जलवायु परिवर्तन को लेकर हम सचेत हों या न हों, लेकिन प्रकृति जरूर चेतावनी दे रही है। जिन महीनों को हम वसंत और सर्दियों का मान रहे थे, वे इस बार गर्मी का अहसास कराने लगे हैं। अबकी बार फरवरी में ही गर्मी उतर आई। इस बढ़ती गर्मी को केवल जलवायु परिवर्तन का नतीजा कहकर बचना ठीक नहीं।
इस साल फरवरी 146 वर्षों बाद सबसे गर्म थी
इसके पीछे कहीं न कहीं विज्ञान को भी लोग कठघरे में खड़ा करते हैं, जो पक्के सबूत के अभाव में महज चंद बिंदुओं पर बदलते मौसम का ठीकरा जलवायु परिवर्तन जैसे कुछ चुनिंदा कारकों और कारणों पर फोड़ता रहा है। इस साल फरवरी 146 वर्षों बाद सबसे गर्म थी। कुछ अन्य आंकड़े बताते हैं कि 1901 के बाद यानी 122 वर्षों में भारत में यह सबसे गर्म फरवरी थी। मगर यह कौन बताएगा कि 1877 या 1901 में इतनी गर्मी क्यों पड़ी थी? उस समय पड़ी गर्मी के लिए न तो ग्लोबल वार्मिंग और न प्रदूषण को वजह बताया जा सकता है।
गुजरात के भुज में इसी 16 फरवरी को पारा चालीस डिग्री के पार चला गया
चंद हफ्ते पहले का एक आंकड़ा डराता है कि गुजरात के भुज में इसी 16 फरवरी को पारा चालीस डिग्री के पार चला गया। लू चलने की स्थिति बन गई। इसके चलते मौसम विभाग ने चेतावनी दे डाली तो स्वास्थ्य विभाग ने सतर्कता की हिदायत। अमूमन जब पारा पैंतालीस डिग्री सेल्सियस पार करता है, तभी लू चलती है या तबके हिसाब से उस स्थान का तापमान वहां के सामान्य तापमान से साढ़े चार डिग्री सेल्सियस अधिक होता है।
बहरहाल, इस फरवरी का बढ़ा औसत तापमान बेहद चिंताजनक है। इस महीने अधिकतम तापमान 29.54 डिग्री सेल्सियस और न्यूतम सोलह डिग्री सेल्सियस से ज्यादा रहा। वहीं भारत में इस साल के शुरुआती दो महीनों में करीब पचासी प्रतिशत क्षेत्रों में बारिश की एक बूंद भी न पड़ना अलग चिंता का विषय है। इस जनवरी और फरवरी में देश के दो सौ चौंसठ जिलों में वर्षा नहीं हुई। केवल चौवन जिलों में सामान्य वर्षा हुई। वर्षा से तापमान घटता है, लेकिन फरवरी महीने में पिछले वर्षों की तुलना में कम पानी गिरने से तापमान बढ़ा। देश के कई हिस्से फसलों के लिए जनवरी-फरवरी की बारिश को तरसते रहे।
बेशक प्रदूषण की वजह से जलवायु परिवर्तन की रफ्तार बढ़ी है। यह भी सच है कि हम सब ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के दौर में जी रहे हैं, जिसके पीछे कार्बन उत्सर्जन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन और प्रदूषण के दूसरे अन्य कारक हैं। भविष्य में भारत इससे कितनी बुरी तरह प्रभावित होगा, यह भी समझ आने लगा है।
भारतीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की जून 2020 में जलवायु परिवर्तन पर आई रिपोर्ट में कहा गया है कि 1986 से 2015 के बीच गर्म दिनों का तापमान 0.63 डिग्री सेल्सियस और सर्द रातों का तापमान 0.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। इसमें यह भी अनुमान लगाया गया है कि अगर यही रुझान आगे भी बना रहा तो वर्ष 2100 तक गर्म दिनों का तापमान 4.7 और सर्द रातों का तापमान 5.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यानी तब गर्म दिनों की संख्या पचपन प्रतिशत तक और गर्म रातों की संख्या सत्तर प्रतिशत तक बढ़ना तय है, जो बेहद चिंताजनक होगी। इसका मतलब यह हुआ कि गर्मी के दिनों में लू वाले दिनों की संख्या तीन से चार गुना बढ़नी तय है। यह बेहद घातक स्थिति होगी। भारत में कुछ वर्षों का औसत तापमान सामान्य से ज्यादा रहा है। यह 0.51 डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहा।
