अंतरिक्ष में उपग्रहों का कचरा संकट बनता जा रहा है। इसके मद्देनजर दुनिया के वैज्ञानिक एक प्रभावशील अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाध्यकारी संधि की जरूरत रेखांकित कर रहे हैं। सामाजिक, शैक्षिक, संचार और पर्यावरणीय जरूरतों को देखते हुए उपग्रह प्रौद्योगिकी का प्रयोग निरंतर बढ़ रहा है। ऐसे में आशंका है कि अंतरिक्ष उद्योग की वृद्धि पृथ्वी की कक्षा के बड़े हिस्से को कहीं अनुपयोगी न बना दे।
पृथ्वी की कक्षा में फिलहाल करीब नौ हजार उपग्रह हैं, जो 2030 तक बढ़ कर साठ हजार हो सकते हैं। अंदाजा यह भी है कि पुराने उपग्रहों के सौ लाख करोड़ से अधिक टुकड़े पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। उपग्रह प्रौद्योगिकी और समुद्र में प्लास्टिक प्रदूषण समेत विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित विशेषज्ञों के अंतरराष्ट्रीय संघ ने कहा है कि इस पर तत्काल वैश्विक सर्वसम्मति बनाने की आवश्यकता है, जिससे पृथ्वी की कक्षा को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सके।
हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने उम्र पूरी कर चुके उपग्रहों को वापस लाने का अभियान शुरू कर दिया है। हाल में उसने अपनी सेवा पूरी कर चुके उपग्रह मेघा-ट्रापिक्स-1 (एमटी-1) को पृथ्वी की निचली कक्षा में पुन: प्रवेश करा कर प्रशांत महासागर में गिरा दिया।
इस उपग्रह का वजन लगभग एक हजार किलोग्राम था। इसरो ने बताया कि इसमें करीब सवा सौ किलोग्राम र्इंधन बाकी था, जो संकट पैदा कर सकता था। इसलिए इसे प्रशांत महासागर के निर्जन क्षेत्र में नष्ट कर दिया गया है। पर उपग्रहों का यह कचरा समुद्र में भी प्रदूषण का बड़ा कारण बन रहा है।
बंगलुरु स्थित अंतरिक्ष एजंसी से छोड़े गए इस एमटी-1 का जीवनकाल मूल रूप से तीन साल का था। यह उपग्रह 2021 तक क्षेत्रीय और वैश्विक जलवायु से जुड़ी डेटा संबंधी सेवाएं उपलब्ध कराता रहा। अगर इसे पृथ्वी की कक्षा में ही बने रहने दिया जाता तो यह सौ साल तक कक्षा में चक्कर काटता रहता।
ईंधन अधिक मात्रा में होने के कारण इसके टूटने, टकराने या पृथ्वी की कक्षा में घूम रहे इसी तरह के किसी अन्य कचरे से टकराने की आशंका थी। इसलिए इसे पूरी तरह नष्ट किया जाना आवश्यक था। संयुक्त राष्ट्र के इंटर एजंसी अंतरिक्ष मलबा समन्वय समिति (यूएन/ आइएडीसी) के दिशा-निर्देशों के अनुसार इसे विघटित करके पूरी तरह नष्ट किया गया।
अंतरिक्ष में बड़ी संख्या में उपग्रह कबाड़ बन कर भटक रहे हैं। इनकी संख्या करीब सौ लाख है, जो पच्चीस से अट्ठाईस हजार किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से पृथ्वी की कक्षा में अनवरत चक्कर काट रहे हैं। इन्हें केवल प्रक्षेपास्त्र से नष्ट किया जा सकता है। इस मानव निर्मित मलबे को साफ करने के लिए जापान और अमेरिका की अनेक एजंसियां लगी हुई हैं।
कई देशों की निजी कंपनियां भी इस क्षेत्र में अपने भविष्य को एक बड़े कारोबार के रूप में देख रही हैं। भारत ने इस दिशा में पहल करते हुए एमटी-1 को नष्ट करके धाक जमा ली है। साफ है कि भारत इस काम में भी अब एक नए कारोबारी के रूप में उभरेगा।
अंतरिक्ष में जमा इस कचरे को नष्ट करने के लिए दुनिया भर की अंतरिक्ष एजंसियां नए और अनूठे तरीके ईजाद कर रही हैं। इस कचरे पर निगरानी रखने और नष्ट करने के उपाय भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान (एरीज) नैनीताल भी तलाशने में लगे थे। इसरो ने अब इसमें कामयाबी हासिल कर ली है। जापानी कंपनी एस्ट्रोस्केल का कहना है कि उसने 22 मार्च, 2020 को कजाकिस्तान के बाइकोनूर से सोयूज रााकेट के जरिए ‘एल्सा-डी’ उपग्रह प्रक्षेपित कर अपना अभियान शुरू कर दिया है। एल्सा-डी दो उपग्रहों से मिल कर बना है, जो एक के ऊपर एक जुड़े हुए हैं।
