अजय श्रीवास्तव
पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली ने न केवल अली की तमाम संपत्ति जब्त करवाई, बल्कि ऐसे हालात बना दिए कि अली को खाली हाथ 1948 में ही इंग्लैंड लौटना पड़ा। इसकी वजह यह रही कि वे पाकिस्तान के लिए इतने छोटे भू-भाग से खुश नहीं थे। उन्होंने कई बार कायद-ए-आजम मोहम्मद अली जिन्ना की कड़ी आलोचना की थी, जो पाकिस्तान के हुक्मरानों का पसंद नहीं था। चौधरी रहमत अली ने कई बार सार्वजनिक मंच से जिन्ना को ‘गद्दार-ए-आजम’ कहा था।
इंग्लैंड की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान संयुक्त पंजाब के एक दुबले-पतले नौजवान चौधरी रहमत अली के दिमाग में मुसलमानों के लिए भारत से अलग एक राष्ट्र पाकिस्तान का विचार कौंधा था। 28 जनवरी, 1933 को इस आशय का एक पर्चानुमा प्रकाशन भी सामने आया, जिसमें लिखा था- ‘नाउ आर नेवर: आर वी टु लिव आर पैरिश फारएवर?’ यानी ‘अभी नहीं तो कभी नहीं: क्या हम बचेंगे या सदा के लिए मिटा दिए जाएंगे?’ इस पर्चे में उन्होंने पंजाब, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर यानी अफगान क्षेत्र, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान क्षेत्रों के नामों के प्रमुख अक्षरों को जोड़ कर पाकिस्तान नाम बनाया था।
चौधरी रहमत अली चाहते थे कि लंदन में होने वाले तीसरे गोलमेज सम्मेलन में उनकी यह मांग सुनी जाए, मगर ब्रिटिश शासन के आला अधिकारियों और मुसलिम नेताओं ने उनकी मांग को ज्यादा तब्बजो नहीं दी। पाकिस्तान की मांग को छात्रों का शिगूफा समझ कर नजरअंदाज कर दिया गया। मगर चौधरी रहमत अली ने अपना संघर्ष विभिन्न मंचों पर जारी रखा। सन 1934 में उन्होंने अपने कुछ दोस्तों के साथ मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात की और पाकिस्तान के विचार के समर्थन की अपील की। जिन्ना ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मेरे प्यारे बच्चो, जल्दी मत करो, पानी बहने दो, वह अपना तल खुद खोज लेगा।’
चौधरी रहमत अली अपनी पाकिस्तान की कल्पना को हर हाल में साकार देखना चाहते थे। इसी कड़ी में उन्होंने अल्लामा इकबाल से भी मुलाकात की और उन्हें वे सारी बातें बताई, जो उन्होंने मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र पाकिस्तान के बारे में सोची थी। उन दिनों अल्लामा इकबाल की गिनती ‘अलग मुसलिम राष्ट्र’ के नेता के रूप में होने लगी थी। कई मायने में वे जिन्ना से बहुत आगे की सोच रखते थे। इकबाल ने उनकी बात ध्यान से सुनी, मगर कोई आश्वासन नहीं दिया।
चौधरी रहमत अली ने अपने लेख में लिखा है कि मुसलमानों के रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान, वेश-भूषा सब अलहदा हैं, फिर हमें एक अलग मुल्क क्यों न मिले, जहां उन्हें यह सब करने की आजादी हो। हमारा धर्म और संस्कृति, हमारा इतिहास और परंपरा, हमारी सामाजिक संहिता और आर्थिक व्यवस्था, विरासत, उत्तराधिकार और विवाह के हमारे कानून मूल रूप से शेष भारत में रहने वाले अधिकांश लोगों से अलग हैं। जो आदर्श हमारे लोगों को सर्वोच्च बलिदान के लिए प्रेरित करते हैं, वे अनिवार्य रूप से उन आदर्शों से भिन्न हैं, जो हिंदुओं को ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये मतभेद व्यापक, बुनियादी सिद्धांतों तक ही सीमित नहीं हैं। हम आपस में भोजन नहीं करते, हम अंतर्विवाह नहीं करते। हमारे राष्ट्रीय-रिवाज और कैलेंडर भी अलग हैं।
उन्होंने पाकिस्तान का नक्शा भी छपवाया था, जिसमें भारत के अंदर तीन मुसलिम देशों को दिखाया गया था। ये देश थे पाकिस्तान, बंगिस्तान और दक्खिनी उस्मानिस्तान (हैदराबाद, निजाम की रियासतें)। सबसे खास बात यह कि रहमत अली के पाकिस्तान और अल्लामा इकबाल के स्वतंत्र मुसलिम राष्ट्र में कहीं भी बंगाल का जिक्र नहीं है।
चौधरी रहमत अली के शब्दों को ही बाद में अखिल भारतीय मुसलिम लीग ने ‘द्वि-राष्ट्र’ की प्रस्तावना में शामिल किया था। हालांकि जवाहरलाल नेहरू अपनी किताब में पाकिस्तान के प्रणेता के रूप में अल्लामा इकबाल को चिह्नित करते हैं। बहुत से ब्रिटिश लेखकों ने भी नेहरू का समर्थन करते हुए इकबाल को ही पाकिस्तान शब्द का जनक बताया है, मगर इतिहासकार अकील अब्बास जाफरी ने तर्क दिया है कि पाकिस्तान नाम एक कश्मीरी पत्रकार गुलाम हसन शाह काजमी ने 1 जुलाई, 1928 को दिया था, जब उन्होंने ऐबटाबाद में सरकार के समक्ष एक आवेदन दिया था, जिसमें एक साप्ताहिक अखबार ‘पाकिस्तान’ प्रकाशित करने की मंजूरी मांगी गई थी।
