आत्मनिर्भर भारत दर्शन के प्रणेता
नानाजी मानते थे कि नवनिर्माण का कार्य समाज और विशेष रूप से समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ मिल कर किया जा सकता है। राजनीतिक सीमाओं में बांध कर समाज के पुनरुत्थान और नवरचना का काम आसानी से संभव नहीं है।

राजकुमार भारद्वाज
नानाजी को गए आज ग्यारह वर्ष हो गए हैं, लेकिन चित्रकूट, गोंडा और बीड में, जहां नानाजी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय के सपने को साकार करने के लिए समग्र विकास के मॉडल की संरचना की, वस्तुत: वह एक आदर्श मनुष्य का प्रतिरूप मॉडल है। यही कारण है कि नानाजी के देहावसान के ग्यारह वर्षों के बाद भी यहां के पांच सौ से अधिक गांवों में नानाजी सबके हैं। आज जबकि पूरे देश में कथित विकास के साथ पूंजीजनित सांस्कृतिक अवमूल्यन का तीव्र आक्रमण हुआ है, ग्राम्य व्यवस्था ध्वस्त होकर नगरोन्मुखी होने पर आतुर है।
नगरीय जीवन की कल्पनाशीलता देश के गांव-गांव में पहुंच रही है और ग्रामीणों का गंवईपन, सहजता, संवदेनशीलता और भाईचारा नोटों की गड्डी तक सिमट गया है। ऐसे में भी नानाजी के पांच सौ से अधिक गांवों में दीनदयाल शोध संस्थान के हजारों कार्यकर्ता, सैंकड़ों शिल्प दंपत्ति, गांव के समाज और संस्कार को बाजार के हमले से बचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। अपने गांव के न्यूनतम संसाधनों से स्वयं की आर्थिक स्थिति और मूल्यों को कैसे बचाया जा सकता है, इसके लिए वे कृतसंकल्प हैं।
पूंजी ने देश भर में लोगों की जीवनशैली में कुचक्र का संस्कार भर दिया है। पीढ़ियों से संतुलित, सौम्य, सरल, आदर्श जीवन जीने वाले भारतीय युवा देश भर में परंपरागत रहन-सहन को नकार कर वैश्विक बाजारवाद से उपजे अप्राकृतिक जीवन शैली की ओर आकर्षिक हुए हैं, लेकिन नानाजी के गांव में आज भी उपनिवेशवाद के नए शस्त्र, बाजारवाद और सनातन भारतीय समाज पर सुनियोजित ढंग से विमर्श हो रहा है। बाजार को खुली चुनौती दी जा रही है।
दीनदयाल शोध संस्थान के अखिल भारतीय संगठन मंत्री अभय महाजन कहते हैं, ‘आधुनिक सभ्यता की जड़ में लूट, बर्बरता, औपनिवेशिक शोषण और साम्राज्यवाद का पांच सौ वर्षों का इतिहास है। अगर यह सच है, तो भारत इस रास्ते पर चल ही नहीं सकता है। हम विकास की विषमता की कहानियां लंबे समय तक नहीं गढ़ सकते हैं। हमें अपनी चुनौतियों के समाधान अपने दर्शन में ही मिलेंगे।’
नानाजी का जन्म शरद पूर्णिमा के दिन 11 अक्तूबर, 1916 को महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के करौली गांव में हुआ। नानाजी ने माता-पिता का सुख बहुत कम समय तक देखा। संभवत: यही परिस्थितियां उनकी ताकत बनीं। बचपन में ही नानाजी का संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सरसंघ चालक डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार से हो गया था। तभी से वे राष्ट्र के हो गए थे। उनके बाद नानाजी ने कभी मुड़ कर नहीं देखा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा लगाते-लगाते वे एक दिन संघ के महत्त्वपूर्ण अधिकारियों में से एक हो गए। 1940 में गोरखपुर के जिला प्रचारक बनने के बाद 1950 तक उन्होंने दिन-रात संगठन के लिए काम किया।
वर्ष 1951 में वे भारतीय जनसंघ की उत्तर प्रदेश इकाई के संगठन मंत्री बने। सबको साथ लेकर और सबके साथ चलने की नानाजी में अद्भुत प्रतिभा और कौशल था। उत्तर प्रदेश में 1951 के दौरान वे विनोबा भावे के साथ पदयात्रा में रहे। 1967 में वे दिल्ली आ गए और भारतीय जनसंघ के अखिल भारतीय संगठन मंत्री बने। 1968 में उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रमुख आंदोलनकारियों में से एक थे।
आपातकाल के दौरान जब पटना में लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर पुलिस लाठियां बरसा रही थी, तो वे सारी लाठियां नानाजी ने अपने ऊपर ले ली और लोकनायक को सकुशल बचाने में सफल रहे। 1975 में जब आपातकाल विरोधी लोक संघर्ष समिति बनी, तो नानाजी उसके प्रथम महासचिव बने। 1977 में उन्होंने बलरामपुर से वहां की महारानी के विरुद्ध चुनाव जीता और लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए।
