सुशील कुमार सिंह
जब यह महज कागजी नहीं होती, बल्कि लोगों के स्रायुतंत्र में बस चुकी होती है। जिम्मेदारी और जवाबदेही आचार नीति के अभिन्न अंग हैं और यही सुशासन का पैमाना भी है। आचार नीति एक बहुआयामी मानक है, इसलिए यह दायित्वों के बोझ को आसानी से सह लेती है। अगर दायित्व बड़े हों और आचरण के प्रति गंभीरता न हो, तो जोखिम बड़ा होता है।
एक सक्षम प्रशासक में निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा के साथ पारदर्शिता हो तभी सुशासन सुनिश्चित होता है। सिविल सेवकों के लिए आचार संहिता, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और अनेक प्रशासनिक कानूनों के जरिए नैतिकता को सबल बनाने का प्रयास किया गया है, पर इसकी क्या कसौटी हो, इसे भी देखना आवश्यक है।
मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक ‘सामाजिक-आर्थिक प्रशासन’ में कहा था कि नौकरशाही प्रभुत्व स्थापित करने से जुड़ी एक व्यवस्था है, जबकि अन्य विचारकों यह राय रही है कि यह सेवा की भावना से युक्त एक संगठन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस्पाती ढांचे वाली नौकरशाही बीते तीन दशकों से प्लास्टिक फ्रेम वाली सिविल सेवक बन गई है। ऐसा 1991 के उदारीकरण के बाद से देखा जा सकता है। मगर क्या नैतिकता के इस पड़ाव पर आचार नीति के मामले में विधायिका सफल कही जाएगी।
संसद हो या विधानसभा, दागी सांसदों और विधायकों की फेहरिस्त लगातार लंबी होती जा रही है। जाहिर है, आचार संहिता केवल सिविल सेवकों के लिए नहीं, उन तमाम कार्यकारियों के लिए व्यापक रूप में होनी चाहिए, जो राष्ट्र और राज्य में ताकतवर और वैधानिक सत्ता से पोषित हैं। नए वातावरण में कम से कम यह बात आ जानी चाहिए कि नई लोकसेवा के साथ संसद और विधानमंडल का पारिस्थितिकी तंत्र नए नैतिक आचरण से युक्त हो।
स्पेन की सुशासनिक संहिता दुनिया में सबसे अधिक प्रखर रूप में दिखती है। उसमें निष्पक्षता, तटस्थता और आत्मसंयम से लेकर जनसेवा के प्रति समर्पण समेत पंद्रह अच्छे आचरण के सिद्धांत निहित हैं। आचार नीति मानव चरित्र और आचरण से संबंधित है। यह सभी प्रकार के झूठ की निंदा करती है। चुनाव के दिनों में तो आदर्श चुनाव आचार संहिता राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों पर लागू हो जाती है।
मौजूदा समय में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों- मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में चुनावी बिगुल बज चुका है और नैतिकता के साथ आचरण नीति की आवश्यकता एक बार फिर इन छोटे राज्यों में प्रवेश कर रही है। निर्वाचन आयोग कितना सफल रहेगा और चुनावी होड़ में शामिल राजनेता आचार संहिता में कितने सहयोगी बनेंगे, यह समय बताएगा।
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने आचार संहिता पर अपनी दूसरी रिपोर्ट में शासन में नैतिकता से संबंधित कई सिद्धांतों को उकेरा था। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां कहां से उत्पन्न होती हैं? ये कभी न खत्म होने वाले लालच से आती हैं। भ्रष्टाचार मुक्त नैतिक समाज के लिए इस लालच के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी और ‘मैं क्या दे सकता हूं’ की भावना से इस स्थिति को बदलना होगा।
देश तभी ऊंचाई को प्राप्त करता है, जब पूरी व्यवस्था आचार नीति का पालन करती हो। जब यह महज कागजी नहीं होती, बल्कि लोगों के स्नायुतंत्र में बस चुकी होती है। जिम्मेदारी और जवाबदेही आचार नीति के अभिन्न अंग हैं और यही सुशासन का पैमाना भी है। आचार नीति एक बहुआयामी मानक है, इसलिए यह दायित्वों के बोझ को आसानी से सह लेती है। अगर दायित्व बड़े हों और आचरण के प्रति गंभीरता न हो, तो जोखिम बड़ा होता है।
विभिन्न देशों ने समय-समय पर अपने मंत्रियों, विधायकों और सिविल सेवकों के लिए नैतिक संहिता निर्धारित किया है। अमेरिका में यह मंत्री संहिता, संयुक्त राष्ट्र सीनेट में आचार संहिता और कनाडा में मंत्रियों के लिए मार्गदर्शन है। भारत सरकार ने एक आचार संहिता निर्धारित की है, जो केंद्र और राज्य सरकार, दोनों के मंत्रियों पर लागू होती है।
