म्यांमा में पच्चीस वर्ष बाद स्वतंत्र रूप से संपन्न हुए चुनाव में लोकतंत्र बहाली आंदोलन की नेता आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की बढ़त और सैन्य समर्थित सत्ताधारी यूनियन सॉलिडरेट एंड डवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) द्वारा हार स्वीकार करने के बाद म्यांमा में लोकतंत्र के परवान चढ़ने की उम्मीद बढ़ गई है। लेकिन पूर्व सेना प्रमुख और राष्ट्रपति थीन सीन की यह चेतावनी आशंका पैदा करने वाली है कि अगर यूएसडीपी चुनाव हार जाती है तो ‘अरब वसंत’ (अरब स्प्रिंग) के बाद मध्य-पूर्व वाली स्थिति आ सकती है। बहरहाल, संतोष की बात यह है कि संसद के दोनों सदनों की कुल 498 सीटों के लिए हुए मतदान में सत्तर फीसद से अधिक सीटें एनएलडी यानी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी की झोली में आ चुकी हैं। सरकार बनाने के लिए उसे सड़सठ फीसद सीटें जीतना आवश्यक है, क्योंकि एक चौथाई सीटें सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा मनोनीत किए जाने वाले प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित हैं।
इस जनादेश से स्पष्ट है कि आंग सान सू की की पार्टी संसद में सबसे ताकतवर पार्टी बनने जा रही है और राष्ट्रपति पद पर भी उसका कब्जा होना तय है। पर अभी से इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि इस आम चुनाव से म्यांमा में फौजी बूटों की हलचल कम हो जाएगी और लोकतंत्र के दिन बहुर जाएंगे। इसलिए कि 1990 के चुनाव में भी एनएलडी को सफलता मिली थी, पर सेना ने उस चुनाव को खारिज कर दिया। यही नहीं, एनएलडी को लंबे समय तक सेना के दमन का भी शिकार होना पड़ा। सू की को उनके घर में नजरबंद रखा गया। उनके हजारों समर्थक जेलों में डाल दिए गए। उन्हें तमाम तरह से यातनाएं भी दी जाती रहीं। लिहाजा, म्यांमा में हुआ यह आम चुनाव महज नई सरकार चुनने के लिए हुआ चुनाव नहीं है, जैसा कि अमूमन तमाम लोकतांत्रिक देशों में होता है। यह चुनाव म्यांमा में एक नए युग का आरंभ है। उम्मीद है कि इस बार सेना जनता के फैसले को कुचलने का दुस्साहस नहीं करेगी। इसलिए कि म्यांमा की जनता ने अब सैन्य शासन के डरावने माहौल से बाहर निकल कर लोकतंत्र की खुली हवा में सांस लेने का फैसला सुना दिया है।
जनादेश का अर्थ ऐसे म्यांमा को आकार देना है जिसकी संप्रभुता जनता में निहित हो और शासन लोकतंत्र के पहरुओं के हाथ में हो। यह काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि म्यांमा की सेना नई बनने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था को कितनी सहजता से ले पाएगी। यह सवाल इसलिए उठता है कि दशकों से हुकूमत पर काबिज रही सेना के लिए सत्ता पर अपना नियंत्रण छोड़ना आसान नहीं हो सकता। दरअसल, जुंटा यानी म्यांमा के सैन्य शासन ने 2011 में राजनीतिक सुधारों की पहल की, तो इसलिए कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के चलते वह दुनिया से अलग-थलग पड़ गया था। अब म्यांमा के लिए अंतरराष्ट्रीय दबावों और बंदिशों से उबरने का रास्ता साफ हुआ है।
