राजनीति: बदलते समाज में गोद के सवाल
बच्चों को गोद लेने का पुनीत उद्देश्य तब और फलीभूत होगा जब हम विशेष आवश्यकता वाले बालकों को भी अपनाने के लिए पहल करेंगे। इस पहल को अमलीजामा पहनाने के लिए कानूनी प्रक्रियाओं को आसान बनाए जाने की जरूरत है, ताकि लोग जरूरतमंद बच्चों को गोद लेने के लिए प्रेरित हो सकें।

बिभा त्रिपाठी
दत्तक ग्रहण वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत एक माता-पिता किसी दूसरे माता-पिता, संस्था या राज्य के माध्यम से किसी लड़के या लड़की को गोद लेते हैं और इसके बाद वह लड़का या लड़की अपने नए माता-पिता की विधिक संतान समझे जाते हैं। ज्ञात हो कि पूरे नवंबर महीने को दत्तक ग्रहण माह के रूप में मनाया जाता है, जिसमें लोगों को बच्चों को गोद लेने के लिए जागरूक करने का प्रयास किया जाता है। दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया और प्रश्न जितना कानूनी प्रावधानों से बंधा हुआ है, उससे कहीं ज्यादा यह सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, परमार्थवादी और मनोवैज्ञानिक सोच से भी प्रभावित है।
किसी बच्चे को गोद लेने के पहले और उसके बाद अनेक ऐसे सवाल उठते हैं जिनका संभावित उत्तर पाने का प्रयास हर वह व्यक्ति अथवा दंपत्ति करता है जिसने किसी बच्चे को गोद लेने के बारे में सोचा हो। भारत की बहुसंख्यक हिंदू आबादी जहां हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम, 1956 के प्रावधानों के तहत गोद ले सकती है, वहीं गैर हिंदू धर्म का कोई व्यक्ति संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत किसी भी बच्चे का संरक्षकत्व हासिल कर सकता है।
इसके अलावा किशोर न्याय देखभाल एवं संरक्षण अधिनियम, 2015 के अंतर्गत किसी भी धर्म या जाति का पुरुष स्त्री अथवा दंपत्ति किसी भी अनाथ परित्यक्त अथवा सौंपे हुए बच्चे को गोद ले सकते हैं। शबनम हाशमी बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब कोई भी गैर हिंदू किशोर न्याय देखभाल एवं संरक्षण अधिनियम के तहत किसी भी बच्चे को गोद ले सकता है।
इस अधिनियम की धारा 56 से लेकर 73 तक में दत्तक ग्रहण से संबंधित समस्त प्रावधानों का उल्लेख किया गया है, जिसमें दत्तक ग्रहण का उद्देश्य, भावी दत्तक ग्रहण अभिभावकों की योग्यता, भारतीय भावी अभिभावकों के द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया, दत्तक ग्रहण हेतु किसी प्रतिफल की मनाही एवं प्रतिफल दिए जाने पर दंड दिए जाने की प्रक्रिया, दत्तक ग्रहण का प्रभाव, राज्य एवं केंद्र स्तरीय दत्तक ग्रहण संसाधन अभिकरण के लिए प्रावधान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
लेकिन समस्या यह है कि इन तीन प्रकार की विधियों में एकरूपता नहीं है। जहां हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम के तहत दत्तक ग्रहण अंतिम और अविखंडनीय हो जाता है यानी किसी भी स्थिति में बच्चे को छोड़ा नहीं जा सकता है, वहीं किशोर न्याय एवं देखभाल अधिनियम के तहत लिए गए बच्चे को अपवाद की परिस्थितियों में वापस भी किया जा सकता है। इसी तरह उम्र को लेकर भी एकरूपता नहीं है। जहां हिंदू दत्तक ग्रहण में बच्चे की उम्र पंद्रह वर्ष से ऊपर नहीं होनी चाहिए, वहीं किशोर न्याय अधिनियम के तहत अठारह वर्ष से कम के बच्चे को गोद लिया जा सकता है। गोद लिए जाने वाले बच्चे की उम्र और गोद लेने की उम्र के बीच भी कम से कम इक्कीस वर्ष का अंतर होना चाहिए।
अब प्रश्न उठता है प्राथमिकता का, यानी कोई भी व्यक्ति जब दत्तक ग्रहण के द्वारा मातृत्व, पितृत्व, अभिभावकत्व अथवा संरक्षकत्व का दायित्व संभालने को तैयार होता है तो वह किसे चुनना चाहता है? पुत्र के रूप में लड़के को, पुत्री के रूप में लड़की को, नवजात शिशु को, या फिर अठारह वर्ष से नीचे के उम्र के किसी भी बालक या बालिका को, या फिर विशेष आवश्यकता वाले किसी दिव्यांग बच्चे को। बच्चों के कल्याणार्थ जो अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय विधियां व नियम बनाए हैं, उनमें बच्चों के सर्वोत्तम हित को सुनिश्चित करना सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
