प्रणय कुमार
अब भी, कई बड़े और छोटे स्मारक देखभाल में कमी के कारण विलुप्त होने के कगार पर हैं।’ उनका यह भी कहना है कि उनके पास संसाधनों और कर्मचारियों का पर्याप्त अभाव है।
ऐतिहासिक धरोहरें सभ्यता और संस्कृति की जीवंत दस्तावेज होती हैं, जिन्हें देख, पढ़ और जानकर हम अतीत की धड़कती जिंदगियों के अनछुए पहलुओं-समय का आकलन-अवलोकन कर सकते हैं। भारत ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध राष्ट्र है। यह एकमात्र ऐसा देश है, जहां की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा इतने प्राचीन काल से अविरल-अप्रतिहत रूप से चली आ रही है। भारत की इस अति प्राचीन-प्रवहमान सांस्कृतिक धारा की प्रत्यक्ष प्रतीति और अनुभूति हमें अपनी ऐतिहासिक धरोहरों और पुरातात्त्विक अवशेषों को देखकर होती है।
भारत के गौरवशाली अतीत के मौन, किंतु मुखर कथावाचक के रूप में ये धरोहरें सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक प्रेरणा की जीवंत स्रोत हैं। हमारी ये धरोहरें अनेकता में एकता को सच्चे अर्थों में प्रतिबिंबित और प्रदर्शित करती हैं। इन्हें देखकर भारत की समन्वयवादी संस्कृति और सह-अस्तित्ववादी जीवन-दृष्टि का गहरा बोध होता है। ये वैश्विक स्तर पर हमारी विशिष्ट और मौलिक सांस्कृतिक पहचान के प्रत्यक्ष और श्रेष्ठतम प्रतीक हैं।
मुख्य रूप से तीन प्रकार की धरोहरें होती हैं- सांस्कृतिक, प्राकृतिक और अमूर्त। सांस्कृतिक धरोहरों में भौतिक या कलाकृतियों जैसे मूर्त सांस्कृतिक धरोहर शामिल हैं। ये आमतौर पर चल और अचल धरोहर के दो समूहों में विभाजित होते हैं। जहां अचल धरोहर में इमारतें, ऐतिहासिक स्थान और स्मारक आदि सम्मिलित होते हैं, वहीं चल धरोहर में ग्रंथ, दस्तावेज, चल कलाकृतियां, संगीत और ऐसी अन्य वस्तुएं शामिल होती हैं, जिन्हें भविष्य के लिए संरक्षण योग्य माना जाता है। प्राकृतिक धरोहरों में वनस्पतियों और जीवों सहित ग्रामीण इलाके और प्राकृतिक पर्यावरण आदि शामिल होते हैं।
इसमें ऐसे प्राकृतिक भूदृश्य भी शामिल किए जा सकते हैं, जो महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक विशेषताओं को समेटे-संजोए हों। अमूर्त धरोहरों में किसी संस्कृति विशेष के गैर-भौतिक पहलू सम्मिलित होते हैं, जिन्हें इतिहास में एक विशिष्ट अवधि के दौरान सामाजिक रीति-रिवाजों द्वारा बनाए रखा गया हो। इनमें सामाजिक मूल्य और परंपराएं, रीति-रिवाज और प्रथाएं, सौंदर्यात्मक और आध्यात्मिक आस्थाएं, कलात्मक अभिव्यक्ति, भाषा और मानव गतिविधि के अन्य पहलू शामिल हैं।
स्वाभाविक रूप से, भौतिक वस्तुओं की तुलना में अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करना अधिक कठिन है। निस्संदेह ये सभी धरोहरें हमें अपनी जड़ों और गौरवशाली पंरपराओं से जोड़ती हैं। इन्हें देखकर हम तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक स्थितियों तथा व्यवस्थाओं का सहज और यथार्थ अनुमान ही नहीं लगा सकते, बल्कि इन अवशेषों, अभिलेखों, इमारतों, स्मारकों, शिलालेखों आदि को देखकर हम सभ्यता के ज्ञात और उपलब्ध इतिहास के भी पार झांक सकते हैं।
यही कारण है कि हर सजग और प्रबुद्ध समाज तथा देश अपनी ऐतिहासिक धरोहरों की विशेष देखभाल और साज-संभाल करता है। पर दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत की सरकारों द्वारा ऐतिहासिक-पुरातात्त्विक महत्त्व की इन धरोहरों के संरक्षण में बरती गई घनघोर लापरवाही और सतत उपेक्षा का गंभीर और चिंतनीय मामला संज्ञान में आया है। निस्संदेह ऐसी उपेक्षा और लापरवाही के लिए व्यवस्था तथा सरकारें अधिक उत्तरदायी होती हैं, पर अपने इन ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहरों के प्रति देश के शिक्षित और नागरिक-समाज की अवहेलना और उदासीनता भी मन को गहरे में कचोटती है।
इस समय देश भर में ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक महत्त्व के 3693 स्मारक हैं, जिन्हें केंद्र सरकार संरक्षित करती है। इनमें से पचास स्मारक अप्राप्य हैं। बीते आठ दिसंबर को केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय की संयुक्त संसदीय स्थायी समिति की ओर से प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया कि ‘यह गंभीर चिंता का विषय है कि भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के संरक्षण में राष्ट्रीय महत्त्व के कई स्मारक तेजी से गायब हो गए हैं।
