शीतला सिंह
असमय बारिश और ओलावृष्टि से फसलों के नुकसान के फलस्वरूप देश में किसानों की आत्महत्याएं बढ़ी हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ पहले ही किसानों की खुदकुशी का प्रतीक बन चुका है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब जैसे राज्यों में भी किसान खुदकुशी करते रहे हैं। लेकिन यह त्रासदी अब देश के अन्य भागों में भी फैली है। सबसे अधिक पीड़ित क्षेत्र तो वे पिछड़े इलाके हैं, जहां खेती ही आय का मुख्य साधन है और यह पूरी तरह से विकसित भी नहीं हो पाई है। सिंचाई के पर्याप्त साधन भी वैयक्तिक और राज्य स्तर पर नहीं उपलब्ध कराए जा सके हैं।
नहरों से इन क्षेत्रों को आच्छादित करने या नलकूपों की बोरिंग करवा कर जल उपलब्ध करवाने में यह समस्या भी है कि भूमि की स्थिति ऊबड़-खाबड़ पथरीली होने के कारण वहां अगर किसी प्रकार नलकूप की बोरिंग करवा भी दी जाए, उसमें पानी भी सुलभ हो जाए और दूर से तार बिछा कर बिजली का कनेक्शन भी जोड़ दिया जाए या इंजन अथवा पंपसेट से पानी निकालने की व्यवस्था कर दी जाए तब भी उसे दूर तक पहुंचाने के लिए नालियों से जोड़ा नहीं जा सकता।
यही कारण है कि अभी देश में कृषियोग्य उपलब्ध भूमि में एक तिहाई से अधिक पर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इस मामले में हम किसी ऐसे क्षेत्र को ढूंढ़ नहीं पाए हैं, जहां सत्तर-अस्सी प्रतिशत कृषिभूमि पर सिंचाई की सुविधा किसानों के लिए उपलब्ध हो। इसलिए इन क्षेत्रों के किसान जो मुख्य रूप से अलाभकर जोत वाले हैं, सामाजिक हैसियत की दृष्टि से कमजोर और गरीबी की सीमारेखा से नीचे हैं। वे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं और देश में हुई आत्महत्याओं का मूल्यांकन किया जाए तो इसमें यही वर्ग सर्वाधिक पाया जाता है।
देश के विभिन्न राज्यों में विभिन्न विचार वाले राजनीतिक दलों या उनके सहयोगियों की सरकारें हैं। देश में मताधिकार की दृष्टि से किसान सबसे बड़ा समूह है। उनहत्तर प्रतिशत लोग कृषि पर आधारित जीवन व्यतीत करते हैं, लेकिन अभी इस वर्ग को वे लाभ नहीं मिल पाए हैं, जो अन्य समुदायों को व्यावसायिक हानि के फलस्वरूप उपलब्ध होते हैं। अब भी कृषि क्षेत्र का बीमा संभव नहीं हो पाया है, क्योंकि इसके नियम कैसे बनाए जाएं, जिससे बीमे की धनराशि देने वाला निवेशी या व्यवसायी भी यह क्षेत्र छोड़ कर न भागे, साथ ही इसकी प्रीमियम और दरें कैसे संयोजित हों जिससे किसान को इसका लाभ मिल सके। माना यही जाता है कि आमतौर से किसान प्राकृतिक साधनों पर ही निर्भर है।
आपदाओं से राहत के लिए दायित्वों का निर्वाह अगर सरकारों पर डाला जाए तो वे इसके लिए कितनी तैयार हैं, क्योंकि कृषि क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा संबंधी जो नियम अंगरेजों के समय बने थे उनमें लगान माफी से लेकर बिना सूद के तकाबी और ऋण का वितरण था। लेकिन इसका भुगतान कैसे हो पाएगा और इसके लिए इस सुविधा से उसमें भुगतान सामर्थ्य उत्पन्न हो पाएगी या नहीं, और अगर विपरीत स्थिति हो तो जो ऋण या तकाबी के रूप में पैसा लिया है, फिर उसका होने वाला नुकसान कौन उठाएगा। अगर यह ऋण वित्तीय संस्थान, सहकारी समितियों और बैंकों से दिलाया गया है तो भुगतान न होने के विकल्प में गारंटी कौन लेगा।
