रसाल सिंह
प्रतिभाशाली प्रोफेसरों, शोधकर्ताओं और छात्रों को आकर्षित करने हेतु विदेशी विश्वविद्यालय भारत में मौजूद विश्वविद्यालयों के साथ स्वस्थ होड़ करेंगे। उनके साथ उद्योग परियोजनाओं, प्रतिभाशाली छात्रों और शिक्षकों के लिए प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा हेतु भारतीय विश्वविद्यालय अपने स्तर में सुधार को प्रेरित होंगे।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सिफारिशों के अनुसार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भारत में उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की दिशा में काम शुरू कर दिया है। अब विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने परिसर खोल पाएंगे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भारत में विदेशी संस्थानों की स्थापना और संचालन के लिए ‘भारत में विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों के परिसर की स्थापना और संचालन-2023’ नामक मसविदा जारी किया है।
यह विदेशी विश्वविद्यालयों को प्रवेश प्रक्रिया, शुल्क संरचना, शिक्षकों की नियुक्ति और पारिश्रमिक तय करने और अर्जित आय को स्वदेश भेजने की स्वायत्तता प्रदान करता है। यह भी स्पष्ट है कि ये विश्वविद्यालय पूर्णकालिक कार्यक्रम ही शुरू कर सकेंगे। इस योजना के लिए सिर्फ वही विदेशी संस्थान पात्र हैं, जिन्होंने समग्र या विषयवार वैश्विक रैंकिंग के शीर्ष पांच सौ में अपनी जगह बनाई हो या अपने देश में एक प्रतिष्ठित संस्थान के रूप में मान्य हों।
हालांकि, नियमन में किन मानदंडों को अंतिम रूप से शामिल किया जाएगा, इसकी अधिसूचना सभी हितधारकों की प्रतिक्रिया के बाद इस महीने की समाप्ति तक जारी कर दी जाएगी। यह निर्णय विदेशी संस्थानों को स्थानीय साझेदारों के बिना भी अपने परिसर स्थापित करने हेतु प्रोत्साहित करेगा। इससे भारतीय शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी और छात्रों के भारत छोड़कर विदेश जाने में भी काफी कमी आएगी। भारतीय छात्रों को कम खर्चे पर विदेशी डिग्री मिल पाएगी और भारत अध्ययन और शोध के एक किफायती और आकर्षक केंद्र के रूप में भी स्थापित हो सकेगा।
गौरतलब है कि विदेशी संस्थानों को लाने के ऐसे प्रयास पहले भी हो चुके हैं। पहली बार आर्थिक उदारीकरण के प्रारंभिक चरण में वर्ष 1995 में एक विधेयक लाया गया था। इसी प्रकार 2007 में यूपीए सरकार के समय भी यह विचार चर्चा में आया। मगर ये दोनों प्रयास गठबंधन की विवशताओं और वामदलों के दबाव के कारण सिरे नहीं चढ़ सके।
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में आने के तमाम कारकों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भारत की विशाल छात्र संख्या है। भारतीय छात्रों के बीच अंतरराष्ट्रीय शिक्षा की भारी मांग है। केवल 2022 में ही, करीब साढ़े चार लाख भारतीय छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए। इस तरह हर साल हमारे देश का लगभग अठाईस से तीस अरब अमेरिकी डालर बाहर जा रहा है।
अनुमान है कि 2024 तक, अठारह लाख छात्र विदेश जाएंगे और लगभग 6.4 खरब रुपए खर्च करेंगे, जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 2.7 प्रतिशत है। अगर यही रुझान जारी रहा, तो इसका सीधा असर भारतीय वित्तीय और मानव पूंजी पर चिंताजनक दबाव के रूप में पड़ेगा। विदेशों में अध्ययन के लिए गए छात्र अक्सर वहीं काम करने का विकल्प भी चुनते हैं, जो कि प्रतिभा पलायन को बढ़ाता है।
आंकड़ों के अनुसार, 2022 के पहले तीन महीनों में, एक लाख तैंतीस हजार एक सौ पैंतीस छात्रों ने अकादमिक गतिविधियों के लिए भारत छोड़ा, जबकि 2020 में करीब दो लाख साठ हजार और 2021 में करीब साढ़े चार लाख भारतीयों ने विदेश में शिक्षा ग्रहण की, जो एक वर्ष में ही 41 फीसद की वृद्धि दर्शाता है।
भारतीय छात्रों के अलावा उपमहाद्वीप और अन्य विकासशील देशों के छात्र भी इन संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, जो कि बहु-संस्कृतिवाद के साथ-साथ अन्य देशों के साथ भारत को मजबूत संबंध स्थापित करने में मदद करेगा। इस प्रकार, भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी प्रवाह बढ़ेगा। छोटे-मोटे व्यवसाइयों और कारीगरों के लिए बहुत सारे रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे। उनके संचालन के लिए बहुत-से लोगों की आवश्यकता होगी। साथ ही, विदेशी विश्वविद्यालय प्रतिभाशाली प्राध्यापकों और शोधकर्ताओं को बेहतर वातावरण में काम करने का अवसर प्रदान करते हुए देश में अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करेंगे।
