रवि शंकर
भले हम विकास का दम भरते रहें, पर सच यह है कि दुनिया भर में भुखमरी का गंभीर संकट मंडरा रहा है। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है कि खाद्य समस्या का मुख्य कारण सिर्फ खाद्य पदार्थों का अभाव नहीं, बल्कि लोगों की क्रयशक्ति में कमी है।
दुनिया की आबादी आठ अरब को पार कर चुकी है। मात्र तेईस साल की अवधि में दुनिया की आबादी दो अरब बढ़ गई। आने वाले दशकों में क्षेत्रीय असमानताओं के साथ जनसंख्या बढ़ती रहेगी। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2030 तक यह आबादी साढ़े आठ अरब, 2050 तक 9.7 अरब और 2100 तक 10.4 अरब तक पहुंच सकती है। आबादी के मामले में भारत अगले साल तक चीन को पीछे छोड़ देगा।
वह पहले नंबर का सबसे बड़ी आबादी वाला देश हो जाएगा। भारत की जनसंख्या अभी 1.04 फीसद की सालाना दर से बढ़ रही है। अहम सवाल यह है कि जिस रफ्तार से जनसंख्या बढ़ रही है, इतनी बड़ी जनसंख्या का आने वाले समय में पेट कैसे भरा जाएगा। क्योंकि जलवायु परिवर्तन न सिर्फ आजीविका, जल आपूर्ति और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा, बल्कि खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती खड़ी कर रहा है। दुनिया के अधिकांश देश आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, उनमें खाद्य सुरक्षा सबसे बड़ी चुनौती है।
आज जिस तरह विश्व की आबादी बढ़ रही है, उसी हिसाब से प्राकृतिक संसाधनों पर भी स्पष्ट रूप से दबाव पड़ रहा है। आज पूरी दुनिया के लिए बढ़ती आबादी और सिकुड़ते संसाधन एक अभिशाप हैं, क्योंकि जनसंख्या के अनुपात में संसाधन सीमित हैं। यही वजह है कि करीब आठ अरब की आबादी का बोझ ढोती यह पृथ्वी जनसंख्या से पैदा हुई अनेक समस्याओं के निदान की बाट जोह रही है।
पूरी दुनिया की आबादी में अकेले एशिया की इकसठ फीसद हिस्सेदारी है। यही भारत को दुनिया की महाशक्ति बनने में सबसे बड़ी बाधा है। फिलहाल भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या का अठारह फीसद है। भूभाग के लिहाज के हमारे पास 2.5 फीसद जमीन और चार फीसद जल संसाधन है। ऐसे में तेजी से बढ़ती जनसंख्या देश की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की जननी बन कर देश के सामने खतरे की घंटी बन सकती है। आज जनसंख्या वृद्धि देश की हर समस्या का मूल कारण बनती जा रही है।
गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, अपराध, स्वच्छ जल की कमी आदि के पीछे भी जनसंख्या वृद्धि एक बड़ा कारण है। इतना ही नहीं, देश में जमीन के कुल साठ फीसद हिस्से पर खेती होने के बावजूद करीब बीस करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं। साफ है, जनसंख्या विस्फोट से संसाधनों की अपर्याप्तता के कारण उत्पन्न हुई समस्याओं का असर सब पर पड़ रहा है। चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो।
अभी भारत की आबादी 1.39 अरब है। बढ़ती जनससंख्या के चलते कृषि योग्य भूमि पर भी अतिक्रमण हो रहा है। खेती योग्य जमीन घट रही है, खाने वाले लोग बढ़ रहे हैं। ऐसे में सभी के लिए कृषि से भोजन उपलब्ध कराना एक नई चुनौती होगी। यह विडंबना ही है कि आजादी के बाद देश खाद्यान्न के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, बल्कि आज कृषि भूमि के अन्य उपयोगों में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, किसान कृषि से दूर हो रहे हैं, जिससे भारत में खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ सकता है। कृषि भूमि का ह्रास भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है। हालांकि, इस दौरान सरकार द्वारा बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि में बदलने में कुछ सफलता मिली है, बावजूद इसके, यह भी एक तथ्य है कि हमारे देश में खेती योग्य भूमि साल-दर-साल घट रही है।
‘वेस्टलैंड एटलस 2019’ के मुताबिक, पंजाब जैसे कृषिप्रधान राज्य में चौदह हजार हेक्टेयर और पश्चिम बंगाल में बासठ हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि घट गई है। वहीं, सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा सबसे अधिक खतरनाक लग सकता है, जहां हर साल विकास कार्यों पर अड़तालीस हजार हेक्टेयर कृषि भूमि घटती जा रही है।
