बिभा त्रिपाठी
पहला, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग द्वारा लड़कियों के विवाह की उम्र को अट्ठारह वर्ष से बढ़ा कर इक्कीस वर्ष किए जाने की और दूसरे सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश द्वारा सहमति से संबंध की उम्र को अठारह से घटा कर सोलह वर्ष किए जाने की। अब सोचना यह है कि अगर संसद विवाह की उम्र को बढ़ाकर इक्कीस वर्ष भी कर देती है तो इसका प्रभाव उसी पर होगा, जो विवाह जैसी संस्था पर भरोसा करता है।
एक तरफ यौन स्वातंत्र्य को निजता का अधिकार माना जाता है, तो दूसरी तरफ उम्र के आधार पर अंतरराष्ट्रीय मानकों से अलग हट कर कानून बनाए जाते हैं। ऐसे में आवश्यक है कि सहमति से संबंध, विवाह की उम्र और पक्षकारों के वैयक्तिक अधिकारों के विवाद पर गहन विमर्श और यथासंभव विवादित मुद्दों के निस्तारण का प्रयास किया जाए। भारतीय दंड संहिता में सहमति की उम्र, बलात्संग के प्रावधान, बच्चों को लैंगिक अपराध से संरक्षण, बाल विवाह निरोधक कानून और वैयक्तिक विधियों की स्थिति प्रमुख हो जाती है।
फिलहाल, लड़कियों के विवाह की उम्र अट्ठारह वर्ष से बढ़ा कर इक्कीस वर्ष करने का विधेयक प्रस्तावित है। किशोर न्याय देखभाल और संरक्षण अधिनियम में बलात्संग जैसे अपराधों में लिप्त सोलह से अठारह वर्ष के बच्चों की मानसिक परिपक्वता का निर्धारण करने और तदनुसार उनके साथ दंड विधान का प्रयोग करने की बात कही गई है। न्यायपालिका द्वारा समय-समय पर ऐसे निर्णय दिए जाते रहे हैं, जो कभी अत्यधिक प्रगतिशील माने जाते हैं, तो कभी रूढ़िवादी मानसिकता के पोषक।
एक तरफ विवाह के अधिकार को व्यक्ति का मौलिक अधिकार बताया गया है, तो दूसरी तरफ उम्र के विवादित होने पर कानूनी निपटारे का प्रावधान भी किया गया है। विवाह जैसी संस्था, चाहे इसे हिंदू विधि के तहत संस्कार माना जा रहा हो, चाहे मुसलिम विधि के तहत संविदा, इसकी चूलें हिल रही हैं और वयस्कों के बीच सहजीवन सामान्य जीवन शैली होती जा रही है।
ऐसे में महज उम्र का मापदंड अपराध निर्धारण के लिए संपूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता। न्यायालय में जब भी उम्र के निर्धारण का प्रश्न उठा है, इस बात की पुरजोर वकालत की गई है कि किसी भी व्यक्ति को उम्र के आधार पर कानूनों के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता। मगर विवाद की किसी भी स्थित में अमूमन दो वर्ष का लाभ पक्षकार बच्चे को मिलता है।
ऐसे में जब हम ‘इंडिपेंडेंट थाट बनाम भारत संघ’ के मामले में 2017 में न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर द्वारा दिए निर्णय को देखते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे सामने आया प्रश्न काफी सार्वजनिक महत्त्व का है कि क्या एक पुरुष और उसकी पत्नी के बीच- पंद्रह से अठारह साल की उम्र की लड़की होने के संबंध में- यौन संबंध बलात्कार है? भारतीय दंड संहिता में इसका उत्तर नकारात्मक है, मगर हमारी राय में अठारह साल से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बलात्कार है, चाहे वह शादीशुदा हो या नहीं। ऐसा लगता है कि तभी से वैवाहिक बलात्संग का प्रश्न अपने उत्तर तलाश रहा है।
दूसरी तरफ बाल विवाह निरोधक कानून अठारह वर्ष से कम उम्र के विवाह को शून्य घोषित करता है, पर ऐसे विवाह से भी अगर कोई संतान उत्पन्न हो जाती है, तो फैक्टम वैलेट के सिद्धांत के तहत ऐसी संतान को जायज मानते हुए उसे समस्त अधिकार प्रदान किए जाते हैं। इस संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले को देखें, जहां एक सत्रह वर्ष की अवयस्क मुसलिम लड़की ने प्रेम में पड़ कर मुसलिम विधि के अनुसार विवाह किया, पर अपने माता-पिता द्वारा प्रताड़ित की जा रही थी। उसने अपनी सुरक्षा की गुहार लगाई, तब न्यायालय ने न सिर्फ उसे सुरक्षा प्रदान करने की अनुशंसा की, बल्कि यह भी कहा कि वह चाहे तो अपने पति के साथ रह सकती है। पर न्यायालय ने यह भी कहा कि इस आधार पर आगे के मामले निर्णीत न किए जाएं।