इस रूप में किसानों का एक सीमा तक ऋण माफ करने के जो विभिन्न प्रयोग हुए हैं, उससे निष्कर्ष यही निकला है कि घाटे में वही रहेगा, जो किसी प्रकार ऋण भुगतान को प्राथमिकता देता है। फिर संदेश यह जाएगा कि सरकारी ऋण का भुगतान तो किया ही नहीं जाना चाहिए, क्योंकि अंतत: सरकार इन्हें माफ ही करेगी।
मगर यह संदेश खतरनाक है। इससे यह प्रवृत्ति पैदा होती है कि हमको विकास के लिए सुविधाएं लेकर अपने को आगे बढ़ाना नहीं, बल्कि जो धन प्राप्त हो रहा है उसे कैसे हजम किया जाए, यह प्रयास होना चाहिए। तब यह प्रयोग किसानों के दीर्घकालीन हितों के प्रतिकूल जाता है और इसका लाभ केवल निहित स्वार्थी सोच के लोग ही उठा पाते हैं।
उद्यम-व्यवसाय के क्षेत्र को बचाए रखने के लिए भी विभिन्न प्रयोग किए गए हैं। उनमें भी ऋण का ब्याज ही नहीं, बल्कि मूल भी माफ किया जाता है। इसके बावजूद बहुत-से उद्यम-व्यवसाय नहीं चल पाते। इन्हें संचालित करने के लिए सरकार ने पिछड़े क्षेत्रों में पूंजी नियोजन पर तैंतीस प्रतिशत तक छूट देने की घोषणा की थी जिससे उन क्षेत्रों का भी विकास हो सके जिनकी गिनती पिछड़ों में की जाती है।
साथ ही मुआवजे की दरें भी ड्योढ़ा करने की घोषणा की गई है। लेकिन यह जब तक वर्तमान मूल्यों पर आधारित नहीं होगी, तब तक इस वृद्धि का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि उस समय तो सिपाही को तीन रुपए महीने तनख्वाह मिलती थी और खाने-पीने की चीजें भी आनों और पैसों में थीं। इसलिए मुआवजा वर्तमान परिवेश और मूल्य आधारित होना चाहिए। सुविधाओं के निर्धारण में भी दो अलग-अलग मानदंड नहीं होने चाहिए, इसमें भी समता और एकरूपता होनी चाहिए।
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के क्षेत्र में जो कल-कारखाने खोले गए थे, अधिकतर बंद हो गए हैं और सबसे खराब हालत तो लघु और मध्यम उद्योगों की रही है जिनमें अस्सी प्रतिशत से अधिक का तो अब अस्तित्व ही नहीं है। बड़े उद्योगों में एकाध बचे हैं, लेकिन उसका कारण यही था कि उस प्रकार के कारखाने बहुत कम थे। राजीव गांधी के क्षेत्र में लगे माल्विका जैसे बड़े उद्योग को भी बचाया नहीं जा सका, जो अरबों रुपए की लागत वाला था। अध्ययन यही बताता है कि इसका कारण इनके क्षेत्र का चयन, आवश्यक सुविधाएं, कच्चे माल की उपलब्धता, तैयार माल के विक्रय का उचित प्रबंधन न होना था। इसके साथ ही जांच में यह भी आया कि इसका अनुचित लाभ उठाने की प्रवृत्ति, जो इसके जानकारों द्वारा जानबूझ कर की जा रही थी, वह भी इस उद्योग के न बच पाने की एक वजह थी।
किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए कौन-से तरीके अपनाए जाएं, इसके लिए अभी भूमि अधिग्रहण कानून में फंसी नई सरकार ने उन्हें आकर्षित करने के लिए एक नया मुआवजा फार्मूला निकाला है कि अगर फसलों को एक तिहाई नुकसान भी पहुंचता है तो भी उन्हें मुआवजा मिलना चाहिए। लेकिन अगर यह मुआवजा पुराने निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार होगा तो क्या इससे कृषि के क्षेत्र में जो श्रम और पूंजी लगी है उसके लिए कोई बड़ा लाभकारी साबित होगा?