इनमें यह भी उल्लेखित है कि किसी भी बच्चे को, जो देखभाल एवं संरक्षण की आवश्यकता वाला बच्चा है, सरकारी या गैर सरकारी संरक्षण गृहों में रखने के बजाय एक पारिवारिक वातावरण के अंतर्गत रखा जाना चाहिए। परिवार जैसी सामाजिक संस्था जो सहयोग, समर्पण, सामंजस्य और संवेदनशीलता के आधार स्तंभों पर टिकी होती है, वहां एक बच्चे का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
लेकिन इन सबके बीच जब भारत के अनाथ और परित्यक्त बच्चों का सवाल आता है तो यह एक गंभीर समस्या का अहसास कराता है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में अनाथ और परित्यक्त बच्चों की आबादी लगभग तीन करोड़ तक पहुंच चुकी है। चिंता की बात तो यह है कि भारत में उन दंपतियों की तादाद भी बढ़ रही है जो निसंतान हैं या एकल जीवन व्यतीत कर रहे हैं या समलैंगिक समुदाय के हैं।
अपने वंशानुक्रम को जैविक बच्चे के माध्यम से बनाए रखने की पुरातन सोच को चिकित्सकीय तकनीकी प्रगति से बल मिला है और लोग आइवीएफ अथवा सरोगेसी के माध्यम से परिवार को बढ़ा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि वर्तमान समय में जो कानूनी प्रावधान हैं और केंद्रीय दत्तक ग्रहण नियामक प्राधिकरण के जो दिशा-निर्देश हैं, उनकी समीक्षा क्यों नहीं की होनी चाहिए। कहीं ये नियम-कानून इतने कठोर तो नहीं हैं कि लोग इन उलझनों में पड़ना ही नहीं चाहते हों।
दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न दत्तक ग्रहण के प्रभाव का है। जब भी कोई बच्चा गोद लिया जाएगा तो उसके अधिकार एवं कर्तव्य पूर्णरूप से जैविक संतान की भांति ही होंगे। ऐसे में विवाद उत्पन्न होता है संपत्ति के उत्तराधिकार को लेकर। जहां तक हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 की बात है, तो इसमें पुत्र के संबंध में तो कोई विवाद नहीं है। लेकिन गोद ली गई पुत्री को जन्म से सहदायिकी मानने का कोई उल्लेख नहीं है यानी वह पैतृक संपत्ति की अधिकारिणी नहीं मानी जाती है।
इसी साल उच्चतम न्यायालय ने एम. वनजा बनाम एम सरला देवी के मामले में यह सुनिश्चित किया कि एक वैध दत्तक ग्रहण के लिए पत्नी की सहमति एवं दत्तक में बच्चे का देना एवं लेना भी आवश्यक है। इस मामले में जब बेटी द्वारा संपत्ति के विभाजन का दावा किया गया तो माता ने यह तर्क दिया कि इस बच्ची का उसके और उसके मृतक पति के द्वारा केवल पालन-पोषण किया गया था, उसे दत्तक में ग्रहण नहीं किया गया था। न्यायालय ने अपीलार्थी लड़की के पक्ष में निर्णय इसलिए नहीं दिया क्योंकि उसके पास दत्तक ग्रहण का कोई सबूत नहीं था।
समस्या का दूसरा पहलू गोद लिए जाने वाले बच्चे की उम्र का है। आंकड़े बताते हैं कि नवजात शिशुओं को गोद लेने का प्रतिशत ज्यादा है, क्योंकि ऐसे बच्चों का पालन-पोषण करते समय उनके अभिभावक नैसर्गिक अभिभावकत्व का सुख प्राप्त करते हैं। इस साल मार्च के अंत तक कुल तीन हजार पांच सौ इकत्तीस बच्चों को गोद लिया गया जिनमें दो हजार इकसठ लड़कियां थीं। परंतु इसके पीछे का कारण यह नहीं है कि लैंगिक असमानता के मुद्दे पर सोच बदल गई है, बल्कि यह है कि गोद लिए जाने के लिए उपलब्ध बच्चों में लड़कियों की संख्या ज्यादा है।
इनमें तीन हजार एक सौ बीस बच्चे पांच साल तक के थे, जबकि पांच से अठारह वर्ष के भीतर के मात्र चार सौ ग्यारह बच्चे थे। गोद लेने के मामले में राज्यों के स्तर पर महाराष्ट्र अग्रणी रहा क्योंकि महाराष्ट्र में लगभग साठ एजेंसियां इस काम में लगी हैं, जबकि अन्य राज्यों में यह प्रतिशत बीस या उससे कम रहा।
बच्चों को गोद लेने का पुनीत उद्देश्य तब और फलीभूत होगा जब हम विशेष आवश्यकता वाले बालकों को भी अपनाने के लिए पहल करेंगे। इस पहल को अमलीजामा पहनाने के लिए कानूनी प्रक्रियाओं को आसान बनाए जाने की जरूरत है, ताकि लोग जरूरतमंद बच्चों को गोद लेने के लिए प्रेरित हो सकें। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि दत्तक ग्रहण का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। किंतु यह एक विधिक अधिकार अवश्य है। इस प्रक्रिया की सफलता निर्भर करती है उस अभिभावक की पुनीत भावना पर, संस्थाओं की निष्पक्षता पर, हितधारकों की निष्ठा पर और समाज की समृद्ध और उदारवादी सोच पर।
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