गौरतलब है कि 1992 में ग्रामीण परिवारों के पास 11.7 करोड़ हेक्टेयर भूमि थी, जो 2013 तक घट कर केवल 9.2 करोड़ हेक्टेयर रह गई। जाहिर है कि महज दो दशक में 2.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि ग्रामीण परिवारों के हाथ से निकल गई। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो कहा जा रहा है कि अगले साल तक भारत में खेती का रकबा आठ करोड़ हेक्टेयर ही रह जाएगा।
यह ठीक है कि जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर कई योजनाएं बनीं, मगर वे सफल नहीं हो सकीं। जनसंख्या के लिए एक राष्ट्रीय नीति बहुत जरूरी है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या देश के विकास को प्रभावित कर रही है। बड़ी जनसंख्या तक योजनाओं के लाभों का समान रूप से वितरण संभव नहीं हो पाता, जिसकी वजह से हम गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से दशकों बाद भी उबर नहीं सके हैं।
जाहिर है कि अगर आबादी बढ़ती है, तो गरीबों की संख्या में वृद्धि होना स्वाभाविक। वैशविक भुखमरी सूचकांक 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 16.3 फीसद आबादी कुपोषित है। पांच साल से कम उम्र के 35.5 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं। भारत में 3.3 प्रतिशत बच्चों की पांच साल की उम्र से पहले ही मौत हो जाती है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ‘द स्टेट आफ फूड सिक्युरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड’ रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में अस्सी करोड़ से ज्यादा लोग भुखमरी से जूझ रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दुनिया का हर दसवां शख्स भूखा है।
इतना ही नहीं, अब भी दुनिया में स्वस्थ आहार 310 करोड़ लोगों की पहुंच से बाहर है। साफ है कि दुनिया भर में तमाम कार्यक्रमों और संयुक्त राष्ट्र की कोशिशों के बावजूद खाद्य असमानता और कुपोषण को अभी तक खत्म नहीं किया जा सका है। खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक, इसका एक बड़ा कारण देशों के बीच संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक मंदी है। कोरोना महामारी ने इस अंतर को और बढ़ाया है।
बढ़ती आबादी की वजह से ही दुनिया भर में तेल, प्राकृतिक गैस, कोयला आदि ऊर्जा संसाधनों पर दबाव बढ़ गया है, जो भविष्य के लिए बड़े खतरे का संकेत है। भले हम विकास का दम भरते रहें, पर सच यह है कि दुनिया भर में भुखमरी का गंभीर संकट मंडरा रहा है। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है कि खाद्य समस्या का मुख्य कारण सिर्फ खाद्य पदार्थों का अभाव नहीं, बल्कि लोगों की क्रयशक्ति में कमी है।
वहीं दूसरी तरफ, एक आकलन के अनुसार पूरी दुनिया में तीस फीसद अनाज बर्बाद हो जाता है। किसान भी आबादी के अनुपात में अनाज का उत्पादन नहीं कर पा रहा है। महंगाई बढ़ने का यह एक बड़ा कारण है। ऐसे में दुनिया की बड़ी आबादी को भुखमरी से बाहर निकालने के लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत है।
जनसंख्या नियंत्रण और खाद्य उत्पादन में वृद्धि को लेकर विचार करने की आवश्यकता केवल भारत नहीं, संपूर्ण विश्व को है। इन दोनों समस्याओं के समाधान के लिए विश्व स्तर पर अभिनव प्रयास जारी हैं। भारत विश्व के उन देशों में है जहां खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपज बेहद कम है। यहां अमीर वर्ग मध्यवर्ती किसान और व्यापारी ही पर्याप्त और उपयुक्त भोजन प्राप्त कर पाते हैं।
शेष ग्रामीण, मजदूरों, लघु कृषकों, आदिवासियों मध्यवर्गीय लोगों के समक्ष अन्न की समस्या बढ़ती जा रही है। जमीन की उर्वरता बढ़ाने के लिए पशुपालन और अनाज के स्थान पर साग-सब्जी का उत्पादन तथा सेवन ऐसा उपाय है, जिसके सहारे समाधान बहुत हद तक संभव है। सरकार द्वारा परिवार नियोजन और खाद्यान्न उत्पादन के लिए कार्यक्रम क्रियान्वित किया जाना चाहिए।