हताशा में हारते लोग
अपनों को मार कर मर जाने या पीड़ादायी परिस्थितियों में घर के सभी सदस्यों के एक साथ आत्महत्या कर लेने की बढ़ती प्रवृत्ति कहीं न कहीं हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था की विफलता है। कौन किस मनोदशा से गुजर रहा है, यह जानने-समझने का समय किसी के पास नहीं।

हाल के बरसों में समाज के बड़े हिस्से में हताशा बढ़ी है, उम्मीदों के बिखर जाने का गम सहने की हिम्मत खत्म-सी हो गई है। लगता है कि जीवन से जूझने का हौसला कमजोर पड़ा है और समस्याओं के लड़ने की शक्ति चुक गई है। किसी तकलीफदेह मोड़ पर फिर से नई शुरुआत करने का जज्बा नहीं रह गया है और जिंदगी की जद्दोजहद थकाने लगी है। ऐसे कारणों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है, पर नतीजा सबका एक ही है। जीवन से रूठ जाने वालों के आंकड़े बढ़ रहे हैं। हर उम्र, हर तबके के लोग इसमें शामिल हैं। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो परिवारजनों का सामूहिक रूप से आत्मघाती कदम उठाना है। व्यक्तिगत, आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक, जो भी कारण हों, सामूहिक आत्महत्या की प्रवृत्ति वाकई भयावह है।
जीवन से थकाने वाले दौर में बच्चों के भविष्य के लिए बड़ों का मजबूत बने रहना और बड़ों का सहारा बनने के लिए बच्चों का हिम्मत नहीं हारना हमारी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था को थामने वाली कड़ी है। ऐसे में अफसोसजनक ही है कि आए दिन सामूहिक आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं। घर परिवार के लोग एक साथ जीवन से हारने का फैसला कर ले रहे हैं। कहीं भावनात्मक टूटन का कारण बना है तो कहीं सामाजिक तिरस्कार। कहीं घर की विषम आर्थिक परिस्थितियों से बुजुर्ग और युवा मिल कर भी नहीं जूझ पा रहे तो कहीं व्यक्तिगत जीवन में मिले कटु अनुभव इस मनोदशा तक ले जा रहे हैं।
सामूहिक रूप से जीवन का अंत करने का यह सिलसिला महानगरों से लेकर गांव-कस्बों तक में देखने को मिल रहा है। हाल में राजस्थान के सीकर जिले में एक परिवार बेटे की मौत के गम में भावनात्मक तौर पर इस कदर टूट गया कि पूरे परिवार के सदस्यों ने आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। दो बहनों और माता-पिता ने अपने इस आत्मघाती कदम से पहले लिखा कि हमने बेटे के बिना जीने की कोशिश की, लेकिन उसके बगैर जी नहीं पा रहे। इसलिए हम चारों ने अपनी जीवन लीला खत्म करने का फैसला लिया है।
इसी तरह महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में एक चिकित्सक ने पत्नी और दो बच्चों को जहर का इंजेक्शन देकर मारने के बाद आत्महत्या कर ली थी। यह खौफनाक कदम उठाने से पहले उसने लिखा कि मेरा बेटा सुन नहीं सकता है। आस-पड़ोस के लोग और रिश्तेदार उसके साथ गलत बर्ताव करते हुए हमको ताना मारते हैं। हमारे बच्चे को ऐसा बर्ताव बहुत बुरा लगता है और अभिभावक होने के नाते हम उसके दुख को और नहीं देख सकते। इसलिए दुखी होकर हम लोग जान देने जा रहे हैं।
उपर्युक्त दोनों घटनाओं में एक मामला व्यक्तिगत रूप से खुद अपने विचारों के कमजोर होने का है, तो दूसरा समाज के व्यवहार से मिली पीड़ा से टूट जाने का उदाहरण है। इतना ही नहीं, आर्थिक कारणों से सामूहिक आत्महत्या करने की घटनाएं तो हमारे यहां बेहद आम हो चली हैं। कारण कोई भी हो, अपने परिवारजनों के साथ जीने और हालात से जूझने की हिम्मत न जुटा कर दुनिया से भागने की राह चुनने वाले परिवारों की संख्या बढ़ रही है। साथ, संवाद और संवेदनात्मक समझ को आधार बना चिंताओं और दुखों को मात देने के बजाय जीवन का साथ छोड़ देने का मार्ग चुना जा रहा है। हैरानी की बात तो यह है कि उच्च शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर परिवारों में भी जिंदगी से मुंह मोड़ने के मामले सामने आ रहे हैं। आज की पीड़ा से जूझते हुए आने वाले कल के प्रति उम्मीद भरा नजरिया गुम होता दिखता है।