भारत में एक हजार से अधिक विश्वविद्यालय और बयालीस हजार से अधिक महाविद्यालय हैं। विश्व के सबसे बड़े उच्च शिक्षा तंत्रों में से एक होने के बावजूद, उच्च शिक्षा में भारत का सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) सिर्फ 27.1 फीसद है, जो कि विश्व में सबसे कम है। ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां वर्तमान भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। मसलन, हमारा कोई भी विश्वविद्यालय क्यूएस रैंकिंग में शीर्ष सौ में शामिल नहीं है। भारतीय अकादमिक संस्थानों का ध्यान मुख्य रूप से शिक्षण पर होता है।
इस कारण अनुसंधान और विकास की अनदेखी कर दी जाती है। कर्मचारियों की कमी, कम संसाधन, छात्रों का बीच में पढ़ाई छोड़ना और संस्थानों का राजनीतिकरण जैसी चुनौतियां भारतीय अकादमिक संस्थाओं को अपना मूल्यवर्द्धन करने से रोकती हैं। इसलिए उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सर्वोत्तम कार्य-संस्कृति के माध्यम से शैक्षणिक संप्रभुता, न्यूनतम शासन, दूरदर्शी प्रबंधन, बेहतर संकाय, उद्योगों के साथ संबंध और छात्रों की अकादमिक सक्रियता के जरिए भारत को आगे बढ़ाने हेतु विदेशी संस्थानों का स्वागत किया जाना चाहिए।
करिअर परामर्श और रोजगारपरकता एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें भारतीय संस्थान अपने विदेशी समकक्षों से बहुत पीछे हैं। मसलन, हमारा पाठ्यक्रम उन लोगों से चर्चाओं पर आधारित नहीं होता है, जो अंतत: हमारे छात्रों को रोजगार देते हैं या अपने यहां काम पर रखते हैं। वहीं दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त शैक्षणिक संस्थान भविष्य की संभावनाओं को समझने के लिए लगातार व्यापार, उद्योग और सरकार के साथ जुड़े रहते हैं।
नौकरियों की प्रकृति और कर्मचारियों की मांगों में तेजी से बदलाव हो रहा है, जो सीधे-सीधे शिक्षा प्रदाताओं को यह जिम्मेदारी देता है कि वे इस बदलाव का अनुमान लगाएं और छात्रों को इसके अनुरूप तैयार करें। विदेशी विश्वविद्यालयों ने इस कला में महारत हासिल की है। विदेशी संस्थानों के आने की वजह से हमारे देश में बहु-सांस्कृतिक वातावरण में सीखने के पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण होगा, जिसका सीधा प्रभाव छात्रों के दृष्टिकोण पर भी पड़ेगा।
भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर खुलने से उच्च शिक्षा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा पैदा होगी। प्रतिभाशाली प्रोफेसर, शोधकर्ताओं और छात्रों को आकर्षित करने हेतु विदेशी विश्वविद्यालय भारत में मौजूद विश्वविद्यालयों के साथ स्वस्थ होड़ करेंगे। उनके साथ उद्योग परियोजनाओं, प्रतिभाशाली छात्रों और शिक्षकों के लिए प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा हेतु भारतीय विश्वविद्यालय अपने स्तर में सुधार को प्रेरित होंगे। इसलिए अपेक्षा की जा रही है कि विदेशी विश्वविद्यालय भारतीय छात्रों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने और भारत की आबादी को मानव संसाधन में परिवर्तित करने में भी सहायता प्रदान करेंगे।
यह सब तभी संभव है, जब भारत प्रतिष्ठित वैश्विक संस्थानों को परिसर स्थापित करने हेतु आकर्षित कर सके। जब तक कि उन्हें समान अवसर और सुविधाओं का विश्वास नहीं दिलाया जाएगा, तब तक प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालय आकर्षित नहीं होंगे। अतीत में ऐसी कई पहलें हुई हैं, जिनके वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। हालांकि, हाल के दिनों में भारत की आर्थिक स्थिति वैश्विक स्तर पर जबर्दस्त तरीके से सुधरी है।
इस आधार पर विदेशी संस्थान भारत को, दो दशक पहले की तुलना में, अपने लिए ज्यादा अनुकूल मान सकते हैं। अकादमिक व्यवस्था, भूस्वामित्व, कराधान और शिक्षकों की भर्ती से संबंधित नियमन आदि उनकी चिंता के सामान्य विषय हैं। इन पर आवश्यक कार्रवाई की जानी चाहिए। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि विदेशी संस्थाएं भारत में अपने परिसरों की स्थापना सहयोग और ज्ञान-साझाकरण के लिए करें, न कि सिर्फ व्यावसायिक हितों के लिए। ये संस्थाएं केवल अभिजात और उच्च वर्ग के लिए ही सीमित न हों, बल्कि वंचित वर्गों के छात्रों का हित-संरक्षण करते हुए उन्हें भी समुचित अवसर प्रदान करें।