इस घटिया सोच ने ही इस देश का बंटाधार किया है और यदि देश की जनता ने फिर भूल करके देश की कमान इन के हाथों सौंप दी तो यह देश रसातल को चला जाएगा। हां, ‘ऊपर’ वाला ऐसे छुटभैयों को अपने ईदगिर्द रखना शुरू कर देगा।

राष्ट्र का सीधा-सा अर्थ बताया जाता है- ऐसे व्यक्तियों का बड़ा समूह जो विभिन्न प्रजातियों, साझा कुल, साझी भाषा व साझा इतिहास आदि के हों। फिर राष्ट्रीयता को समझना कठिन कहां रह जाता है? अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठावान होना ही राष्ट्रीयता का मूल सिद्धांत माना जाता है। पर अपने देश में कुछ वर्षों से यह सच्चाई अपना रूप बदल कर नंगा नाच कर रही है। तमाशा देखने वाले तालियां बजा-बजा कर इस बदले रूप को असल राष्ट्रीयता होने की गलतफहमी उत्पन्न करा रहे हैं। फिर किसकी मजाल, जो तनिक भी इधर उधर बोल दे? यदि किसी ने ऐसी भूल कर भी दी तो समझो उसने बड़ी मुसीबत को स्वयं न्योता दे दिया। आए दिन समाचार आ रहे हैं कि ऐसा करने व कहने वाले को अपनी जान से हाथ धोना पड़ सकता है।
जिन्होंने कभी अपने हाथों से एक तिनका भी गाय को नहीं खिलाया है वे बडेÞ गोरक्षक बने हुए हैं। जिन्होंने अपनी जननी को एक गिलास पानी भी अपने हाथों से नहीं पिलाया है वे ‘आदर्श’ समाज-सेवक बने हुए हैं। जिन्होंने किसी की चोटिल अंगुली को पट्टी तक नहीं बांधी हो, वे बडेÞ जनरक्षक बने फिर रहे हैं। उनके चलने व बोलने के ढंग को देख कर ऐसा लगता है कि इनसे बड़ा राष्ट्रहितैषी शायद ही पूरी धरा पर हो। उनके लिए ‘ऊपर वाले’ को खुश करना और खुश रखना ही राष्ट्रीयता है। उनके लिए किसी बड़े जलसे में ‘ऊपर वाले’ का नाम बीच-बीच में रटते रहना ही राष्ट्र-प्रेम से कहीं अधिक महत्त्व रखता है।

हां, यदि दूर विदेश में ऐसा करवा दिया जाए तो वह महान राष्ट्रवाद बन जाता है। हद हो तब हो जाती है जब ऐसा राष्ट्रवाद फैलाने को दल का बड़ा नेता भी उचित नहीं कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। हां, यह पूरा-पूरा खयाल रखा जाता है कि सपने में भी दो और दो चार नहीं कहना है। बस वही कहना है जिससे दालदलिया चलता रहे। जिनके दलदलिये के जुगाड़ मंदे पड़ गए है वे भी यह खयाल रखते हैं कि सच्चाई कभी जुबान पर न आए, और जुबान से निकल जाता है- सब कुछ ठीक चल रहा है!

धर्म, राष्ट्र का कभी भी महत्त्वपूर्ण अंग नहीं रहा था। धर्म तो हर मानव का निजी मामला है। किसके घर जन्म लेना है, मानव के बस की बात नहीं है। जहां भी जन्म लिया हो उस वंश की मान-मर्यादा बनाए रखना और उसका मान-सम्मान बढ़ाना हर मानव का पहला कर्तव्य माना जाता है। यदि सभी ऐसे मान-सम्मान बढ़ाएं तो स्वाभाविक है कि ऐसे मानवों का समूह बिना किसी कलह-क्लेश के रहेगा। जहां कलह-क्लेश नहीं होगा वहीं समृद्धि अपने आप रहेगी। ऐसी सामूहिक समृद्धि ही किसी राष्ट्र की मजबूती मानी जाती है, इसे ही वास्तविक विकास कहा जाना चाहिए। लेकिन आजकल हो यह रहा है कि कुछ लोगों या एक छोटे-से तबके की समृद्धि को ही पूरे राष्ट्र के विकास के रूप में पेश किया जा रहा है। आजकल सबकी नजर जीडीपी की वृद्धि दर पर रहती है। पर केवल जीडीपी से पूरी तस्वीर सामने नहीं आती। जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर के बावजूद किसानों की खुदकुशी की खबरें आती रही हैं। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बनी रही है।

उन्नीसवीं सदी में अपने देश का आपसी कलह-क्लेश पूरे जोर पर था। इसी कमजोरी का लाभ सात समंदर पार से आकर अंग्रेजों ने पूरी तरह उठाया। कुछ नौजवानों को यह बात राष्ट्र का अपमान लगी। एक नौजवान भगतसिंह हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम गया। एक और नौजवान अशफाक उल्ला ने कतई अपने धर्म से यह नहीं पूछा कि फांसी पर चढ़ूं या नहीं। इसी प्रकार एक अन्य धर्म का नौजवान, चंद्रशेखर आजाद, स्वयं को गोली से उड़ा कर आजाद हो गया। क्या धर्म राष्ट्र के आडेÞ आया? यही है सच्चा राष्ट्रवाद, और इसे नकार कर मनमर्जी से चिल्लाते रहना केवल प्रलाप या झूठ को दोहराना ही कहलाएगा।

अमेरिका में कई देशों से जाकर लोग बसे हैं। वहां मूल देश की तमाम भिन्नता तो है ही, वहां हर धर्म के लोग भी बसे हैं। अमेरिका आज पूरी दुनिया का सरताज माना जाता है। उसकी इस उन्नति में धर्म कहां आडे आया? पर ओछी वृत्ति तो ओछी सोच को जन्म देती है और ओछी सोच सुख-समृद्धि के आड़े आएगी। इसलिए ऐसी सोच के आधार पर राष्ट्र की कल्पना करना कोरा छलावा ही तो हुआ। क्या ऐसा छलावा राष्ट्र-हित में माना जाना चाहिए? क्या इस तरह का छलावा लेकर चलने वाले लोग राष्ट्रीयता को मूल रूप से नष्ट नहीं कर रहे हैं? क्या ऐसा करना उचित है?

इसलिए हमें संकुचित सोच को नकार कर, उदार व विशाल सोच का दामन मजबूती से पकड़ कर, अपने देश को दुनिया का बाजार न बना कर ऊंचे भाल वाला राष्ट्र बनाने का काम करना चाहिए। यही राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रवाद का असल तकाजा है। राष्ट्र-प्रेम इसे नहीं कहते कि हमेशा दूसरों के राष्ट्र-प्रेम को जांचते रहें। राष्ट्र-प्रेम उस पुकार को कहते हैं कि हम राष्ट्र के लिए क्या कर सकते हैं। हम जो कर रहे हैं क्या उससे राष्ट्र की उन्नति होगी? क्या उससे राष्ट्र के दबे-कुचले लोगों का भला होगा? क्या उससे दुनिया में देश की छवि निखरेगी या उस पर बट््टा लगेगा? हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस भारत का सपना संजोया था आज उसे याद करने और उसे साकार करने की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने की जरूरत है।