एक 175 किलोग्राम का ‘सर्विसर’ उपग्रह और दूसरा 17 किलो का ‘क्लाइंट’ उपग्रह है। सर्विसर उपग्रह खराब पड़ चुके उपग्रहों और यानों के मलबे के बड़े टुकड़ों को हटाने का काम करेगा। जापान का ही दूसरा उपग्रह ‘जाक्सा’, स्टेनलेस स्टील और एल्युमिनियम की बनी एक इलेक्ट्रोडायनेमिक सुरंग होगा। यह सुरंग तेज गति से परिक्रमा कर रहे कचरे की गति को धीमा करेगी और फिर उसे धीरे-धीरे वायुमंडल में धकेल देगी।
जर्मनी की अंतरिक्ष एजंसी ‘डीएलआर’ ने इस कचरे को नष्ट करने के लिए लेजर तकनीक विकसित की है। अमेरिकी कंपनी नासा ने ‘इलेक्ट्रो-नेट’ तैयार किया है। यह एक प्रकार का जाल है, जो कचरे को बांध कर धरती के वायुमंडल में ले आता है। वायुमंडल में आते ही ज्यादातर कचरा खुद जल कर नष्ट हो जाता है। अमेरिका में छह से ज्यादा स्टार्टअप इस अभियान से जुड़े हुए हैं।
दरअसल, मानव निर्मित अंतरिक्ष मलबे में निरंतर हो रही वृद्धि ने सक्रिय उपग्रहों के लिए बड़े खतरे पैदा कर दिए हैं। इसरो के पचास से अधिक संचार नेविगेशन और निगरानी उपग्रह पृथ्वी की निचली कक्षा में क्रियाशील हैं, जिन पर यह मलबा संकट के रूप में मंडरा रहा है। भविष्य के अंतरिक्ष मिशनों के लिए भी यह मलबा बाधा बन रहा है। कई बार मिशन लांच करते समय इन टुकड़ों के मार्ग में आ जाने के कारण अंतिम क्षणों में प्रक्षेपण यानों को कुछ समय के लिए रोकना पड़ा है।
अभी तक इस मलबे की निगरानी के लिए इसरो उत्तरी अमेरिका एयरोस्पेस रक्षा कमान (नोराद) पर निर्भर था। अब भारत इस मामले में आत्मनिर्भर हो गया है। अंतरिक्ष परिसंपत्तियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए दूरबीनों और राडारों का एक नेटवर्क स्थापित किया गया है। यह उपाय मूल्यवान अंतरिक्ष उपग्रहों को मलबे की टक्कर से बचाने के लिए किया जा रहा है। भारत उपग्रह भेदी मिसाइल (ए-सैट) का निर्माण और सफल परीक्षण पहले ही कर चुका है।
पृथ्वी की निचली कक्षाओं में इस समय करीब छह हजार टन मलबा फैला है। अब तक तेईस हजार से अधिक उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में छोड़े गए हैं। इनमें से केवल पांच फीसद क्रियाशील हैं। बाकी मलबे में बदल चुके हैं। उपग्रहभेदी उपग्रहों के परीक्षण से भी बड़ी मात्रा में यह कचरा पैदा होता है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा के मुताबिक मलबे के पांच लाख से भी ज्यादा टुकड़े या स्पेस-जंक पृथ्वी की कक्षा में घूम रहे हैं। यह मलबा इतना शक्तिशाली है कि इसका एक छोटा-सा टुकड़ा भी किसी उपग्रह या अंतरिक्ष यान को क्षतिग्रस्त करने के लिए सक्षम है।
यहां तक कि सौ अरब डालर की लागत से बने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन को भी इन टुकड़ों से बच कर निकलना होता है। अंतरिक्ष वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि अंतरिक्ष में मलबा खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है और इसे जल्दी ही नहीं हटाया गया तो इससे भविष्य में अंतरिक्ष यान और उपयोगी उपग्रह नष्ट हो सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो अंतरिक्ष अभियानों पर प्रतिबंध लगाना जरूरी हो जाएगा।
दूसरी तरफ अमेरिकी खगोल विज्ञानियोंं ने एक सर्वेक्षण करके बताया है कि अंतरिक्ष से हर साल एक हजार टन कबाड़ धरती पर गिरता है। इसकी ठीक से पहचान नहीं हो पा रही है। अंतरिक्ष का यह कबाड़ प्राकृतिक भी हो सकता है और मानव निर्मित भी। बेकार हो चुके अंतरिक्ष यान, नष्ट किए गए उपग्रह और इनके कल-पुर्जे ही वे मानव निर्मित वस्तुएं हैं, जो कचरे के रूप में अंतरिक्ष में मंडरा रही हैं और फिर एकाएक अंतरिक्ष के गुरुत्वीय बल से छिटक कर धरती के चुंबकीय प्रभाव में आ जाती हैं। बहरहाल, अंतरिक्ष में बढ़ते कबाड़ की सफाई के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि जरूरी है।