खेल में शुचिता के सवाल
लोढ़ा समिति ने अपनी रिपोर्ट में देश के क्रिकेट प्रशासन में व्यापक सुधारों की सिफारिश की है, जिनमें नेताओं और मंत्रियों को पद हासिल करने से रोकना, पदाधिकारियों की उम्र और कार्यकाल की समय सीमा तय करना और सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता देना शामिल है।

क्रिकेट संघों में व्याप्त अनियमितताओं को लेकर लंबे समय से अंगुलियां उठती रही हैं। इसमें सुधार के लिए कड़े उपाय करने की मांग होती रही है, मगर सरकार इस दिशा में कोई कदम उठाने से इसलिए हिचकती रही है कि इन संघों पर ज्यादातर राजनीतिक दलों से जुड़े लोग काबिज हैं। पिछले कुछ सालों से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआइ और आइपीएल में अनियमितताओं और मैच फिक्सिंग आदि को लेकर बड़े खुलासे हुए तो सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए क्रिकेट में सुधारों पर सिफारिश देने के लिए सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की अगुआई में एक तीन सदस्यों वाली समिति गठित कर दी। उस समिति ने भारतीय किक्रेट कंट्रोल बोर्ड में सुधारों के मद्देनजर अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को सौंप दी है।
लोढ़ा समिति ने अपनी रिपोर्ट में देश के क्रिकेट प्रशासन में व्यापक सुधारों की सिफारिश की है, जिनमें नेताओं और मंत्रियों को पद हासिल करने से रोकना, पदाधिकारियों की उम्र और कार्यकाल की समय सीमा तय करना और सट््टेबाजी को कानूनी मान्यता देना शामिल है। अभी तक क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में राजनेता, प्रशासक और उद्योगपति काबिज रहे हैं। वे अपने स्वार्थों के अनुरूप बोर्ड और खिलाड़ियों को संचालित करते रहे हैं। अगर लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू हो सकीं तो क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त हो सकेगा। उसे खिलाड़ी ही संचालित कर सकेंगे।
इन सिफारिशों के साथ ही, समिति ने अपना ध्यान क्रिकेट संचालन के तौर-तरीकों में सुधार पर केंद्रित रखा है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश यह है कि बीसीसीआइ के आॅडिटरों में सीएजी के एक अधिकारी को रखा जाए, ताकि उसके वित्तीय मामलों को पारदर्शी और विश्वसनीय बनाया जा सके। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में राजनीतिक दखलंदाजी और अनियमितता का बड़ा कारण उसकी अकूत कमाई में हिस्सा बंटाने का लोभ है। समिति की दूसरी अहम सिफारिश है क्रिकेटरों का संघ बनाने की। खिलाड़ी अधिकारियों की दया पर निर्भर न रहें, इसके लिए यह आवश्यक पहल है। समिति ने क्रिकेट में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए बीसीसीआइ को सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के दायरे में लाने और मैच फिक्सिंग को अपराध घोषित करने का सुझाव दिया है। क्रिकेट को क्रिकेटर ही चलाएं और बीसीसीआइ की स्वायतत्ता बनी रहे। यह बात कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार से कही थी कि क्रिकेट का संचालन क्रिकेटरों के हाथ में ही दिया जाए। मगर उस पर अमल नहीं हो सका।
