सुशील कुमार सिंह
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2022 के आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत दुनिया के एक सौ छियालीस देशों में एक सौ पैंतीसवें स्थान पर है, जबकि 2020 के इसी सूचकांक में एक सौ तिरपन देशों में एक सौ बारहवें स्थान पर था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी हैं।
सवाल है कि इस असमानता के पीछे बड़ा कारण क्या है। आर्थिक भागीदारी और अवसर की कमी के अलावा शिक्षा प्राप्ति में व्याप्त अड़चनें, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता तथा सशक्तिकरण को इसके लिए जिम्मेदार समझा जा सकता है। 2022 के इस आंकड़े में आइसलैंड, जहां इस मामले में शीर्ष पर है वहीं निम्न प्रदर्शन के मामले में अफगानिस्तान को देखा जा सकता है। हैरत यह भी है कि पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और भूटान की स्थिति भारत से बेहतर है, जबकि दक्षिण एशिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तान का प्रदर्शन भारत से खराब है।
यह भी गौरतलब है कि कोविड के चलते व्याप्त मंदी ने महिलाओं को भी प्रभावित किया और लैंगिक अंतराल सूचकांक में तुलनात्मक गिरावट आई। यह तथ्य है कि लैंगिक असमानता को जितना कमजोर किया जाएगा, लैंगिक न्याय और समानता को उतना ही बल मिलेगा। संविधान से लेकर विधान तक और सामाजिक सुरक्षा की कसौटी समेत तमाम मोर्चों पर लैंगिक असमानता को कम करने का प्रयास दशकों से जारी है, मगर अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है। यहां लैंगिक आधार पर भेदभाव को व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों दृष्टियों से समाप्त करने का प्रयास जारी है।
हालांकि कई ऐसे कानून मौजूद हैं, जो लैंगिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। इसमें समुदाय विशेष के पर्सनल ला भी हैं, जहां ऐसे प्रावधान निहित हैं, जो महिलाओं के अधिकारों को न केवल कमजोर करते, बल्कि भेदभाव से भी युक्त हैं। समान नागरिक संहिता को संविधान के नीति निदेशक तत्त्व के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में देखा जा सकता है।
चूंकि भारत लैंगिक समता के लिए प्रयास करने वाला देश है, समान आचार संहिता एक आवश्यक कदम के रूप में समझा जा सकता है। इसके होने से समुदायों के बीच कानूनों में एकरूपता और पुरुषों तथा महिलाओं के अधिकारों में बीच समानता स्वाभाविक रूप से आएगी।
इतना ही नहीं, विशेष विवाह अधिनियम 1954 किसी भी नागरिक के लिए, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, ‘सिविल मैरिज’ का प्रावधान करता है। जाहिर है, इस प्रकार किसी भी भारतीय को किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून की सीमाओं के बाहर विवाह करने की अनुमति देता है।
शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत उसके पक्ष में निर्णय दिया था, जिसमें पत्नी, बच्चे और माता-पिता की देखभाल के संबंध में सभी नागरिकों पर लागू होता है। इतना ही नहीं, देश की शीर्ष अदालत ने लंबे समय से लंबित समान नागरिक संहिता अधिनियमित करने की बात भी कही।
1995 के सरला मुद्गल मामला हो या 2019 का पाउलो कोटिन्हो बनाम मारिया लुइजा वेलेंटीना परोरा मामला, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से समान आचार संहिता लागू करने के लिए कहा। गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता लैंगिक न्याय की दिशा में भी एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इससे न केवल व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं में जकड़ी असमानता को रोका जा सकेगा, बल्कि स्त्री की प्रगतिशील अवधारणा और उत्थान को भी मार्ग दिया जा सकेगा।