लोकतंत्र को कुचलने के लिए सेना ने 1990 से ही आंग सान सू की को नजरबंद कर रखा था। लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते नवंबर 2010 में उनकी नजरबंदी करनी पड़ी। 27 मई, 1990 को सू की पार्टी ने आम चुनाव में हिस्सा लिया। उस समय भी उनकी पार्टी ने तकरीबन अस्सी फीसद सीटों पर जीत दर्ज की थी। पर सेना ने जनतंत्र के फैसले का सम्मान नहीं किया और सू की को सत्ता सौंपने के बजाय फिर नजरबंद कर दिया। विश्व समुदाय हैरान रह गया कि जब जनादेश का सम्मान ही नहीं करना था तो फिर चुनाव की जरूरत क्या थी? प्रतिक्रियास्वरूप विश्व के कई देशों ने म्यांमा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया। नए चुनाव पर भी विश्व समुदाय की नजर रही है। सभी को अपेक्षा है कि इस बार म्यांमा का सैन्य प्रशासन नागरिक मूल्यों का सम्मान करेगा और लोकतंत्र की बहाली की राह में रोड़ा नहीं डालेगा।
गौरतलब है कि विश्व जनमत के दबाव में ही 2010 में म्यांमा में चुनाव हुआ। लेकिन उसका महत्त्व इसलिए नहीं रहा कि सू की ने उस चुनाव का बहिष्कार किया। बहिष्कार की कई वजहें थीं। मसलन, 1990 के चुनावी नतीजे का फौजी हुक्मरानों ने सम्मान नहीं किया। दूसरी बात यह कि सू की ने सैन्य प्रतिष्ठान की मंशा भांप ली कि वह चुनाव में गड़बड़ी करने वाला है। हुआ भी वैसा ही। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने चुनाव में हुई धांधली का जम कर उल्लेख किया। उम्मीदवारों को मतदाता सूची तक मुहैया नहीं कराई गई थी। सभा करने पर प्रतिबंध था। पूरा मीडिया सेना के नियंत्रण में रहा।
वर्ष 2008 का नया संविधान लोकतंत्र की भावनाओं के प्रतिकूल था और जनता ने उसका बहिष्कार भी किया, इसके बावजूद सैन्यतंत्र ने उसे जबरन लागू किया। इस जनविरोधी संविधान के प्रावधानों के मुताबिक संसद की एक चौथाई सीटें फौजी हुकूमत ने मनमर्जी से भर दीं। यही नहीं, करीब आठ दर्जन सीटों पर एक ही उम्मीदवार का नामांकन स्वीकारा गया। राष्ट्रीय संसद के 1158 सदस्यों के लिए तीन हजार से अधिक प्रत्याशी थे, जिनमें बयासी निर्दलीय, और शेष, सैंतीस दलों द्वारा नामित थे। सभी निर्दलीय उम्मीदवार सेना द्वारा समर्थित थे। जो दो सबसे बड़ी पार्टियां थीं उनमें एक, थीन सीन के नेतृत्व वाली यूएसडीपी थी, जिसे सेना का समर्थन हासिल था, और दूसरी थी नेशनल यूनिटी पार्टी, जिसके नेता उपसेनापति तुनयी थे। किसी भी लिहाज से चुनावी नतीजा चौंकाने वाला नहीं रहा। अंतर सिर्फ यह रहा कि सैन्य प्रशासकों के स्थान पर सेना समर्थित थीन सीन की सरकार अस्तित्व में आ गई।
कुल मिलाकर फौजी बूटों की धमक कायम रही। अब जब लोकतंत्र के पक्ष में बयार बहती साफ दिख रही है तो निस्संदेह म्यांमा की तस्वीर बदलने की उम्मीद बढ़ गई है। हालांकि यक्ष प्रश्न अब भी है कि क्या फौजी हुकुमत इस जनादेश का सम्मान करेगी? सेना क्या नागरिक अधिकारों के प्रति संवेदनशील होगी? कहना अभी मुश्किल है। लेकिन अस्सी फीसद मतदाताओं की उत्साहपूर्ण भागीदारी बताती है कि लोकतंत्र की बहाली को लेकर जनता की उम्मीदें सातवें आसमान पर हैं। म्यांमा के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे लोगों की काफी संख्या है जिन्होंने जीवन में पहली बार वोट डाला। वैसे माना जा रहा है कि अगर सू की को तनिक भी अंदेशा होता कि सेना सिर्फ दिखावे के लिए चुनाव करा रही है तो शायद वह 2010 के चुनाव की तरह इस बार भी बहिष्कार करतीं। लेकिन उन्होंने इस बार वैसा नहीं किया। उन्होंने लोकतंत्र की स्थापना के लिए चुनाव में हिस्सेदार बनना और जनता के बीच जाना जरूरी समझा।
