अतुल कनक
आज हालत यह है कि मिथिला, उत्तराखंड और दक्षिण-पूर्वी राजस्थान जैसे क्षेत्र जहां बहुत-सी क्षेत्रीय नदियां बहती हैं, भूजल की कमी से जूझ रहे हैं। भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में यही स्थिति है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सैंतीस प्रमुख जल स्रोतों में से एक दर्जन से अधिक का जलस्तर चिंतनीय स्थिति तक गिर गया है।
पिछले दिनों संसदीय समिति की एक रिपोर्ट में भूजल के गिरते स्तर पर चिंता जताई गई। ऐसा नहीं है कि इस मसले पर चिंता पहली बार जताई गई हो, लेकिन हर बार किसी जिम्मेदार व्यक्ति, संस्था या समिति द्वारा जताई गई चिंता यह तो साबित करती है कि भूजल बचाने के लिए गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है।
कहने को दुनिया के दो तिहाई हिस्से में पानी है, फिर भी पानी को लेकर हर तरफ अफरातफरी का माहौल है। हालांकि पृथ्वी की सतह पर मौजूद जल का केवल दो फीसद हिस्सा ही मनुष्य अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए काम में ला सकता है। बाकी जल लवणीय है। इसलिए मनुष्य अपनी आवश्यकता के लिए उस पानी की उपलब्धता पर निर्भर है, जो जमीन की सतह के नीचे पाया जाता है।
मीठे पानी के स्रोत के रूप में सबसे ज्यादा इस्तेमाल भूजल का ही होता है। एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में दो सौ करोड़ से ज्यादा लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों और सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भर हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि दुनिया की बीस फीसद से ज्यादा आबादी भूजल से सिंचित फसलों पर निर्भर है। ऐसे में भूजल के संवर्द्धन और संरक्षण की दिशा में विशेष प्रयास होने चाहिए थे। लेकिन दुर्भाग्य से भूजल के अधिकाधिक दोहन की संभावनाओं को तो तलाशा गया, लेकिन उन परंपराओं और साधनों को नजरअंदाज कर दिया गया जो भूजल स्तर को बनाए रख सकते थे।
भूजल संरक्षण में सबसे अधिक योगदान वर्षा का होता है। पुराने जमाने में वर्षा जल संग्रहण के लिए तालाब, कुएं, बावड़ी और कुंड होते थे। इन जल स्रोतों में सहेजा गया वर्षा जल न केवल लोगों की सालभर की जरूरतें पूरी करता था, बल्कि उनमें संचित पानी धरती में रिस कर भूजल का स्तर भी बढ़ाता था। लेकिन आजादी के बाद कथित विकास के नाम पर अधिकांश परंपरागत जल स्रोतों को तोड़ दिया गया।
आज हालत यह है कि मिथिला, उत्तराखंड और दक्षिण- पूर्वी राजस्थान जैसे क्षेत्र जहां बहुत-सी क्षेत्रीय नदियां बहती हैं, भूजल की कमी से जूझ रहे हैं। भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में यही स्थिति है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सैंतीस प्रमुख जल स्रोतों में से एक दर्जन से अधिक का जलस्तर चिंतनीय स्थिति तक गिर गया है। रिपोर्ट के मुताबिक भूजल के दोहन की गति ऐसी ही रही और जमीन के अंदर के पानी को सहेजने पर ध्यान नहीं दिया गया तो सन 2050 तक दुनिया के आधे से अधिक भूजल स्रोत सूख जाएंगे।
भारत में भूजल का सर्वाधिक दोहन किया जाता है। आंकड़ों के अनुसार भारतीय हर वर्ष दो सौ तीस घन किलोमीटर से अधिक जल जमीन से खींच लेते हैं। सारी दुनिया में उपयोग किए जाने वाले भूजल का यह एक चौथाई हिस्सा है। उत्तर भारत में भूजल 5400 करोड़ घन मीटर सालाना की दर से घट रहा है। भूजल के गिरते स्तर पर नीति आयोग भी चिंता जता चुका है।
नीति आयोग की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि भूजल में गिरावट का यही क्रम बना रहा तो सन 2030 तक भारत में बड़ा जल संकट खड़ा हो सकता है, क्योंकि दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद सहित देश के इक्कीस प्रमुख शहरों में भूजल खत्म होने के कगार पर पहुंच जाएगा। चंडीगढ़, पंजाब, पुदुचेरी, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, केरल और मेघालय में भी भूजल की स्थिति बहुत अच्छी नहीं पाई गई।