इनमें कई अन्य बातों के साथ मंत्रियों द्वारा अपनी संपत्ति और देनदारियों का खुलासा करने साथ ही सरकार में शामिल होने से पहले जिस किसी भी व्यवसाय में थे, उससे स्वयं को अलग करने के अलावा स्वयं या परिवार के किसी सदस्य आदि के मामले में कोई योगदान या उपहार स्वीकार न करने की बात कही गई है। मगर जब नैतिकता के पैमाने पर सुशासन को कसा जाता है, तो ये बातें काफी अधूरी दिखती हैं। इसकी बड़ी वजह आचार संहिता के अनुपालन में कमी है। राजनीतिक प्रक्रिया का अपराधीकरण तथा राजनेताओं, लोक सेवकों और व्यावसायिक घरानों के बीच अपवित्र गठजोड़, लोकनीति के निर्धारण और शासन पर घातक असर डालता है।
भारत के लोकतांत्रिक शासन को ज्यादा गंभीर खतरा अपराधियों और बाहुबलियों से है, जो राज्य की विधानसभाओं और देश की लोकसभा में अच्छी-खासी जनसंख्या में घुसने लगे हैं। अब तो ऐसा लगता है कि एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति अपनी जड़ें जमा रही है, जिसमें संसद या विधानसभा की सदस्यता को निजी फायदे और आर्थिक लाभ के अवसर के रूप में देखा जा रहा है।
इसे व्यापक रूप में देखें तो सुशासन और आचरण नीति दोनों घाटे में दिखते हैं। बावजूद इसके आचार नीति और उसके पारिस्थितिकी तंत्र को प्राप्त करने का भरोसा नहीं छोड़ा जा सकता। विविध भाषाभाषी और संस्कृति से युक्त भारत भावना और संस्कृति से भरा है, मगर विश्वसनीयता और दक्षता के साथ ईमानदारी पर संशय भी उतना ही बरकरार रहता है कि जिन्हें जिम्मेदारी मिली है, क्या वे पूरा न्याय करते हैं।
नेता कौन होता है, उसके गुण और जिम्मेदारियां क्या होती हैं, एक समुदाय, समाज या राष्ट्र में समृद्धि, आर्थिक उन्नति स्थायित्व, शांति और सद्भाव आदि कैसे विकसित हों, यह नेतृत्व को समझना होता है। देखा जाए तो नेतृत्व मुख्य रूप से बदलाव का प्रतिनिधित्व होता है और उन्नति उसका उद्देश्य। मात्र लोगों की आकांक्षाओं को ऊपर उठाना, सत्ता हथियाना और नैतिकताविहीन होकर स्वयं का शानदार भविष्य तलाशना न तो नेतृत्व की श्रेणी है और न तो यह आचार नीति का हिस्सा है।
लोक प्रशासन में नैतिकता के पारितंत्र को परिभाषित करने के लिए विभिन्न कानूनों, नियमों और विनियमों के माध्यम से इसे व्यापक रूप दिया गया है। 1930 के दशक में ब्रिटिश सिविल सेवकों के लिए ‘क्या करें और क्या न करें’ निर्देशों का एक संग्रह जारी किया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी आचार नीति का निर्माण इसी का हिस्सा था।
संविधान में कामकाज की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग द्वारा 2001 में प्रशासन में ईमानदारी को लेकर जारी परामर्शपत्र में कई विधायी और संस्थागत मुद्दों पर प्रकाश डाला गया था। गौरतलब है कि सुशासन, विश्वास और भरोसे पर टिका होता है। शासन में ईमानदारी, सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही, पारदर्शिता और सत्यनिष्ठा का सुनिश्चित होना सुशासन की गारंटी है। सुशासन के चलते ही आचार नीति को भी एक आवरण मिलता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2003 में भ्रष्टाचार के खिलाफ संकल्प को मंजूरी दी। ब्रिटेन में सार्वजनिक जीवन में मानकों पर समिति बनाई गई, जिसे नोलान समिति के नाम से जाना जाता है। उसमें सात मुख्य बातें- निस्वार्थता, सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता, जवाबदेही, खुलापन, ईमानदारी और नेतृत्व- शामिल थीं। देश में संस्थागत और कानूनी ढांचा कमजोर नहीं है, दिक्कत इसके अनुपालन करने वाले आचरण में है।
केंद्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआइ, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, लोकपाल और लोकायुक्त जहां सुशासन स्थापित करने के संस्थान हैं, वहीं भारतीय दंड संहिता, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और सूचना के अधिकार समेत कई कानून देखे जा सकते हैं। मगर सुशासन के लिए एक ऐसी आचार संहिता की जरूरत है, जो संस्कृति, पर्यावरण तथा स्त्री पुरुष समानता को बढ़ावा देने के अलावा आत्मसंयम और सत्यनिष्ठा के साथ निष्पक्षता पर बल देती हो। यह सच है कि जनता और मीडिया मूकदर्शक नहीं है, न्यायिक सक्रियता भी बढ़ी है। बावजूद इसके, यह सवाल बना हुआ है कि लोकतंत्र के प्रवेश द्वार पर अपराध कैसे रुके और वैधानिक सत्ताधारक आचार नीति में पूरी तरह कैसे बंधे।