राजनीतिः अफगानिस्तान में चीनी कदम
चीन की सीमा से सटे मध्य एशियाई देशों तक धार्मिक अतिवाद, अलगाववाद और आतंकवाद की आग न पहुंचे, अफगानिस्तान में उइगर मुसलमानों का इस्लामिक स्टेट से गठजोड़ चीनी हितों को प्रभावित न कर सके, इसके लिए चीन को अफगानिस्तान में अपने प्रति निष्ठा बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है। इसलिए पिछले दो वर्षों में चीन अफगान मामलों में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा है।

विवेक ओझा
हाल में चीन ने पाकिस्तान, नेपाल और अफगानिस्तान के साथ अपसी सहयोग का जो आह्वान किया है, उससे उसके नए मंसूबे का पता चलता है। चीन के विदेश मंत्री ने कहा है कि अब चारों देशों को मिल कर काम करना होगा, ताकि कोविड और इससे उत्पन्न संकटों से निपटा जा सके। लेकिन चीन की इस कोरोना कूटनीति के पीछे उसका बड़ा मकसद तब स्पष्ट हुआ, जब चीनी विदेश मंत्री ने पाकिस्तान, नेपाल और अफगानिस्तान से कहा कि वे चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को अफगानिस्तान तक विस्तार देने में मदद करें। इस ‘फोर पार्टी कोऑपरेशन’ की आड़ में चीन ने तीनों देशों को ‘वन बेल्ट वन रोड इनीशिएटिव’ के तहत चलने वाली परियोजनाओं को जारी रखने में सहयोग करने का दबाव बनाया है। सबसे खास बात तो यह है कि चीन ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बुलाई इस बैठक में अफगानिस्तान और नेपाल को ज्यादा से ज्यादा पाकिस्तान जैसा बनने को कहा, यानी ये दोनों देश भी चीन के प्रति पाकिस्तान जैसी निष्ठा जाहिर करें। चीन ने इन देशों को भरोसा दिलाया कि चारों देशों को भौगोलिक फायदे उठाने के लिए एक साथ आना होगा, पारस्परिक आदान-प्रदान और रिश्तों को मजबूत करना होगा। इससे चारों देशों के साथ मध्य एशियाई देशों के बीच संबंधों को मजबूती मिलेगी और क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को बल मिलेगा।
यह कितना विरोधाभासी है कि भारत, भूटान और नेपाल के क्षेत्रों को हड़पने की मंशा से भरा चीन क्षेत्रीय शांति और स्थिरता का हवाला देकर इन चारों देशों में सहयोग स्थापना की बात कर रहा है। दक्षिण एशियाई देशों को चीन ने नए तरीके से घेरने की कोशिश की है और यह उसके आर्थिक साम्राज्यवाद के विस्तार की प्रवृत्ति को दर्शाता है। चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने मजबूत संबंधों का हवाला देते हुए कहा है कि अच्छा पड़ोसी मिलना अच्छे सौभाग्य की बात होती है। हालांकि इस बैठक को चीन ने महामारी प्रबंधन सहयोग बैठक का रूप देने की कोशिश की, लेकिन इससे एक बार फिर उसकी मंशा जाहिर हो गई। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात उभर कर यह आई कि चीन ने अफगानिस्तान में अपनी दिलचस्पी बढ़ा दी है। इसके कुछ बड़े कारण हैं। एक तो यह कि भारत अफगानिस्तान के विकास में जिस तरह से सक्रिय है और उसके साथ मजबूत सामरिक साझेदारी है, चीन उसे बेअसर करना चाहता है। चीन चाह रहा है कि अब अफगानिस्तान पाकिस्तान के खिलाफ कोई माहौल नहीं बनाए, क्योंकि चीन और पाकिस्तान सिर्फ सामरिक साझेदार ही नहीं हैं, बल्कि दोनों के एक दूसरे में काफी हित हैं। चीन नहीं चाहता कि पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान के संबंध किसी भी प्रकार से प्रभावित हों और उनका असर चीन पर पड़े।
चीन की सीमा से सटे मध्य एशियाई देशों तक धार्मिक अतिवाद, अलगाववाद और आतंकवाद की आग न पहुंचे, अफगानिस्तान में उइगर मुसलमानों का इस्लामिक स्टेट से गठजोड़ चीनी हितों को प्रभावित न कर सके, इसके लिए चीन को अफगानिस्तान में अपने प्रति निष्ठा बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है। इसलिए पिछले दो वर्षों में चीन अफगान मामलों में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा है। वह अफगानिस्तान को अपने व्यापक हितों के परिप्रेक्ष्य में देख रहा है और इसीलिए उसे शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के संवाद साझेदार के रूप में अहमियत भी देने लगा है। चीन ने इसीलिए तालिबान शांति वार्ता में भी दिलचस्पी दिखाई और इस दिशा में पिछले वर्ष अपनी नेतृत्वकारी भूमिका के प्रति सजग हुआ।