समिति की यह भी सिफारिश है कि एक राज्य में सिर्फ एक क्रिकेट संघ हो और उसमें सभी को वोट देने का अधिकार हो। क्रिकेट संघों में पदाधिकारियों की उम्र भी तय की जाए। इसके अलावा राजनीति और प्रशासन से किसी व्यक्ति को पदाधिकारी न बनाया जाए। किसी भी बीसीसीआइ पदाधिकारी को लगातार दो से अधिक कार्यकाल तक एक पद पर न रहने दिया जाए। बीसीसीआइ में एक व्यक्ति, एक पद का नियम लागू हो। खिलाड़ियों का एक संघ और संविधान बनाया जाए। आइपीएल और बीसीसीआइ की अलग-अलग गवर्निग काउंसिल हो।
समिति की सिफारिशों के आधार पर बीसीसीआइ में सुधार की कवायद तो की जा सकती है, पर इससे किस हद तक अनियमितताओं को रोका जा सकता है, कहना मुश्किल है। रिपोर्ट में मैच फिक्सिंग को रोकने के लिए सुझाव देने के साथ ही सट्टेबाजी को वैध बनाने की सलाह भी दी गई है। यह सही है कि मैच फिक्सिंग ने क्रिकेट की आत्मा को कलुषित कर दिया है। कोई खिलाड़ी जब पैसे लेकर अपनी ही टीम को हराने की ठान ले, तो क्या वह खेल रह जाएगा? बीते डेढ़ दशक में मैच फिक्सिंग ने न सिर्फ क्रिकेट को बट््टा लगाया, बल्कि क्रिकेट प्रेमियों को भी निराश किया है। रिपोर्ट में क्रिकेट में सट््टेबाजी को वैध बनाने के साथ-साथ क्रिकेट संघों को आरटीआइ के दायरे में लाने का जो सुझाव दिया गया है उस पर अमल करने से सुधार की उम्मीद बढ़ सकती है।
खिलाड़ियों के हितों का ध्यान रखने के लिए टैस्ट क्रिकेटर को ही चयनकर्ता बनाने और राज्य क्रिकेट संघों में पूर्व क्रिकेटरों को शामिल करने का सुझाव भी महत्त्वपूर्ण है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोढ़ा समिति की यह रिपोर्ट लागू हो भी पाएगी या नहीं? देश को चलाने वाले तमाम रसूखदार लोग क्या अपनी सत्ता को आसानी से छोड़ने को तैयार होंगे? इस सवाल का जवाब सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ सरकार में जिम्मेदार पदों का निर्वाह कर रहे लोगों पर निर्भर है। अपने-परायों के चक्कर में पड़े बिना सरकार ने अगर रिपोर्ट को लागू करने का साहस दिखाया, तो रह-रह कर जगती रही उम्मीद पूरी हो सकती है। क्रिकेट में सट्टेबाजी को वैध बनाने के साथ-साथ क्रिकेट संघों को आरटीआइ के दायरे में लाने का जो सुझाव दिया है, उस पर अमल से सुधार की उम्मीद बढ़ सकती है।
बहरहाल, अगर सुप्रीम कोर्ट भारतीय किक्रेट कंट्रोल बोर्ड को न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा समिति के सुधार संबंधी सुझावों को मानने के लिए बाध्य करता है तो महाराष्ट्र के दिग्गज राजनेता शरद पवार के लिए खेल प्रशासन का रास्ता बंद हो जाएगा। वर्तमान अध्यक्ष शशांक मनोहर हो सकता है कि अपना मतदान अधिकार गंवा दें। समिति के सुझावों के व्यापक प्रभाव पड़ेंगे और इससे कई राज्य संघों के अध्यक्ष भी प्रभावित होंगे, जो लंबे समय से अपने पदों पर बने हुए हैं। पर समिति की यह सिफारिश विवादास्पद है कि सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता दे दी जाए। अनेक देशों में ऐसे प्रावधान हैं, मगर इस दिशा में कदम उठाने से पहले इसके तमाम संभावित असर और लाभ-हानि की व्यापक समीक्षा जरूरी है।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ऐसा करेगा कौन। यह काम न तो बीसीसीआइ कर सकती है और न सुप्रीम कोर्ट। कानून को ड्राफ्ट करने की जिम्मेदारी भारत सरकार के विधि मंत्रालय की है। लेकिन क्या विधि मंत्रालय ऐसी कोई पहल करने का जोखिम उठाएगा? हालांकि हमारे देश में सट्टेबाजी गैरकानूनी है। पब्लिक गैंबलिंग एक्ट 1867 से 1947 तक काम करता रहा। संविधान इस मामले में राज्यों को अपना कानून बनाने की छूट देता है। वैसे लोढ़ा समिति ने खेल प्रशासन का बेहतरीन खाका सामने रखा है। ये सिफारिशें भले बीसीसीआइ के लिए हैं, मगर इनका संदर्भ दूरगामी है। देश की तमाम खेल संस्थाओं के संचालन को पेशेवर और पारदर्शी बनाने की जरूरत है। आगे चल कर लोढ़ा समिति के सुझाव उनके काम भी आएंगे।