पर्यावरण परिवर्तन से जुड़े विविध प्रसंगों का अध्ययन करने और तदनुसार नीति बनाने के लिए अपनी सिफारिशें देने वाले ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज’ ने कुछ समय पहले अपनी रिपोर्ट में आगाह किया था कि सन 2050 तक दुनिया की आबादी दस अरब के करीब हो जाएगी। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर अधिक उत्पादन के लिए उद्योगों और कृषि पर दबाव बढ़ेगा और लोग अपनी जरूरतों के लिए अधिक जल का उपयोग भी करेंगे।
ऐसे में यदि नीतियों में बदलाव नहीं किया गया और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की मर्यादा को नहीं समझा गया तो भूजल संकट और गहरा जाएगा। इस रिपोर्ट में दक्षिण-पूर्व एशिया के मेकांग डेल्टा के कुछ हिस्सों की खेती का उदाहरण दिया गया, जहां सिंचाई के लिए अधिक पानी की जरूरत होने पर धान की फसलों की खेती को छोड़ दिया गया था और वैकल्पिक तौर पर नारियल की खेती शुरू कर दी गई थी।
इसके उलट भारत में सत्तर के दशक के बाद से ही लोगों को जल उपलब्ध कराने के लिए नलकूप खुदवाए गए और भूजल का असीमित दोहन किया जाने लगा। यह आज भी जारी है। इसी का नतीजा है कि जिन इलाकों में केवल चार-पांच फुट की खुदाई पर ही पानी मिल जाता था, उन इलाकों में भी पानी के लिए पाताल की सीमाओं को खंगालना पड़ रहा है।
भूजल के दोहन की प्रक्रिया से एक और बड़ा संकट खड़ा हो गया है और यह है कार्बन उत्सर्जन का बढ़ना। जबकि दुनिया भर में पर्यावरणविद सरकारों पर शून्य कार्बन उत्सर्जन नीति को बढ़ावा देने के लिए दबाव डाल रहे हैं। भूजल दोहन के लिए जिस पंप का उपयोग किया जाता है, उसके इस्तेमाल के लिए चाहे बिजली का उपयोग हो या जैविक र्इंधन का, वह कार्बन उत्सर्जन का कारक होता है।
इसके अलावा अधिकांश भूजल स्रोतों में रेत, बजरी, मिट्टी और कैल्साइट होते हैं। हाइड्रान आयन केल्साइट के साथ क्रिया करके बाईकार्बोनेट और कैल्शियम बनाते हैं। भूजल जब वायुमंडल के संपर्क में आता है तो कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जित होती है और कैल्साइट गाद के रूप में जमा हो जाता है। देश में होने वाले कार्बन डाईआक्साइड के कुल उत्सर्जन में भूजल दोहन प्रक्रिया का भी बड़ा हिस्सा है। दुनिया भर में भूजल दोहन से होने वाले कुल कार्बन उत्सर्जन की मात्रा 3.2 करोड़ टन प्रतिवर्ष से 13.1 करोड़ टन प्रतिवर्ष आंकी गई है।
सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में हरित क्रांति योजना को बढ़ावा देने के लिए नलकूपों की खुदाई का काम शुरू हुआ और फिर बस्तियों में बिना किसी नियंत्रण के नलकूप खोदे जाने लगे। पानी का स्तर पाताल तक पहुंच जाने के बावजूद लोग धरती के अंदर का पानी उलीचते रहे हैं। जबकि जीवन में पानी के महत्त्व के कारण ही उसे बहुत पवित्र माना गया है। लेकिन हमारा दौर पानी के सदुपयोग के प्रति बहुत लापरवाह हो गया है।
महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है कि अत्यधिक परिचय के बाद व्यक्ति की अवज्ञा होने लगती है (अति परिचयाद् अवज्ञा भवति)। जमीन के अंदर का पानी सरलता से उपलबध होने लगा तो लोग उसका महत्त्व ही भूल गए। इसीलिए आज भूजल दोहन पर नियंत्रण की जरूरत बताई जा रही है। जिन स्थानों पर स्थानीय निकाय नलों द्वारा जल आपूर्ति करते हैं, उन इलाकों में नलकूप प्रतिबंधित होने चाहिए।
जहां नलकूप लगाना जरूरी लगे, वहां भी नलकूपों के उपयोग पर नियंत्रण की एक प्रभावशाली प्रणाली होनी चाहिए। सरकारों को वर्षा जल संरक्षण, भूजल संवर्द्धन और भूजल संरक्षण के संबंध में प्रभावशाली नीतियां बनानी चाहिए और उन नीतियों/ नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक उत्तरदायी तंत्र विकसित करना चाहिए। यदि अब भी हम भूजल संरक्षण के प्रति सजग और संवेदनशील नहीं हुए तो हमें पंचतंत्र की एक कहानी के उसी नायक की तरह पछताना होगा, जिसने ज्यादा से ज्यादा संपत्ति अर्जित करने के लालच में रोज सोने का एक अंडा देने वाली मुर्गी का पेट चीर दिया था। अपने स्वार्थ के चाकू से धरती के गर्भ को चीर कर सभ्यता के विकास का ढोल कब तक पीटेंगे?