पिछले साल जुलाई में बेजिंग में अफगान शांति प्रक्रिया पर हुई बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर अपने सामरिक महत्त्व को दर्शाते हुए बैठक के बाद जारी साझा बयान में इस बात पर जोर दिया था कि वार्ता अफगान-नेतृत्व और अफगान स्वामित्व वाली सुरक्षा प्रणाली के विकास को लेकर होनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके शांति का कार्य-ढांचा प्रदान करने वाली होनी चाहिए। बेजिंग में अफगान शांति प्रक्रिया को लेकर हुई बैठक में अपेक्षा की गई थी कि अफगानिस्तान में शांति एजेंडा व्यवस्थित, जिम्मेदारीपूर्ण और सुरक्षा स्थानांतरण की गारंटी देने वाला होना चाहिए। इसके साथ ही इसमें भविष्य के लिए समावेशी राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा व्यापक प्रबंध होना चाहिए, जो सभी अफगानों को स्वीकार्य हो। इस बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने प्रासंगिक पक्षों से शांति के इस अवसर का लाभ उठाने और तालिबान, अफगानिस्तान सरकार और अन्य अफगानों के बीच तत्काल बातचीत शुरू करने को कहा गया था। तब चीन ने पहली बार माना था कि उसने बेजिंग बैठक में अफगानिस्तान तालिबान के मुख्य शांति वार्ताकार मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को अपने देश में आमंत्रित किया था।
बरादर और चीनी अधिकारियों के बीच अफगानिस्तान में शांति बहाली और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मुद्दे पर व्यापक बातचीत हुई थी। गौरतलब है कि बरादर ने चार अन्य नेताओं के साथ मिल कर 1994 में तालिबान का गठन किया था। पाकिस्तान सरकार ने वर्ष 2018 में ही बरादर को जेल से रिहा किया था। मुल्ला बरादर को तालिबान के सर्वोच्च नेता मुल्ला उमर के बाद सबसे प्रभावशाली नेता माना जाता था।
चीन अब अफगानिस्तान-पाकिस्तान में सुलह कराना चाहता है। दोनों ही शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य हैं और दोनों चीन के सामरिक हितों के लिए जरूरी हैं। यह एक सर्वविदित सत्य है कि चीन की वैश्विक और क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक सबसे बड़ा मोहरा पाकिस्तान है। संयुक्त राष्ट्र की हाल की रिपोर्ट कहती है कि आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और अन्य आतंकी संगठनों के छह हजार से अधिक आतंकी जो पाकिस्तान सेना और जनता को निशाना बनाते रहे हैं, अफगानिस्तान में छुपे हुए हैं। इस संगठन का अफगानिस्तान स्थित आइएस खुरासान के साथ गठजोड़ है और टीपीपी के कई सदस्य इसमें शामिल हो चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ अफगान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देने में भारत की सक्रिय भूमिका किसी से छिपी नहीं है और अमेरिका भारत को नाटो देशों के समान दर्जा देने वाले प्रस्ताव को मंजूरी दे चुका है। इस दृष्टिकोण से चीन और पाकिस्तान कभी नहीं चाहेंगे कि अफगानिस्तान में भारत और अमेरिका की संलग्नता सबसे प्रभावी हो। इसलिए भी अफगानिस्तान में चीन की रुचि बढ़ गई है।
चीन की वैश्विक और क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक सबसे बड़ा मोहरा पाकिस्तान है। वहीं भारत ने अफगानिस्तान में विकासात्मक परियोजनाएं चला कर उसका भागीदार बनना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। आतंकवाद के भुक्तभोगी भारत के इस पक्ष को वैश्विक स्तर पर सही भी ठहराया गया है। भारत ने अफगानिस्तान में चार अरब डॉलर से अधिक का विकास निवेश किया है। अफगान संसद का पुनर्निर्माण, सलमा बांध का निर्माण, जरंज डेलारम सड़क निर्माण, गारलैंड राजमार्ग के निर्माण में सहयोग, बामियान से बंदर ए अब्बास तक सड़क निर्माण और काबुल क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण तक किया है। भारत ने अफगानिस्तान को चार मिग-25 हेलिकॉप्टर भी दिए हैं। चाबहार और तापी जैसी परियोजनाओं से दोनों जुड़े हुए हैं। भारत ने अफगानिस्तान में सैन्य अभियानों में किसी तरह की संलग्नता न रखने की नीति बनाई है, ताकि वह हक्कानी नेटवर्क, आइएस खोरासान, तहरीक ए तालिबान जैसे संगठनों का प्रत्यक्ष रूप से निशाना न बन जाए, जैसा कि आज अमेरिका और नाटो के साथ हो रहा है।