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सरकारी बनाम निजी स्कूल

भारत में सरकारी स्कूलों में फिर से बढ़ता दाखिले का आंकड़ा बेहद सुकूनदेह है।

school going children
प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर। ( फोटो- इंडियन एक्‍सप्रेस)।

सरकारी स्कूलों को सरकार से और अधिक प्रोत्साहन की जरूरत है। यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत सहित विकासशील देशों के सरकारी स्कूलों में बच्चों के सीखने का स्तर काफी कम है। भारतीय सरकारी स्कूलों के पांचवीं कक्षा के आधे से ज्यादा बच्चे दूसरी कक्षा स्तर का पाठ भी नहीं पढ़ पाते। इसे कमी कहें, विसंगति या नीतियों की कमजोरी, पर सच्चाई यही है।

भारत में सरकारी स्कूलों में फिर से बढ़ता दाखिले का आंकड़ा बेहद सुकूनदेह है। थोड़े और प्रयास से इसमें और ज्यादा सफलता मिल सकती है। सही है कि अब भी असली प्रतिस्पर्धा सरकारी बनाम निजी स्कूलों की है। मगर कोरोनो काल के बाद के आंकड़े बताते हैं कि लोगों का रुझान दुबारा सरकारी स्कूलों की तरफ हुआ है।

इस भरोसे की वजह लंबे समय तक कामकाज और रोजी-रोजगार ठप्प पड़ने से कमाई का संकट और जमा पूंजी खत्म होना भी है। निजी स्कूलों की भारी फीस न चुका पाने की मजबूरी ने सरकारी स्कूलों को दुबारा आबाद किया। कोविड के वक्त वैकल्पिक आनलाइन शिक्षा की व्यवस्था तो हुई, लेकिन दुष्परिणाम ज्यादा दिखे। बच्चों का स्कूल में सीखने का स्तर घटा, वहीं आनलाइन पढ़ाई के चलते गंभीरता और एकाग्रता भी कम हुई। इसलिए बंदी खुलते ही सरकारी स्कूलों में दाखिले बढ़ गए।

यह कहना ठीक नहीं कि सरकारी स्कूलों का स्तर खराब है। अपवादों को छोड़ दें तो बहुतेरे स्कूल बेहतर नतीजों के चलते अलग साख रखते हैं। देशी-विदेशी तमाम शोध और आंकड़े भी यही इशारा करते हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन यानी ओईसीडी ने देशों की विभिन्न चालीस शिक्षा प्रणालियों में सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को जोड़े बिना पाया कि निजी स्कूलों के विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना में पढ़ने के अधिक अंक अर्जित किए।

मगर जब छात्र और स्कूल की सामाजिक और आर्थिक दशा को ध्यान में रख कर गणना हुई, तो पता चला कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के अंक निजी स्कूलों के मुकाबले अधिक थे। मतलब साफ है कि सरकारी स्कूल मुकाबले में कहीं पीछे नहीं हैं। निजी बनाम सरकारी स्कूलों की बहस कोई नई नहीं है, जो शिक्षा का अधिकार (आरटीई) लागू होने के बाद और बढ़ी। फिलहाल निजी और सरकारी स्कूलों के बीच खाई बढ़ी है। निजी स्कूलों की चकाचौंध और भारी फीस को स्तर मानना और सरकारी स्कूल से तुलना बेमानी है।

एक सोच भी बनी कि पैसे वालों के बच्चे निजी स्कूलों में, तो गरीबों के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। इस मिथक को दिल्ली सरकार ने अपनी मंशा के अनुरूप तोड़ कर दिखाया। केरल और कर्नाटक के भी तमाम सरकारी स्कूल बेहतर हैं। मध्यप्रदेश में ‘सीएम राइज स्कूल’ और छत्तीसगढ़ में ‘स्वामी आत्मानंद इंग्लिश मीडियम स्कूल’ की शुरुआत से लोगों का जबरदस्त रुझान फिर से सरकारी स्कूलों की तरफ बढ़ा है।

अब उसी राह पर गुजरात भी नया और अभिनव प्रयोग कर रहा है। इसी महीने (4 फरवरी 2023 को) ओईसीडी के साथ सरकारी स्कूलों के छात्रों के लिए अंतरराष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन यानी ‘प्रोग्राम फार इंटरनेशनल स्टूडेंट एसेसमेंट’ (पीसा) का करार हुआ, जो अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन पर आधारित है। हर तीन साल में पंद्रह साल के छात्रों के गणित और विज्ञान साक्षरता को मापा जाएगा।

गुजरात के बीस हजार सरकारी स्कूलों में अत्याधुनिक ‘फिजिकल, डिजिटल और लर्निंग इंफ्रास्ट्रक्चर’ के जरिए भारत में ‘मिशन स्कूल आफ एक्सीलेंस’ को गति दी जाएगी। ‘ग्रेड एप्रोप्रिएट लर्निंग आउटकम’ हासिल होगा। इससे पंद्रह वर्ष से अधिक उम्र के विद्यार्थियों में आलोचनात्मक सोच, समस्या का समाधान और प्रभावी संचार यानी आलोचनात्मक सोच, समस्या समाधान और प्रभावशाली संवाद जैसी क्षमताओं का मूल्यांकन कर विभिन्न आधुनिक जरूरतों के विषयों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन आधारित शिक्षा दी जाएगी। यकीनन इससे छात्रों की सोच, समस्या समाधान और प्रभावी संचार कौशल में सुधार होगा, जो देश के लिए मील का पत्थर होगा। सरकारी स्कूलों में ग्रेड-उपयुक्त शिक्षण परिणाम हासिल करने की दिशा में समझौता लागू करने वाला गुजरात पहला भारतीय राज्य है।

