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जीवन-मरण का वैश्विक प्रश्न

अगले दो सौ सालों में ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली मानसून प्रणाली बहुत कमजोर पड़ जाएगी। इससे बारिश और जल की अत्यधिक कमी होगी।

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दुनियाभर में सागर तेजी से गर्म हो रहे हैं और 1865 से अब तक सागरीय तापमान में हुई वृद्धि पर गौर करें तो आधी बढ़ोतरी केवल पिछले दो दशकों में हुई है। (फाइल फोटो)

जब ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा शुरू हुई थी, तब इस प्रकार के आकलन की वैज्ञानिकता पर काफी सवाल उठाए गए थे। लेकिन धीरे-धीरे वे सवाल खामोश होते गए। अब पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ने तथा इसके फलस्वरूप जलवायु संकट तीव्रतर होने की हकीकत पर मतभेद की गुंजाइश नहीं रह गई है। दुनिया भर के वैज्ञानिक अब यह अनुभव करने लगे हैं कि हम आधुनिक विकास के जिस रास्ते पर चल रहे हैं वह हमारे विनाश का कारण बन सकता है। इसका यह नतीजा है कि आज हमारे लिए सांस लेने को न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी बचा है। लेकिन अब खतरा इससे भी बड़ा आने वाला है। भविष्य की तस्वीर बड़ी भयावह है।

अगर सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो 2030 तक दस करोड़ लोग सिर्फ गरमाती धरती की वजह से मौत के मुंह में समा जाएंगे। बीस विकासशील देशों की ओर से करवाए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में यह आशंका जताई गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण 2030 तक अमेरिका और चीन के जीडीपी में 2.1 फीसद जबकि भारत के जीडीपी में पांच प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। धरती के गरमाने से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इससे धरती के धु्रवों पर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है, जिससे समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है। यह समुद्र के किनारे बसे शहरों तथा महानगरों और तमाम द्वीपीय देशों के लिए भयानक खतरे की घंटी है। असल में यह उनके लिए वजूद का सवाल है।

जलवायु परिवर्तन के कारण वायु प्रदूषण, भूख और बीमारी से हर साल पचास लाख लोगों की मौत हो जाती है। 2030 तक हर साल साठ लाख लोगों की मौत इस वजह होगी। इस दर से अगले पंद्रह साल यानी 2030 तक नौ करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन के शिकार होंगे। इनमें से नब्बे फीसद मौतें विकासशील देशों में होंगी। यह खतरा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, वनों के कटान और आधुनिक विकास की नई-नई तकनीकों के कारण पैदा हुआ है।

विकासशील देशों की इस अध्ययन रिपोर्ट में 2010 और 2030 में 184 देशों पर जलवायु परिवर्तन के आर्थिक असर का आकलन किया गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल विश्व के जीडीपी में 1.6 फीसद यानी बारह सौ खरब डॉलर की कमी हो रही है। अगर जलवायु परिवर्तन के कारण धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो 2030 तक यह कमी 3.2 फीसद हो जाएगी और इस सदी के अंत तक यह आंकड़ा दस फीसद को पार कर जाएगा। जबकि जलवायु परिवर्तन से लड़ते हुए कम कार्बन पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था को खड़ा करने में विश्व जीडीपी का मात्र आधा फीसद खर्च होगा। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर होगा। 2030 तक उनके जीडीपी में ग्यारह फीसद तक की कमी आ सकती है।

एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से कृषि उत्पादन में दस प्रतिशत की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसके खाद्यान्न उत्पादन में चालीस लाख टन की कमी आएगी। हर साल पृथ्वी पर जल और खनिजों समेत प्राकृतिक संसाधनों के जबर्दस्त दोहन से जंगल साफ हो रहे हैं। पीनेयोग्य पानी की कमी है। लिहाजा भूकम्प, सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं। इन परिघटनाओं से समझा जा सकता है कि आज दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है? यों तमाम उद्योग घराने और नीति नियंता अब भी जीडीपी की वृद्धि दर की ही रट लगाए रहते हैं, मानो यही सब कुछ हो।

मगर विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि जल संकट के कारण वैश्विक वृद्धि दर पर बहुत बुरा असर पड़ने वाला है। दरअसल, संसाधनों के अति दोहन पर खड़े विकास मॉडल को अब ज्यादा समय तक नहीं चलाया जा सकता। हमें विकास का वैकल्पिक मॉडल निर्मित करना होगा। धरती का तापमान जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह इस सदी के अंत तक प्रलय के नजारे दिखा सकता है। ताजे शोध के नतीजों के अनुसार समुद्र का जल-स्तर एक मीटर तक बढ़ सकता है। इससे कई देश और भारत के तटीय नगर डूब जाएंगे। दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक वातावरण परिवर्तन का सामना करने जा रही है। भारत समेत पूरी दुनिया का तापमान छह डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। पेट्रोलियम पदार्थों का कोई वैकल्पिक र्इंधन ढूंढ़ने में विफल दुनिया भर की सरकारें इन हालात के लिए जिम्मेदार हैं।

पीडब्ल्यूसी के अर्थशास्त्रियों ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि अब वर्ष 2100 तक वैश्विक औसत तापमान को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना असंभव हो गया है। इसलिए इसके घातक नतीजे सारी दुनिया को भोगने होंगे। वैज्ञानिकों ने वातावरण परिवर्तन की किसी घातक और अविश्वसनीय स्थिति को टालने के लिए वैकल्पिक तापमान को औसत दो डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य के साथ ही वैज्ञानिकों ने कहा था कि कार्बन का अत्यधिक उत्सर्जन करने वाले इस र्इंधन के बदले किसी कम प्रदूषण फैलाने वाले र्इंधन की तलाश की जाए।

पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल ने पाया कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अब काफी देर हो चुकी है। दो डिग्री सेल्सियस तापमान के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था को अगले उनतालीस सालों में कमोबेश 5.1 फीसद प्रतिवर्ष की दर से पूरी तरह कार्बन-रहित बनाना होगा। जबकि द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद से दुनिया ने इस लक्ष्य को कभी छुआ तक नहीं है।

इस मसले पर पीडब्ल्यूसी के साझीदार लोओ जॉनसन का कहना है कि इस सदी के कगार पर वातावरण परिवर्तन से यह दुनिया बदलने वाली है। अगर कॉर्बन-रहित कामकाज की दर को दोगुना भी कर दिया जाए तो भी इस सदी के अंत तक निरंतर कार्बन उत्सर्जन के कारण छह डिग्री सेल्सियस तक तापमान और बढ़ जाएगा। लेकिन अगर अब भी दो डिग्री के लक्ष्य का पचास फीसद प्रयास भी किया जाए तो कार्बन-रहित वातावरण में छह स्तरीय सुधार हो सकता है। अब हम किसी खतरनाक परिवर्तन से बचने के कगार को तो पार कर ही चुके हैं। इसलिए हमें एक गर्म दुनिया में खुद को बनाए रखने की योजना बनानी होगी।

ग्लोबल वार्मिंग के कहर से सबसे ज्यादा एशियाई देश प्रभावित होंगे। अगले दो सौ सालों में ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली मानसून प्रणाली बहुत कमजोर पड़ जाएगी। इससे बारिश और जल की अत्यधिक कमी होगी। जबकि कृषिप्रधान देश में आज भी खेती अधिकांशत: मानसून पर ही निर्भर है। साथ ही देश के ऋतुचक्र में भी बेहद बिगाड़ आने की पूरी आशंका है। एक ताजा शोध में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाली दो शताब्दियों में बारिश चालीस से सत्तर फीसद तक कम हो जाएगी। इससे मानसूनी बारिश से आने वाला ताजा पानी देशवासियों के लिए कम पड़ेगा। खेतों की सिंचाई के लिए भी पानी नहीं होगा। इससे देश में जल की ही नहीं, खाद्यान्न की भी कमी हो जाएगी।

भारत में मानसून जून से लेकर सितंबर तक कमोबेश चार महीने रहता है। यह मौसम देश की एक अरब बीस करोड़ आबादी के लिए पर्याप्त मात्रा में धान, गेहूं और मक्का जैसी उपयोगी फसलें उगाने के लिए बहुत जरूरी होता है। ये सारी प्रमुख फसलें मानसूनी बारिश पर ही निर्भर करती हैं। दक्षिण-पश्चिम का यह मानसून देश में सत्तर फीसद बारिश के लिए जिम्मेवार है।

पोस्टडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च एंड पोस्टडैम यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं ने अपने ताजा शोध में पाया कि बाईसवीं सदी में ग्लोबल वार्मिंग की अधिकता के कारण दुनिया का तापमान हद से ज्यादा बढ़ चुका होगा। इनवायर्नमेंटल रिसर्च सेंटर नाम की पत्रिका में प्रकाशित इस शोध में बताया गया है कि बसंत ऋ़तु में प्रशांत क्षेत्र के ‘वाकर सरकुलेशन’ की आवृत्ति बढ़ सकती है। इसलिए मानसूनी बारिश पर बहुत बड़ा फर्क पड़ सकता है।

वाकर सरकुलेशन पश्चिमी हिंद महासागर में अक्सर उच्च दबाव लाता है। लेकिन जब कई सालों में अलनीनो उत्पन्न होता है तब दबाव का यह पैटर्न पूर्व की ओर खिसकता जाता है। इससे भारत के थल क्षेत्र में दबाव आ जाता है और मानसून का इलाके में दमन हो जाता है। यह स्थिति खासकर तब उत्पन्न होती है जब बसंत में मानसून विकसित होना शुरू होता है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार भविष्य में जब तापमान और अधिक बढ़ जाएगा तब वाकर सरकुलेशन औसत रहेगा और दबाव भारत के थल क्षेत्र पर पड़ेगा। इससे अलनीनो भी नहीं बढ़ पाएगा। मानसून प्रणाली विफल हो जाएगी और सामान्य बारिश के मुकाबले भविष्य में चालीस से सत्तर फीसद बारिश ही होगी।

भारतीय मौसम विभाग ने सामान्य बारिश का पैमाना 1870 के शतक के अनुसार बनाया था। मानसूनी बारिश में कमी सब जगह समान रूप से नहीं होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण मानसूनी बारिश कम होने से भी ज्यादा भयावह स्थितियां पैदा हो सकती हैं। इसलिए हमें एक ऐसी दुनिया में जीने की तैयारी कर लेनी चाहिए जहां सब कुछ हमारे प्रतिकूल होगा। प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन ऐसे हालात प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और आधुनिक तकनीक के कारण ही पैदा हो रहे हैं। क्या यह कहना गलत होगा कि हम एक महाविनाश की ओर जा रहे हैं?

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First published on: 09-05-2016 at 03:36 IST
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