सच्चाई जो भी हो, मगर भारत में मजहब के नाम पर एक अलग देश की मांग सन 1905 के बंगाल विभाजन के साथ शुरू हो गई थी। अंग्रेजी हुकूमत ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर अमल करते हुए भारत के मुसलिम बहुल इलाकों को लेकर पूर्वी बंगाल बनाया था और हिंदू बहुल इलाका पश्चिमी बंगाल बना। फिरंगियों के इस फैसले का भारत में बहुत विरोध हुआ, मगर अधिकांश मुसलिम नेता बंगाल विभाजन के समर्थन में थे। बंगाल विभाजन के एक वर्ष बाद सन 1906 में मुसलिम लीग का गठन किया गया। उस समय इसका उद्देश्य मुसलमानों के हक की आवाज को मजबूती देना था।
हिंदू और मुसलमानों के संबंध दिनों दिन खराब होते चले जा रहे थे। दंगों से व्यथित मुसलिम समाज को लगने लगा कि वे इस देश में सुरक्षित नहीं हैं। मुसलमानों की भावना को समझ कर 1930 में हुए मुसलिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में अध्यक्षता कर रहे अल्लामा इकबाल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य की मांग की और कहा, ‘इस्लाम केवल मजहब नहीं, एक सभ्यता भी है। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक को छोड़ने से दूसरा भी छूट जाएगा।
भारतीय राष्ट्रवाद के आधार पर राजनीति के गठन का मतलब इस्लामी एकता के सिद्धांत से अलग हटना है, जिसके बारे में कोई मुसलमान सोच भी नहीं सकता। कोई मुसलमान ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं करेगा, जिसमें उसे राष्ट्रीय पहचान की वजह से इस्लामिक पहचान को छोड़ना पड़े। मैं चाहता हूं कि पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत, सिंध, कश्मीर और बलूचिस्तान का एक स्वायत्तशासी राज्य में विलय कर दिया जाए, ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर या बाहर। उत्तर पश्चिम में एक बड़े मुसलिम स्टेट की स्थापना ही मुझे मुसलमानों की नियति दिखाई दे रही है।’
देर से ही सही, लेकिन अली के विचारों को मान्यता मिली। गौरतलब है कि सन 1937 में हुए चुनाव में मुसलिम लीग की करारी शिकस्त से व्यथित होकर 28 मई, 1937 को अल्लामा इकबाल ने जिन्ना को पत्र लिखा, ‘स्वतंत्र मुसलिम राज्य के बिना इस देश में इस्लामी शरीअत का पालन और विकास संभव नहीं है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इस देश में गृहयुद्ध की स्थिति हो सकती है, जो पिछले कुछ सालों से हिंदू-मुसलिम दंगों के रूप में चल रहा है। क्या तुम नहीं सोचते कि यह मांग उठाने का समय अब आ चुका है।’
देश को आजादी मिली, मगर देश विभाजन के रूप में। पाकिस्तान के सर्वोच्च नेता के रूप में मोहम्मद अली जिन्ना स्थापित हुए, मगर इतने छोटे पाकिस्तान से चौधरी रहमत अली खुश नहीं थे। वे पाकिस्तान में और क्षेत्र चाहते थे, मगर वह नहीं मिला। वे इस विफलता के लिए पाकिस्तान के कायद-ए-आजम मोहम्मद अली जिन्ना को दोषी मानते थे। एक देश को उसका नाम देने के बावजूद वे अपने मुल्क में उपेक्षित रहे, वहां के लोगों ने उन्हें भुला दिया। आजादी के बाद उन्होंने अपने मुल्क पाकिस्तान में रहने का निर्णय किया और वे इंग्लैंड में कमाई मोटी रकम लेकर पाकिस्तान आए, मगर नियति को कुछ और मंजूर था।
पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली ने न केवल अली की तमाम संपत्ति जब्त करवाई, बल्कि ऐसे हालात बना दिए कि अली को खाली हाथ 1948 में ही इंग्लैंड लौटना पड़ा। इसकी वजह यह रही कि वे पाकिस्तान के लिए इतने छोटे भू-भाग से खुश नहीं थे। उन्होंने कई बार कायद-ए-आजम मोहम्मद अली जिन्ना की कड़ी आलोचना की थी, जो पाकिस्तान के हुक्मरानों का पसंद नहीं था। जब चौधरी रहमत अली को पाकिस्तान से जाने के लिए मजबूर किया जा रहा था, तब भी जिन्ना इस मसले पर चुप रहे। चौधरी रहमत अली ने कई बार सार्वजनिक मंच से जिन्ना को ‘गद्दार-ए-आजम’ कहा था। जिस शख्स ने अपनी पूरी जवानी अपने मुल्क के लिए खपा दी उसे अपने अंतिम समय में अपने प्यारे मुल्क में दो गज जमीन भी मयस्सर नहीं हुई।