इसी का एक रूप तो यह था कि असमय वर्षा के कारण फसलों को हुए नुकसान के मद्देनजर जब कुछ किसानों के लिए मुआवजे का निर्धारण दो हजार पांच सौ रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से किया गया तो इससे भुक्तभोगियों में असहमति और आंदोलन के स्वर ही उभरे। लेकिन जैसे खेत में काम करने वाला मजदूर सबसे बड़ा श्रमिक समूह है, लेकिन वह संगठित नहीं है, उसी तरह से किसानों का भी कोई प्रभावी संगठन नहीं है, क्योंकि यह विभिन्न वर्गों और समुदायों, बड़े, छोटे, मध्यम और अलाभकर में बंटा हुआ है। ऐसी जोतों वाले किसान भी हैं, जो अपने खेत के लिए सिंचाई के साधन को कौन कहे, हल-बैल की सुविधा भी नहीं जुटा सकते।
इन सब स्थितियों का लाभ उठाने के लिए निगमित क्षेत्र लालायित है। वह चाहता है कि किसानों की भूमि वह अनुबंध-पत्रों के आधार पर ले ले और इस पर आधुनिक मशीनों और साधनों का उपयोग करके उन्हें लाभ पहुंचाने के नाम पर एक हिस्सा प्रदान करे। लेकिन किसान डरता है कि इससे तो उसके पास जो थोड़ी-सी जमीन है वह भी निकल जाएगी। इसलिए इसे बड़ा प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। मोदी सरकार कहती है कि 2013 में बना भूमि अधिग्रहण कानून विकास में बाधक है इसलिए उसे बदलना जरूरी हो गया था। लेकिन यह कानून विकास-विरोधी था तो भाजपा ने उसका समर्थन क्यों किया था?
प्रधानमंत्री ने किसानों से ‘मन की बात’ कहते हुए कहा है कि यूपीए सरकार के समय भूमि अधिग्रहण कानून हड़बड़ी में बना था। इसलिए उसमें खामियां रह गर्इं और उन्हें दूर करना जरूरी है। लेकिन दुनिया जानती है कि वह कानून हड़बड़ी में नहीं बना था, बल्कि दो साल चले व्यापक विचार-विमर्श का नतीजा था।
यह बहस संसद में तो चली ही, संसद के बाहर भी चली। 2103 में बने भूमि अधिग्रहण कानून के पक्ष में संसद की आम राय तो थी ही, किसानों और आदिवासियों के आंदोलनों और विस्थापन के मामलों में आए सर्वोच्च न्यायालय के अनेक फैसलों का असर भी रहा होगा। इतने बड़े पैमाने पर बनी सहमति को मोदी सरकार ने डेढ़ साल बाद ही पलट दिया, वह भी अध्यादेश के जरिए। यह अध्यादेश हड़बड़ी का परिचायक है, या 2013 का कानून?
वर्तमान स्थितियों में कृषि के संबंध में क्या नीति अपनाई जाए, इस पर विचार आवश्यक है। साथ ही छोटी और अलाभकर जोतों के किसानों के लिए ये नीतियां कितनी उपयोगी और जीवनदायी होंगी, यह मुद््दा भी उससे जुड़ा होना चाहिए। बड़े और छोटे किसानों के स्वार्थ अलग-अलग हैं, लेकिन आजीविका के लिहाज से देश का सबसे बड़ा तबका किसानों का ही है। जब शेयर बाजार ढहता है तो हाय-तौबा मच जाती है। उसी तरह जब खेती बरबाद होती है तब भी यही स्थिति बनती है। तब प्रयत्न यही होता है कि चलो इसकी पूर्ति विदेशों से अन्न मंगा कर कर ली जाए।
इस समय देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर है। यह स्थिति भविष्य में भी बनी रहे, इसके प्रयास होने चाहिए। बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी के प्रभावों पर भी ध्यान रखते हुए सिंचित कृषि क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिए। साथ ही अकाल, महामारी, असमय वर्षा, बाढ़ और फसलों के नुकसान के संबंध में ऐसी सुसंगत नीति अपनाई जानी चाहिए जिससे किसानों में बढ़ रही निराशा की भावना को रोका जा सके। आखिर राज्य नाम की संस्था इसीलिए तो बनाई गई है कि वह हमारी मुसीबतों के समय मदद करके समाधान निकालने का काम करे।
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