धान, गेहूं, कपास और गन्ना ऐसी फसलें हैं, जो मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम होने पर ज्यादा पानी सोखती हैं। इसीलिए किसानों को मोटा अनाज, दालें, तिलहन पैदा करने और एनपीके खाद डालने को कहा जाता है। मगर इस बिंदु का विरोधाभासी पहलू यह है कि भारत सरकार यूरिया-डीएपी (नाइट्रोजन और फास्फोरस से बनी खाद) जैसी खादों पर भारी सबसिडी देती है। नतीजतन, मिश्रित एनपीके (नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश से निर्मित खाद) की जगह डीएपी सस्ती पड़ती है। विडंबना है कि एनपीके पर सबसिडी नहीं मिलने के कारण यह खाद महंगी मिलती है, जिससे किसानों ने इसे लगभग खारिज कर दिया है। सरकार डीएपी पर सबसिडी इसलिए दे रही है कि उसे राजनीतिक हानि न उठानी पड़े।
सरकार ने यूरिया-डीएपी पर वर्तमान वित्तीय वर्ष में दो लाख करोड़ रुपए की प्रत्यक्ष सबसिडी दी है। इससे खेती में धान और गेहूं का रकबा इस साल बढ़ गया है। ये फसलें ज्यादा मात्रा में पैदा होती हैं और इन्हीं का ज्यादा निर्यात होता है। किसान बहुफसलीय खेती करने से भी कतरा रहे हैं। इस वजह से देश को दलहन और तिलहन बड़ी मात्रा में आयात करने पड़ते हैं। इनके आयात में बड़ी मात्रा में विदेशी पूंजी भी खर्च होती है। यही नहीं, गेहूं, धान जैसी फसलों को पैदा करने में पानी के प्रबंधन और बिजली व्यवस्था में जो धन खर्च होता है, वह भी परोक्ष निर्यात के जरिए नुकसान का सबब बन रहा है। पर राजनीति के परिप्रेक्ष्य में इस हकीकत का न तो खुलासा होता है और न ही विपक्ष इन मुद्दों को संसद में उठाता है।
खेती और कृषिजन्य औद्योगिक उत्पादों से जुड़ा यह ऐसा मुद्दा है, जिसकी अनदेखी के चलते पानी का बड़ी मात्रा में निर्यात हो रहा है। इस पानी को ‘वर्चुअल वाटर’ भी कह सकते हैं। दरअसल, भारत से बड़ी मात्रा में चावल, चीनी, वस्त्र, जूते-चप्पल, फल और सब्जियां निर्यात होते हैं। इन्हें तैयार करने में बड़ी मात्रा में पानी खर्च होता है। अब तो जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारे यहां बोतलबंद पानी के संयंत्र लगाए हुए हैं, वे भी इस पानी को बड़ी मात्रा में अरब देशों को निर्यात कर रही हैं। इस तरह निर्यात किए जा रहे पानी पर कालांतर में लगाम नहीं लगाई गई, तो पानी का संकट और बढ़ेगा। जबकि देश के तीन चौथाई घरेलू रोजगार पानी पर निर्भर हैं।
आमतौर पर यह भुला दिया जाता है कि शुद्ध पानी तेल और लोहे जैसे खनिजों की तुलना में कहीं अधिक मूल्यवान है, क्योंकि पानी पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में बीस हजार डालर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक योगदान करता है। इस दृष्टि से भारत से कृषि और कृषि उत्पादों के जरिए पानी का जो परोक्ष निर्यात हो रहा है, वह हमारे भूतलीय और भूगर्भीय दोनों ही प्रकार के जल भंडारों का दोहन करने का बड़ा सबब बन रहा है।
दरअसल, एक टन अनाज उत्पादन में एक हजार टन पानी की जरूरत होती है। चावल, गेहूं, कपास और गन्ने की खेती में सबसे ज्यादा पानी खर्च होता है। इन्हीं का हम सबसे ज्यादा निर्यात करते हैं। सबसे ज्यादा पानी धान पैदा करने में खर्च होता है। पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में 5,389 लीटर पानी लगता है, जबकि इतना ही धान पैदा करने में पश्चिम बंगाल में करीब 2,713 लीटर पानी खर्च होता है। पानी की इस खपत में इतना बड़ा अंतर इसलिए है, क्योंकि पूर्वी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत में तापमान अधिक रहता है। खेत की मिट्टी और स्थानीय जलवायु भी पानी की कम-ज्यादा खपत से जुड़े अहम पहलू हैं। इसी तरह चीनी के लिए गन्ना उत्पादन में बड़ी मात्रा में पानी लगता है। गेहूं की अच्छी फसल के लिए भी तीन से चार मर्तबा सिंचाई करनी होती है।