उधर इस निर्णय के दो ही महीने बाद कर्नाटक उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने नाबालिग मुसलिम लड़की से शादी करने वाले व्यक्ति की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए इस तर्क को खारिज कर दिया कि एक नाबालिग मुसलिम लड़की का यौवन या पंद्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने पर विवाह, बाल विवाह निषेध अधिनियम का उल्लंघन नहीं करेगा। पीठ ने आगे कहा कि पाक्सो अधिनियम, एक विशेष अधिनियम होने के नाते, पर्सनल ला को दरकिनार करता है।
इस प्रकार के निर्णयों में विभिन्न उच्च न्यायालयों के दृष्टिकोणों में भिन्नता की वजह से अब सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने संसद से अपील की है कि पाक्सो अधिनियम में सहमति की निर्धारित उम्र को अठारह वर्ष से कम करने पर विचार करे। इस अपील के पीछे मंशा यही रही होगी कि ऐसे किशोर वय के बच्चे अगर प्रेम में पड़कर आपसी सहमति से संबंध बनाएं तो उन्हें अपराधी न समझा जाए। मगर सरकार ने इस पर सहमति नहीं जताई है।
स्पष्ट है कि निश्चित ही ये मामले बेहद संवेदनशील हैं। कहीं मानसिक परिपक्वता के अभाव में, तथाकथित उदासीनता के शिकार युवा परिवार और समाज के प्रति विरोध का स्वर मजबूत करते हुए ऐसे संबंध बनाते हैं और फिर उन्हें लगता है कि किशोरावस्था में लिया गया निर्णय गलत साबित हो गया है, तो कहीं माता-पिता स्वयं अपने बच्चों के बाल विवाह के दोषी पाए जाते हैं। कहीं समाज द्वारा पक्षकारों पर इसलिए अत्याचार किया जाता है कि उन्होंने अपने परिवार के विरुद्ध जाकर ऐसे संबंध स्थापित किए हैं। ऐसे में समस्या का निस्तारण किस प्रकार किया जाए यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है।
फिलहाल दो मुद्दे प्रमुखता से उठाए जा रहे हैं। पहला, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग द्वारा लड़कियों के विवाह की उम्र को अठारह वर्ष से बढ़ा कर इक्कीस वर्ष किए जाने की और दूसरे सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश द्वारा सहमति से संबंध की उम्र को अठारह से घटा कर सोलह वर्ष किए जाने की। अब सोचना यह है कि अगर संसद विवाह की उम्र को बढ़ाकर इक्कीस वर्ष भी कर देती है तो इसका प्रभाव उसी पर होगा, जो विवाह जैसी संस्था पर भरोसा करता है।
बिना विवाह के आपसी सहमति से साथ रहने वालों की स्थिति तब भी नाजुक ही रहेगी। और अगर उम्र घटा कर सोलह वर्ष कर दी गई, तो अनेक प्रकार की समस्याएं सामने आएंगी। कभी उनके अपने माता-पिता और परिवार द्वारा ही मुकदमा दायर होगा, तो कभी पक्षकारों में से ही किसी द्वारा विवाह के झांसे में संबंध बनाने का मामला आएगा और न्यायालय को सहमति की स्वतंत्रता के प्रश्न पर मगजमारी करनी होगी। सबसे गंभीर समय तब आएगा जब पक्षकारों में से कोई अन्य धर्म का होगा।
इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि कैसे विवाह जैसी संस्था को बचाया जाए और परिवार तथा समाज अपने बच्चों का समाजीकरण स्वस्थ ढंग से करते हुए संवादहीनता की स्थिति को हर हाल में समाप्त कर पाए। हमारे आपराधिक न्याय प्रशासन में अब भी पीड़ित की हित रक्षा का मुद्दा हाशिये पर ही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जहां अपराधों की संख्या में कमी आ रही है, अपराधियों के सुधार और पुनर्वास पर घोषणापत्र तैयार हो रहे हैं और पीड़ित को पुनर्स्थापित करने के लिए नई-नई नीतियां बनाई जा रही हैं, वहां इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ना ही होगा कि भारतीय समाज अपनी पितृसत्तात्मक सोच के साथ कब तक चलेगा? इसलिए समय की मांग है कि हम प्रेम, दबाव, शोषण और भयादोहन जैसे शब्दों में अंतर की बारीकी को समझें और हर मामले का निस्तारण उसके विशेष तथ्यों के आधार पर करें।
हर हाल में संसद, समाज और न्यायपालिका को प्रगतिशील बनना होगा। इस क्रम में एक वैध विवाह की उम्र को अठारह से बढ़ाकर इक्कीस कर देना तो उचित प्रतीत होता है, पर सहमति से सबंध की उम्र घटाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसा करने पर आने वाले समय में इसे और भी नीचे ले जाने की मांग की जा सकती है।