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की थी। कोर्ट ने समिति से बीसीसीआइ में सुधार के लिए रिपोर्ट मांगी थी। कुल एक सौ उनसठ पृष्ठ की रिपोर्ट में पंद्रह मुद्दों पर सुधार के सुझाव दिए गए हैं, जिसमें न सिर्फ बीसीसीआइ के पदाधिकारी का चुनाव लड़ने के लिए योग्यता तय की गई है, बल्कि निश्चित कार्यकाल और कूलिंग आॅफ पीरियड भी रखा गया है। अब शीर्ष न्यायालय यह फैसला करेगा कि बीसीसीआइ इन सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य है या नहीं। गौरतलब है कि आइपीएल स्पॉट फिक्सिंग घोटाले पर जस्टिस मुकुल मुद्गल समिति की जांच रिपोर्ट के बाद भावी कार्रवाई तय करने के लिए लोढ़ा समिति बनाई गई थी। उसने साक्ष्यों के आधार पर रिपोर्ट तैयार की। इसी का परिणाम है कि आइपीएल के जिन पूर्व सीओओ सुंदर राजन की भूमिका को मुद्गल समिति ने संदिग्ध पाया था, लोढ़ा समिति ने उन्हें बरी कर दिया।
भारतीय किक्रेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) के पास सुनहरा मौका है। जस्टिस आरएम लोढ़ा समिति की सिफारिशों को अपना कर वह बदनामियों के इतिहास से पीछा छुड़ा सकता है, जबकि इन पर अमल रोकने की कोशिश हुई, तो जनमानस में बीसीसीआइ की छवि और धूमिल होगी। फिर इन सिफारिशों को मानने की फिलहाल भले कानूनी बाध्यता न हो, लेकिन इनकी अनदेखी हुई, तो यह लगभग तय है कि बिहार क्रिकेट एसोसिएशन फिर कोर्ट की शरण जाएगा, जिसकी अर्जी पर चली कार्यवाही के दौरान लोढ़ा समिति का गठन हुआ था। आगे न्यायालय ने निर्देश दिए, तो उनका पालन बाध्यकारी होगा।
बेहतर होगा कि बीसीसीआइ खुद लोढ़ा समिति के सुझावों पर अमल शुरू कर दे। समिति ने क्रिकेट प्रशासन को पेशेवर बनाने, इससे राजनेताओं को अलग करने, इसे स्वार्थों के टकराव से मुक्त कर, खेल को स्वच्छ रखने और खिलाड़ियों के हितों के बेहतर संरक्षण के उपाय सुझाए हैं। इन उद्देश्यों से किसी को असहमति नहीं हो सकती।
बहरहाल, अब देखना यह है कि लोढ़ा समिति की रिपोर्ट के बाद जीत क्रिकेट की होती है या हमेशा की तरह राजनेताओं-अफसरों की। समिति ने क्रिकेट के उद्धार और उत्थान के लिए लंबे विचार-विमर्श के बाद जो रिपोर्ट बनाई है, अगर वह मान ली गई तो बल्ले और गेंद के बीच होने वाला रोमांच और बढ़ सकता है। साथ ही अपने फायदे के लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का इस्तेमाल करने वाले लोगों के मंसूबों पर पानी फिर सकता है।
यों दुनिया भर में अलग-अलग खेल संघों के कामकाज पर सवालिया निशान लगते रहते हैं, लेकिन भारत में एक क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ही है जो बारह महीने सवालों के घेरे में बना रहता है। ऐसे सवाल, जिनका जवाब मिलना तो दूर, उन्हें उठाने की हिम्मत भी किसी की नहीं होती। बोर्ड पर कब्जा या तो उद्योगपतियों का रहता है या राजनेताओं और अफसरों का। उद्योगपति, राजनेता और अफसर भी छोटे-मोटे नहीं, खासे प्रभाव वाले। फिर भला इनसे कोई सवाल पूछे तो कैसे? बेशक इससे चंद लोगों के हितों पर कुठाराघात होगा, लेकिन करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की जीत होगी।