सरकारी स्कूलों को सरकार से और अधिक प्रोत्साहन की जरूरत है। यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत सहित विकासशील देशों के सरकारी स्कूलों में बच्चों के सीखने का स्तर काफी कम है। शिक्षा पर वार्षिक स्थिति आधारित सर्वेक्षण ‘असर’ यानी एनुअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट 2018 के आंकड़े यही बताते हैं। भारतीय सरकारी स्कूलों के पांचवी कक्षा के आधे से ज्यादा बच्चे दूसरी कक्षा स्तर का पाठ भी नहीं पढ़ पाते।

इसे कमी कहें, विसंगति या नीतियों की कमजोरी, पर सच्चाई यही है। वहीं 2022 का ‘असर’ सर्वेक्षण, जो कोरोना के चलते चार साल बाद हुआ, वह बढ़ते नामांकन की सुखद कहानी कहता है। देश के 616 जिलों के 19,060 गांवों में 3,74,544 घरों से जुटाए गए आंकड़ों में तीन से सोलह वर्ष की आयु के 6,99,597 बच्चों को शामिल कर हासिल किया गया आंकड़ा बताता है कि 2018 के बाद से सरकारी स्कूलों में दाखिले में तेजी आई।

कारण ऊपर बताया जा चुका है। 2018 में सरकारी स्कूलों में दर्ज संख्या 65.6 प्रतिशत थी, जो 2022 में बढ़कर 72.9 हो गई। यह सुकून की बात है कि सरकारी स्कूलों में संख्या बढ़ना किसी एक राज्य में नहीं, बल्कि हर जगह दिखा। शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन 2019-20 के 130,931,634 के मुकाबले 2021-2022 में बढ़कर 143,240,480 हो गया यानी 1.23 करोड़ अतिरिक्त छात्रों ने सरकारी स्कूलों में दाखिला लिया। बस इसी रुझान को न केवल बरकरार रखना है, बल्कि आगे भी बढ़ाना है।

यह भी सही है कि सरकारी स्कूलों में दाखिला बढ़ने के साथ अभिभावकों का ट्यूशन के प्रति भी आकर्षण बढ़ा है। मगर तुलनात्मक रूप से यह निजी स्कूलों के मुकाबले काफी सस्ता और पढ़ाई के मुकाबले बढ़िया साबित हो रहा है। बेशक, सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की पगार अच्छी है, समय-समय पर नवाचार और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाते हैं। पढ़ाने के तौर-तरीकों और गुणात्मक सुधार के लिए तमाम प्रयोग होते रहते हैं। मगर सरकारी शिक्षकों का एक ढीठ वर्ग ऐसा भी है, जो बजाय पढ़ाने के, दूसरे कामों में मशगूल रहता है।

इन आंकड़ों को भी जुटाना होगा कि कितने शिक्षक कक्षाओं से नदारद रहते हैं। कितने ऐसे हैं, जो निजी व्यापार, व्यवसाय, बचत खाता एजेंट या ट्यूटर बनकर अभिभावकों को प्रभावित कर अतिरिक्त कमाई में लगे रहते हैं। कई राज्यों में सरकारी शिक्षकों से दूसरे काम थोक में कराए जाते हैं। जनगणना, पशु गणना से लेकर बाहर शौच करने वालों की तस्वीरें तक लेने की सच्चाई ने हैरान किया। इससे भी शिक्षण प्रभावित होता है। वहीं शिक्षकों का देर से आना, जल्दी भाग जाना, नशाखोरी और कक्षाओं में न पढ़ाना भी अक्सर सुर्खियां बनता है।

इसे आसानी से ठीक किया जा सकता है। डिजिटल क्रांति और संचार युग में स्कूलों को कैमरे की जद में रखना बेहद आसान और सुविधाजनक होगा। कक्षाओं में सीसीटीवी कैमरे, डीवीआर, राउटर जैसे तकनीकी उपकरण लगें, ताकि उन्हें सीधे या रिकार्डिंग के जरिए अभिभावक, अधिकारी, जनप्रतिनिधि सभी देख सकें। इससे अपने आप सख्त अनुशासन बढ़ेगा और मनमर्जी रुकेगी।

खर्च के लिहाज से भी एक बार के निवेश से हर महीने एक शिक्षक के पगार से भी कम खर्च में कृत्रिम मेधा का सख्त पहरा सरकारी स्कूलों में होने वाली सारी अव्यवस्थाओं को ‘जीरो टालरेन्स’ पर ले आएगा। अब इस पर कौन-कौन जागेगा, ताकि डिजिटल क्रांति से सरकारी स्कूलों की तकदीर और तदबीर दोनों बदल जाए? किसी ने सही कहा है ‘तदबीर के दस्त-ए-रंगीं से तकदीर दरख्शां होती है कुदरत भी मदद फरमाती है जब कोशिश-ए-इंसां होती है।’

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First published on: 27-02-2023 at 01:13 IST
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