गौरतलब है कि 2030 तक विश्व के सभी देश अपने वैश्विक एजेंडे के अंतर्गत न केवल गरीबी उन्मूलन और भुखमरी की समाप्ति, बल्कि स्त्री-पुरुष समानता के साथ लैंगिक न्याय हासिल करने को लेकर जद्दोजहद कर रहे हैं। ऐसे में बहुआयामी लक्ष्य के साथ लैंगिक न्याय को प्राप्त करना किसी भी देश की कसौटी है और भारत इससे परे नहीं है। लिंग आधारित समस्याओं का बने रहना न केवल देश में बहस का मुद्दा खड़ा करता है, बल्कि विकास के पैमाने को भी अवरुद्ध बनाए रखता है।
विश्व बैंक ने बरसों पहले कहा था कि अगर भारत की पढ़ी-लिखी महिलाएं कामगार हो जाएं तो देश की जीडीपी सवा चार फीसद रातोरात बढ़ सकती है। यहां ध्यान दिला दें कि अगर यही विकास दर किसी तरह प्राप्त कर ली जाए, तो जीडीपी दहाई में होगी और पांच ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था के सपने को भी पंख लग जाएंगे।
बेशक भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है, मगर इसकी यह जड़ अब उतनी मजबूत नहीं कही जा सकती। भारत में महिलाओं के लिए बहुत से सुरक्षात्मक उपाय किए गए हैं। उनके साथ अत्याचार आज भी खतरनाक स्तर पर है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, मगर यही महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति भी दर्ज करा रही हैं।
सिविल सेवा परीक्षा में तो कई अवसर ऐसे आए हैं, जब महिलाएं न केवल प्रथम स्थान पर रही हैं, बल्कि एक बार लगातार चार स्थानों तक और एक बार लगातार तीन स्थानों तक महिलाएं ही छाई रहीं। उक्त परिप्रेक्ष्य एक बानगी है कि लिंग असमानता या लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां तो हैं, मगर वक्त के साथ लैंगिक समानता भी आई है।
दहेज प्रथा का प्रचलन आज भी है, जिसे सामाजिक बुराई या अभिशाप तो सभी कहते हैं, मगर इस जकड़न से गिने-चुने ही बाहर हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर कानून बने हैं, फिर भी यदा-कदा इसका उल्लंघन होता रहता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में बावन फीसद महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं। यह भी लैंगिक न्याय की दृष्टि से चुनौती बना हुआ है, जबकि घरेलू हिंसा कानून 2005 से ही लागू है।
महिलाओं को आज की संस्कृति के अनुसार अपनी रूढ़िवादी सोच को भी बदलना होगा। पुरुषों को महिलाओं के समांतर खड़ा करना या महिलाएं पुरुषों से प्रतियोगिता करें, यह समाज और देश दोनों दृष्टि से सही नहीं है, बल्कि सहयोगी और सहभागी दृष्टि से उत्थान और विकास को प्रमुखता दे, यह सभी के हित में है।
यह बात जितनी सहजता से कही जा रही है यह व्यावहारिक रूप से उतना है नहीं। मगर एक कदम बड़ा सोचने से दो और कदम अच्छे रखने का साहस अगर विकसित होता है, तो पहले लैंगिक न्याय की दृष्टि से एक आदर्श सोच तो लानी ही होगी।
लैंगिक समानता का सूत्र सामाजिक सुरक्षा और सम्मान से होकर गुजरता है। समान कार्य के लिए समान वेतन, मातृत्व अवकाश, लैंगिक अनुपात में बजट समेत कई ऐसे परिप्रेक्ष्य हैं, जिनसे लैंगिक न्याय पुख्ता होता है। राजनीतिक सशक्तिकरण के मामले में भारत 2020 में इसमें भागीदारी को लेकर अठारहवें स्थान पर था और मंत्रिमंडल में भागीदारी के मामले में विश्व में उनहत्तरवें स्थान पर। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, वन स्टाप सेंटर योजना, महिला हेल्पलाइन योजना, महिला सशक्तिकरण केंद्र तथा राष्ट्रीय महिला आयोग जैसी तमाम संस्थाएं लैंगिक समानता और न्याय की दृष्टि से अच्छे कदम हैं। बावजूद इसके लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां भी कमोबेश बरकरार हैं।