शानदार ऐतिहासिक जीत से अभिभूत सू की को उम्मीद है कि यह जीत लंबे समय से दमन के शिकार म्यांमा में एक नए युग की शुरुआत करेगी। लेकिन इसके लिए सैन्य प्रशासन को भी सूझ-बूझ दिखानी होगी। इसलिए कि सदन में उसके लिए पच्चीस फीसद सीटें आरक्षित हैं और अगर वह रचनात्मक भूमिका का निर्वाह नहीं करेगा तो फिर लोकतंत्र को पंख लगना मुश्किल होगा। म्यांमा के सैन्य प्रशासकों को समझना होगा कि लोकतंत्र में ही म्यांमा के लोगों का विकास और भविष्य सुरक्षित है।
म्यांमा की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक छाप धूमिल पड़ती गई है। उसकी वित्तीय दशा भी खराब है। कभी म्यांमा उपजाऊ भूमि और धान की अपनी खेती के लिए जाना जाता था। दूसरे देशों को चावल निर्यात करता था। लेकिन आज उसकी अर्थव्यवस्था रसातल में है। बदहाल कृषि के कारण चावल तक का आयात करना पड़ रहा है। म्यांमा सागौन की लकड़ियों के लिए दुनिया भर में विख्यात है। लेकिन उसकी तस्करी चरम पर है। कच्ची अफीम के उत्पादन से उसकी आय जरूर बढ़ी है। लेकिन उसे इसकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है। यानी देश के नौजवान नशाखोरी के लती बनते जा रहे हैं। परिवार विघटित हो रहे हैं। समाज अराजकता की ओर बढ़ रहा है। इन सभी समस्याओं की जड़ म्यांमा का सैनिक शासन ही है जो लोकतंत्र पर कुंडली मार बैठा है।
लोकतंत्र को अपनाए बगैर म्यांमा को अंतरराष्ट्रीय मदद नहीं मिलने वाली। म्यांमा के सैन्य प्रशासकों को समझना होगा कि लोकतंत्र की उदार व्यवस्था में ही विकास की अवधारणाएं पल्लवित-पुष्पित हो सकती हैं। कृषि और उद्योग-धंधों का विकास तभी होगा जब वहां निवेश बढ़ेगा। पर यह तभी संभव होगा जब म्यांमा फौजी खोल उतार कर लोकतंत्र का जामा पहनेगा। पर लोकतंत्र की बहाली के साथ-साथ सू की के सामने कई चुनौतियां भी होंगी। बहुत सारे जनजातीय समाजों वाले इस देश में कई बरस से जातीय टकरावों और हिंसा का लावा रह-रह कर फूटता रहा है। तानाशाही हुकूमत में बहुत कुछ परदे के पीछे रह जाता था। दुनिया को तभी पता चलता था जब कोई बड़ी घटना हो। पर अब जातीय तनाव और हिंसा की घटनाएं छिपी नहीं रहेंगी।
सू की के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वे देश को सामाजिक शांति और स्थायित्व की राह पर कैसे ले जाएं। वनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन से अलग म्यांमा के विकास का नया मॉडल भी खड़ा करना होगा। दुनिया की बड़ी ताकतों में केवल चीन ने जुंटा का साथ दिया। बदले में वहां चीन को अपने पैर पसारने का खूब मौका मिला और निवेश से लेकर कूटनीतिक तक, म्यांमा ने अपने को चीन पर आश्रित बना लिया। सू की के सामने एक चुनौती विदेश नीति के मोर्चे पर भी होगी कि म्यांमा किसी तरफ झुका हुआ नहीं है। (अरविंद जयतिलक)