ये स्मारक शहरीकरण, जलाशयों और बांधों के पानी में जलमग्न होने के कारण खो गए हैं। वहीं, कुछ स्मारकों का जगह नहीं मिलने और घने जंगलों में उन्हें खोज न पाने की वजह से भी वे गायब हो गए हैं।’ इन लापता स्मारकों में ग्यारह उत्तर प्रदेश के हैं। वहीं, दिल्ली और हरियाणा के दो-दो स्मारक लापता हैं। इनके अलावा इस सूची में असम, पश्चिम बंगाल, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड के स्मारकों के भी नाम शामिल हैं।
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार, इन स्मारकों में से चौदह तेजी से शहरीकरण के कारण खो गए हैं। वहीं, बारह जलाशयों या बांधों की वजह से पानी में डूब गए और बाकी चौबीस की जगह खोज पाना असंभव बताया गया है। अनुमान है कि या तो इनका अस्तित्व ही नहीं रहा या अतिक्रमण आदि के कारण इन्हें पहचान पाना संभव नहीं।
इसी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1930, 1940 और 1950 के दशक में बड़ी संख्या में संरक्षित स्मारकों की पहचान की गई थी, पर स्वतंत्रता के बाद उन्हें संरक्षित करने के बजाय नए स्मारकों की खोज पर ध्यान केंद्रित किया गया। इस रिपोर्ट में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग और संस्कृति मंत्रालय की विभिन्न संस्थाओं में खाली पड़े पदों की ओर भी संकेत किया गया है और उस पर गंभीर आपत्ति प्रकट की गई है।
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारियों का कहना है कि ‘आजादी के बाद की सरकारों की प्राथमिकताएं स्वास्थ्य और विकास थीं, इसलिए विरासत की घोर उपेक्षा की गई। अब भी, कई बड़े और छोटे स्मारक देखभाल में कमी के कारण विलुप्त होने के कागार पर हैं।’ उनका यह भी कहना है कि उनके पास संसाधनों और कर्मचारियों का पर्याप्त अभाव है। बजट की कमी के कारण इस समय 3693 संरक्षित स्थलों में से केवल 248 स्थलों पर सुरक्षाकर्मी तैनात हैं। इन स्थलों पर 2578 सुरक्षाकर्मियों की तैनाती की गई है। सभी संरक्षित स्थलों की सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें निश्चित ही इससे कहीं अधिक कर्मियों की आवश्यकता पड़ेगी और उपलब्ध कर्मियों और संसाधनों का कुशल तथा संतुलित प्रबंधन भी करना होगा।
उल्लेखनीय है कि 2013 में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी अपनी तरह के पहले भौतिक सत्यापन अभ्यास के पश्चात बानबे स्मारकों को ‘लापता’ घोषित किया था। तब भी रेखांकित किया गया था कि भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के पास संरक्षित स्मारकों और कलाकृतियों का कोई राज्यवार लिखित ब्योरा नहीं है। स्मारकों के गायब होने का मामला 2017 में लोकसभा में भी उठा था।
तत्कालीन केंद्रीय संस्कृति मंत्री ने तब ऐतिहासिक और संरक्षित स्मारकों की विलुप्ति तथा अतिक्रमण के प्रश्न पर उत्तर देते हुए कहा था कि ‘अरुणाचल प्रदेश में कापर टैंपल, असम के तिनसुकिया में शेरशाह की बंदूकें, दिल्ली में बाराखंभा और पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में बमनपुकुर किले के खंडहर गायब हो चुके हैं और उनका पता नहीं लगाया जा सकता। जिन स्मारकों का पता नहीं लगा है, उन्हें खोजने के लिए पुराने दस्तावेजों का सत्यापन, रेवेन्यू मैप, प्रकाशित रिपोर्ट, भौतिक निरीक्षण और टीमों की तैनाती की गई है।’
अच्छी बात है कि कैग द्वारा लापता घोषित बानबे स्मारकों में से बयालीस को ढूंढ़ लिया गया है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने पिछले आठ सालों में 8,478 गांवों का सर्वेक्षण किया है। इन गांवों में 2,914 पुरातात्त्विक अवशेष पाए गए हैं, जिन्हें सहेजने का काम चल रहा है। आजादी के बाद से अब तक उन्नीस राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्थित केंद्र संरक्षित स्मारकों और स्थलों से 210 चोरी की घटनाएं हुई हैं, जिनमें 486 वस्तुएं अपने स्थान से गायब मिलीं।
उनमें से इक्यानबे वस्तुएं बरामद कर ली गई हैं और अन्य की बरामदगी के प्रयास चल रहे हैं। संस्कृति मंत्रालय और एएसआइ को यह याद रखना होगा कि ये धरोहरें देश की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान और गौरव के जीवंत प्रतीक हैं। ये वर्तमान द्वारा भविष्य को सौंपी जाने वाली अमूल्य थाती हैं। इनका क्षरण देश की सभ्यता और संस्कृति का क्षरण है।