सबसे ज्यादा, सत्तर प्रतिशत पानी सिंचाई में खर्च होता है। उद्योगों में बाईस फीसद और पीने से लेकर अन्य घरेलू कार्यों में आठ फीसद जल खर्च होता है। मगर नदियों और तालाबों की जल संग्रहण क्षमता लगातार घटने और सिंचाई तथा उद्योगों के लिए दोहन से सतह के ऊपर और नीचे जल की मात्रा लगातार छीज रही है। ऐसे में फसलों के रूप में जल का हो रहा अदृश्य निर्यात समस्या को और विकराल बनाने का काम कर रहा है।
इसे रोकने के लिए फसल प्रणाली में व्यापक बदलाव और सिंचाई में आधुनिक पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है।
ऐसा अनुमान है कि धरती पर 1.4 अरब घन किमी पानी है। लेकिन इसमें से महज दो फीसद पानी पीने और सिंचाई के लायक है। इससे जो फसलें और फल-सब्जियां उपजती हैं, उनके निर्यात के जरिए पच्चीस फीसद पानी अंतरराष्ट्रीय बाजार में खपत हो जाता है। इस तरह 1,050 अरब वर्ग मीटर पानी का परोक्ष कारोबार होता है। एक अनुमान के मुताबिक इस वैश्विक धंधे में लगभग दस हजार करोड़ घन मीटर वार्षिक जल भारत से फसलों के रूप में निर्यात होता है। जल के इस परोक्ष व्यापार में भारत दुनिया में अव्वल है। खाद्य पद्वार्थों, औद्योगिक उत्पादों और चमड़े के रूप में यह निर्यात सबसे ज्यादा होता है।
कई देश पानी के इस निर्यात से बचने के लिए उन कृषि और गैर-कृषि उत्पादों का आयात करने लगे हैं, जिनमें पानी अधिकतम खर्च होता है। उन्नत सिंचाई की तकनीक के लिए दुनिया में पहचान बनाने वाले इजराइल ने संतरे के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है, क्योंकि इस फल के जरिए पानी का परोक्ष निर्यात हो रहा था। इटली ने चमड़े के परिशोधन पर पाबंदी लगा दी है। इसके बदले वह जूते-चप्पल बनाने के लिए भारत से बड़ी मात्रा में परिशोधित चमड़ा आयात करता है। फसल प्रणाली में बदलाव के साथ-साथ, पानी के उपयोग में दक्षता भी बढ़ाने की जरूरत है।
सिंचाई के मौजूदा संसाधन और तकनीकों से सिंचाई में करीब पच्चीस से चालीस फीसद पानी ही वास्तविक रूप में काम आता है, बाकी बर्बाद हो जाता है। हमारे यहां पारंपरिक तरीकों में नहरों और नलकूपों से सिंचाई की जाती है। मगर अब बदलते परिदृश्य में फव्वरों, बूंद और स्प्रिंकलर तकनीकों को अपनाने की जरूरत है। इनसे तीस से पचास फीसद तक पानी की बचत होती है। अगर इनका विस्तार एक करोड़ हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में हो जाए, तो भारत बड़ी मात्रा में सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले जल की बचत कर सकता है।
आर्थिक उदारवाद के तहत वैश्विक अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए भारत की नीतियां लचीली और भ्रामक बनाई गई हैं। नतीजतन, प्राकृतिक जल को ये कंपनियां पूरी निर्ममता से निचोड़ने में लगी हैं। दरअसल, संभवत: भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां पानी राष्ट्रीय प्राथमिकता में है ही नहीं, इसलिए पानी का निर्यात चाहे परोक्ष रूप से हो रहा हो या प्रत्यक्ष रूप से, देश के कर्णधारों के लिए यह चिंता का विषय नहीं है, इसके उलट डीएपी जैसी खाद को सबसिडी देना ऐसे उपाय हैं, जो पानी के दोहन और अदृश्य निर्यात का कारण बन रहे हैं।