सत्तर के दशक के अंत का वह समय था, जब नानाजी राजनीति में अपने चरम पर थे, लेकिन 11 अक्तूबर, 1978 को ही उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और वे उत्तरप्रदेश के गोंडा जनपद में समाज कल्याण के काम में लग गए।
1990-91 में उन्होंने चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसके प्रथम कुलाधिपति बने। यह नानाजी का त्याग, राजनीतिक कौशल और सामाजिक प्रतिबद्धता ही थी कि वे अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों को अपने साथ लेकर राष्ट्र कार्य के लिए जोड़ लेते थे।
वस्तुत: नानाजी राष्ट्र ऋषि थे। वे रह-रह कर दोहराते थे कि सत्ता, समाज और देश को आगे बढ़ाने का एकमात्र साधन कभी नहीं हो सकता। नानाजी कहते थे, हमें लोकशक्ति पर भरोसा करना होगा। राजसत्ता कभी कामधेनु नहीं हो सकती। नौकरशाही और राजसत्ता के सहारे या भरोसे आत्मनिर्भर भारत का निर्माण नहीं हो सकता। अंत्योदय का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इसी के निमित्त उन्होंने नैतिकता की प्रगाढ़ नींव पर अपने सनातन समाज की युगों-युगों से चली आ रही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पर आधारित सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की पुनर्रचना हेतु, एकात्म मानववाद और आत्मनिर्भर भारत के दर्शन को मूर्त रूप देने के लिए दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की।
नानाजी मानते थे कि नवनिर्माण का कार्य समाज और विशेष रूप से समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ मिल कर किया जा सकता है। राजनीतिक सीमाओं में बांध कर समाज के पुनरुत्थान और नवरचना का काम आसानी से संभव नहीं है। इसीलिए उन्होंने गोंडा, बीड, सिंहभूम, सुंदरगढ़ और चित्रकूट में समाज को अपने साथ लेकर कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार, रोजगार के क्षेत्रों के नए-नए प्रयोग किए और प्रकल्पों की स्थापना की।
नानाजी का प्रबल मत था कि समाज को आगे बढ़ाने की दृष्टि से हमें सर्वदा नए प्रयोग करने चाहिए। वे कहते थे समय गतिशील है, लेकिन मूल्य सनातन हैं, चिर हैं, स्थिर हैं, शिव हैं। मूल्यों के साथ प्रयोग करने और समाज कार्य करने से जागता है- राष्ट्रभाव, वसुधैव कुटुम्बकम का भाव, सर्वे भवंतु सुखिन: का भाव। और यही सनातन भारतीय संस्कृति का सार है। इसी सार को केंद्र में रख कर नानाजी ने पांच सूत्र दिए- कोई बेकार न रहे, कोई गरीब न रहे, कोई बीमार न रहे, कोई अशिक्षित न रहे और हरा-भरा तथा विवादमुक्त हो गांव।
नानाजी के सखा और प्रेरणा स्रोत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहते थे, मानव मात्र के कल्याण का मार्ग तभी प्रशस्त हो सकता है, जब सर्वांगीण विकास हो। व्यक्ति एकांगी नहीं, बहुरंगी है। मानव तो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का सम्मिलित स्वरूप है। इन सबका ध्यान न रखने से ही पाश्चात्य दर्शन अधूरा सिद्ध हो रहा है। नानाजी ने दीनदयाल जी के इसी दर्शन को आगे लेकर अपना काम शुरू किया और आज यह काम नियमित आगे बढ़ रहा है।
नानाजी की कर्मभूमि, साधना स्थली चित्रकूट में आकर लगता है, मानो नानाजी चित्रकूट के जन-जन, पशु-पक्षियों, प्रकृति और मंदाकिनी से अंतर वैयक्तिक संचार करते थे। वे अपने संवाद से, संचार से सबको सेवा और स्नेह का स्पर्श देना चाहते थे। सामूहिकता, सहभागिता के संस्कार की संगत देना चाहते थे। संवाद में समरसता थी, सुगीत था, संगीत था, सौहार्द था, समर्पण था, शील था, सौम्यता थी, सहजता थी, संवेदनशीलता थी और श्रेय लेने का भाव कहीं नहीं था। भाव था तो केवल सर्वमंगल का। एक धार्मिक नेता ने कहा था, मैं प्रार्थना करता हूं- ईश्वर नानाजी को सुदीर्घ आयु तो दें, पर उन्हें मोक्ष न दें।
उन्हें इसी धरा पर जन्म दें, जिससे भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना पूरा हो सके। वस्तुत: नानाजी का स्मरण यही कहता प्रतीत होता है- आओ हम सब संवहनीय विकास की ओर बढ़ें, समग्र विकास की ओर बढ़ें, बढ़ें संसाधनों के समुचित और संतुलित सदुपयोग की ओर और करें साकार अंत्योदय के दर्शन को।