मगर एक और रिपोर्ट में 2015 में विश्व बैंक ने बताया था कि अगर सारे तरीके अपनाए गए, तो भी 2050 तक भारत का औसत तापमान एक से दो डिग्री सेल्सियस तक बढ़ना तय है। मगर कोई तरीका नहीं अपनाया गया, तो यह डेढ़ से तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इन स्थितियों के मूल में कम बारिश भी बड़ा कारण है। इसकी वजह कटते जंगल, गिट्टी में तब्दील होते पहाड़, नदियों का सीना चीरकर रेत की निकासी जैसी कई मानव निर्मित वजहें हैं। मौसम विभाग के अनुसार 1961 से 2010 तक हर साल औसतन 1176.9 मिमी वर्षा होती थी। लेकिन 1971 से 2020 के बीच 1160.01 मिमी हुई। नए आंकड़ों के अनुसार देश में होने वाली सामान्य वार्षिक वर्षा की माप में भी 16.18 मिलीमीटर की कमी आई है।
इस कमी को मौसम विभाग देश में बारिश के सूखे और नम युगों की एक प्राकृतिक ‘बहु दशकीय युग परिवर्तनशीलता’ मानता है, जिससे वर्तमान में दक्षिण-पश्चिम मानसून ‘शुष्क युग’ से गुजर रहा है। इसकी शुरुआत 1971 से 1980 के दशक में हुई, जिसके आगे 2021 से 2030 के तटस्थ रहने की उम्मीद है और इसके बाद 2031-40 के दशक से दक्षिण-पश्चिम मानसून नम युग में प्रवेश करेगा।
इधर कृषि मौसम विज्ञानी और जल विज्ञानी भी फरवरी में सूरज की तपिश को लेकर खुद आश्वस्त नहीं हैं कि ऐसा जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ या और कोई और कारण था? भारत में बीते वर्ष कई आश्चर्यजनक स्थितियां दोखा गईं। इधर कई शोध दलों ने उन एशियाई महानगरों को लेकर चिंता जताई है, जो 2100 तक जबरदस्त जल-जोखिमों की जद में हैं। इनमें चेन्नई, कोलकाता, यांगून, बैंकाक, ची मिन्ह सिटी और मनीला शामिल हैं। यह तो पता है कि समुद्र का तापमान बढ़ने से इसका जल स्तर बढ़ता है।
मगर समुद्र में जा समाए कुछ ऐसे शहर भी हैं, जो रहस्यों से भरे हैं। उनमें मिस्र का एक प्राचीन शहर हेरास्लोइन, जो बारह सौ साल पहले डूब गया था, अलेक्जेंड्रिया (मिस्र), जो पंद्रह सौ साल पहले जबरदस्त भूकंप के चलते खत्म हो गया था, भारत की खंभात की खाड़ी में मिला खोया शहर, जो लगभग साढ़े नौ हजार साल पहले समुद्र में समा गया था। चीन का चेंग शहर जो 1950 के दशक में झील में जा डूबा।
विश्व मौसम विज्ञान का ताजा बयान है कि असामान्य रूप से बने रहे और लंबे समय तक चले ला-नीना के लगातार तीन वर्षों के बाद अल-नीनो में विकसित होने से दुनिया के विभिन्न हिस्सों का तापमान और वर्षा प्रभावित होगी। वैसे भी इक्कीसवीं सदी का पहला ‘ट्रिपल-डिप ला नीना’ कुछ समय में समाप्त हो जाएगा, जिसके शीत प्रभाव ने बढ़ते वैश्विक तापमान पर एक अस्थायी रोक लगा दी थी।
मगर अब अल-नीनो के चक्र में आने के बाद वैश्विक तापमान में एक और उछाल आने की चेतावनी चिंताजनक है। वैसे भी अल-नीनो और जलवायु परिवर्तन के संयोजन के कारण 2016 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है, जब तापमान कई देशों में रिकार्ड स्तर पर चला गया। इसकी 2026 में फिर प्रचंडता दिखने की संभावना है। ला-नीना सितंबर 2020 में हौले-हौले शुरू हुआ और इसने 2021 में गर्मियों पर थोड़ा विराम लगाया।
यह सही है कि प्राकृतिक गतिविधियों के चलते कई तरह के परिवर्तन या आपदाएं घटती हैं। लेकिन यह भी सही है कि प्रकृति को प्रभावित करने वाले कारकों और कारणों के पीछे इंसानी गतिविधियां भी कम जिम्मेदार नहीं। अब जबकि सेटेलाइट के जरिए हजारों किमी ऊपर से ही यह जांचा जा सकता है कि दुनिया में कहां कौन-सी गतिविधियां प्रकति के नाजुक मिजाज पर भारी पड़ रही हैं।
अब दौर केवल कारण गिना देने या बयान जारी करने का नहीं, बल्कि उसके वास्तविक निदान, सतर्कता, जागरूकता और जन-जन को अहसास कराने का है। मौसम के रहस्यों और छिन-पल बदलते मिजाज को समझ कर उसके अनुकूल परिस्थितियां निर्मित कर विकास को तत्पर हों, वरना तमाम अनहोनियां मुंह बांए खड़ी हैं।