राजस्थान के सीकर जिले की उपर्युक्त घटना एक परिवार का पीड़ा से न जूझ पाने का ही मामला है। आखिर क्यों दो बड़ों और दो युवा बेटियों का परिवार खुद को इस दुख से नहीं उबार पाया? अपने बच्चे को खो चुके अभिभावक यह कैसे नहीं सोच पाए कि जो खुद अपने बेटे के बिना नहीं जी पा रहे, उनके बुजुर्ग माता-पिता उनके बिना कैसे जी पाएंगे? इंसानी व्यवहार और विचार को दिशा देने वाले ऐसे सवाल लाजिमी हैं। इन प्रश्नों के उत्तर हर हाल में जीवन से प्रेम करने की जिजीविषा और हालात से जूझने की बात लिए हुए हैं।
सामूहिक आत्महत्या के अधिकतर मामलों से जुडी सबसे बड़ी चिंता यह है कि इन्हें क्षणिक आवेग में अंजाम नहीं दिया जा रहा। योजनागत ढंग से घर के छोटे-बड़े सदस्य जिंदगी का साथ छोड़ रहे हैं। उपर्युक्त दोनों ही घटनाओं में परिवार काफी समय से ऐसा कदम उठाने का फैसला कर चुके थे। सीकर जिले का परिवार बेटे के जाने का दुख-दर्द भूल कर जिंदगी की नई शुरुआत करने की बजाय अपना जीवन खत्म करने की तैयारियों में जुट गया था। बड़ी बहन ने चार दिन पहले ही मेंहदी से अपने पर हाथ पर ‘वी आर कमिंग टू यू मोटू’ लिखा था। साथ ही चार दिन पहले कमरे में छत लोहे का सरिया लगवाया था।
दूसरी ओर महाराष्ट्र वाली घटना में चिकित्सक का परिवार समाज के तिरस्कार के भाव को समझ कर कर भी उससे जूझ नहीं पाया। कई दिनों तक व्यथित रहने के बाद पत्नी के साथ विचार-विमर्श कर संवेदनशील चिकित्सक भी समाज की असंवेदनशीलता के आगे हार गया।
यकीनन जिंदगी से हारने की ऐसी स्थिति कहीं न कहीं हमारे सामाजिक ढांचे पर भी सवाल खड़े करती है। यह सामाजिक रूप से रीत रहे संवाद और एक निराशानजक परिवेश की ओर इशारा है, साथ ही पारिवारिक स्तर पर भी कमजोर होते संबंधों की बानगी है। बुनियादी वजहें भावनात्मक टूटन, तनाव, रिश्तों से टूट रहा भरोसा और सामाजिक-पारिवारिक असहयोग ही हैं, जो बहुत चुपके हमारे परिवेश का हिस्सा बन गए हैं। ऐसे में कई बार परिस्थितियां भावनात्मक टूटन के उस पड़ाव तक ले जाती हैं, जहां व्यक्ति समझ और सूझबूझ खो बैठता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के वर्ष 2019 के आंकड़े बताते हैं कि आत्महत्या के पीछे सबसे ज्यादा पारिवारिक समस्याओं से जुड़े कारण ही प्रमुख हैं। आखिर मानसिक तनाव, सामाजिक दबाव या भावनात्मक टूटन की यह कैसी परिस्थितियां बन रही हैं कि अपनों की जान ले लेना और जिंदगी का हाथ छोड़ना ही लोगों को सही लगने लगता है। विचारणीय यह भी है कि परिवार के जो लोग एक दूसरे की ताकत हुआ करते हैं, वही मिल कर मौत का ऐसा सुनियोजित खेल कैसे खेल रहे हैं? जबकि भारतीय संस्कृति में अतिवादी कदम उठाने के बजाय परेशानियों से जूझने की जिद का संदेश निहित है।
अपनों को मार कर मर जाने या पीड़ादायी परिस्थितियों में घर के सभी सदस्यों के एक साथ आत्महत्या कर लेने की बढ़ती प्रवृत्ति कहीं न कहीं हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था की विफलता है। कौन किस मनोदशा से गुजर रहा है, यह जानने-समझने का समय किसी के पास नहीं। तकलीफ और तिरस्कार के दौर में परिवारजन सबसे बड़ा सहारा होते हैं। लेकिन ऐसी घटनाएं अपनों के संबल बनने और जीवन से जूझने की कमजोर होती स्थितियों को सामने लाने वाली हैं।
परिवार भले ही समाज की सबसे छोटी इकाई है, पर इसी की बुनियाद पर पूरी सामाजिक व्यवस्था की इमारत खड़ी होती है। एक दूजे के सुख-दुख में साथ देने की बात हो तो परिवार की भूमिका बहुत अहम है। ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि समाज की यह सबसे अहम कड़ी इतनी कमजोर कैसे हो रही है कि भरे-पूरे परिवारों की सामूहिक आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं। साथ ही अब जीवन से जूझने की शक्ति भी कम हुई है। ऐसे में थोड़ा सामाजिक सहयोग और व्यक्तिगत ठहराव बड़ी मदद कर सकता है।