सुशील कुमार सिंह
deepening crisis of carbon emissions यही कारण है कि सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले अमेरिका जैसे देश औद्योगिकीकरण और विकास को सर्वोपरि लक्ष्य बनाए हुए हैं। जब कभी विकास की ओर नई प्रगति होती है तो उसका सीधा असर पर्यावरण पर पड़ता है और यही असर एक आदत का रूप ले ले, तो दुष्प्रभाव की पूरी संभावना बन जाती है। ऐसे दुष्प्रभाव से समय रहते निपटा न जाए तो पृथ्वी और उसके जीव अस्तित्व को लेकर एक नई चुनौती से गुजरने लगते हैं।
आज हम धरतीवासी इसी संकट का सामना कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन ने ऐसी ही चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। चिंता की बात यह है कि कार्बन उत्सर्जन को लेकर शिखर सम्मेलन, सेमिनार और बैठकों के दौर भले ही कितने मजबूती के साथ होते रहे हों, लेकिन इस मामले में लगाम लगाना तो दूर की बात है, इसका स्वरूप लगातार घातक रूप धारण करता जा रहा है।
मिस्र के शर्म अल-शेख में चल रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (काप-27) में रखी गई रिपोर्ट से पता चला कि साल 2022 में वायुमंडल में चार हजार साठ करोड़ टन कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन हुआ। इतना सघन कार्बन उत्सर्जन यह संकेत करता है कि तापमान वृद्धि पर काबू पाना मुश्किल होगा। रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट हुआ कि 2019 में यही कार्बन उत्सर्जन तुलनात्मक रूप से थोड़ा अधिक था।
कोरोना महामारी के दौरान जब दुनिया के ज्यादातर देशों में पूर्णबंदी लगी थी, तब कार्बन उत्सर्जन में न केवल गिरावट आई थी, बल्कि आसमान कहीं अधिक साफ और प्रदूषण मुक्त देखने को मिला था। वायुमंडल में इतने व्यापक रूप से बढ़े कार्बन-डाइ आक्साइड से 2015 के पेरिस जलवायु समझौते में किए गए वादों और इरादों को भी झटका लगा है।
दरअसल कार्बन उत्सर्जन को लेकर दुनिया के देशों में कभी एकजुटता देखने को मिली ही नहीं। विकसित और विकासशील देशों में इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी व्यापक पैमाने पर रहे हैं। इतना ही नहीं, कार्बन उत्सर्जन को लेकर सभी देश बढ़-चढ़ कर अंकुश लगाने की बात करते रहे और हकीकत में नतीजे इसके विपरीत बने रहे। पृथ्वी साढ़े चार अरब साल पुरानी है और कई कालखंडों से गुजरते हुए मौजूदा पर्यावरण में है।
मगर बेलगाम कार्बन उत्सर्जन से इसके सिमटने की संभावनाएं समय से पहले की ओर इशारा कर रही हैं। पड़ताल बताती है कि पूर्व औद्योगिक काल (1850 से 1900) में औसत की तुलना में पृथ्वी की वैश्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई, जिसके चलते पूरी दुनिया में कम-ज्यादा सूखा, जंगलों में आग और बाढ़ के परिदृश्य उभरने लगे। बीसवीं सदी में औद्योगिकीकरण तेजी से बढ़ा और इक्कीसवीं सदी में यह बेलगाम हो गया।
हालांकि दुनिया में कई देश ऐसे भी हैं जो कार्बन उत्सर्जन के मामले में तनिक मात्र भी योगदान नहीं रखते, मगर कीमत तो उन्हें भी चुकानी पड़ रही है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि साल 2021 में कुल कार्बन उत्सर्जन के आधे हिस्से में चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश शामिल थे। इस मामले में भारत का योगदान महज सात फीसद है, जबकि चीन इकतीस फीसद कार्बन उत्सर्जन करता है जो अपने आप में सर्वाधिक है। हालांकि भारत में साल 2022 में उत्सर्जन में छह फीसद की वृद्धि हुई है और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण कोयले का इस्तेमाल रहा।
कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि अमेरिका सहित बाकी दुनिया में भी रही, मगर तुलनात्मक फीसद कम है, जबकि चीन और यूरोपीय संघ में 2021 में मुकाबले क्रमश 0.9 व 0.8 फीसद की गिरावट दर्ज की गई। एक ओर जहां कार्बन उत्सर्जन के चलते वैश्विक तापमान डेढ़ डिग्री की बढ़ोत्तरी आगामी नौ वर्ष में संभव है, वहीं दुनिया इस मुहिम में पहले से ही जुटी है कि सदी के आखिर तक तापमान बढ़ोत्तरी को डेढ़ डिग्री से ज्यादा नहीं पहुंचने दिया जाए। साफ है कि वैश्विक तापमान को रोकने का प्रयास जितना सैद्धांतिक दिखता है, उतना व्यावहारिक है नहीं।
पिछले साल ग्लासगो के छब्बीस वें जलवायु सम्मेलन (काप-26) में कहा गया था कि 2050 तक कार्बन उत्सर्जन की सीमा को शून्य करने के लक्ष्य को हासिल करने का एक मौका है। विकासशील देशों से यह उम्मीद की जाती रही है कि वे कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। हालांकि भारत इस मामले में बेहतर सोच रखता है, मगर अकेले इसकी कोशिश से इस बड़Þे संकट से मुक्ति नहीं पाई जा सकती। पेरिस जलवायु सम्मेलन-2015 में दुनिया के पर्यावरण संरक्षण हेतु कार्बन उत्सर्जन को शून्य पर लाने की सघन और बहुआयामी सहमति बनी थी।
बावजूद इसके मानवजनित गतिविधियों ने ऐसे समझौतों को दरकिनार किया है और बढ़ते तापमान का बड़Þा सामाजिक और आर्थिक असर देखा जा सकता है। इसी समझौते के लक्ष्य को हासिल करने के लिए ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 2030 तक पैंतालीस फीसद कम करना भी था और सदी के अंत तक इसमें पूरी तरह कमी की बात थी।
मतलब साफ था कि कार्बन उत्सर्जन जो मानवजनित है, उसे शून्य पर लाना है, यानी जितना प्राकृतिक तौर पर सोखा जा सके उतना ही कार्बन उत्सर्जन हो। बड़ी बातें बड़ी वजहों से पैदा हों तो उतनी नहीं खटकती जितना कि बड़े-बड़े वायदे तो हों, मगर नतीजे सिफर हों। आंकड़े यह भी बताते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका ने 1990 से 2014 के बीच अकेले भारत को दो सौ सत्तावन अरब डालर का नुकसान पहुंचाया। जबकि दुनिया में यही नुकसान 1.9 लाख डालर से अधिक है। इसमें सबसे ज्यादा ब्राजील को तीन सौ दस अरब डालर का नुकसान हुआ।
अमेरिका जैसे देश अमेरिका प्रथम की नीति पर चलते हैं, जबकि भारत जैसे देश ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को अपनाते हैं। यही कारण है कि सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले अमेरिका जैसे देश औद्योगिकीकरण और विकास को सर्वोपरि लक्ष्य बनाए हुए हैं। जबकि तीसरी दुनिया और विकासशील देश आर्थिक कठिनाइयों के चलते कार्बन उत्सर्जन में तो फिसड्डी हैं ही, साथ ही विकास के मामले में भी संघर्ष करते रहते हैं।
भारत की अपनी चिंताएं हैं। एक तरफ जहां करोड़ों लोगों को भुखमरी और गरीबी से बाहर निकालना है जिसके लिए आर्थिक विकास अपरिहार्य है, तो दूसरी ओर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में भी कमी लाना है। ये दोनों दृष्टिकोण एक-दूसरे के अंतर्विरोधी हैं। यही कारण है कि उष्णकटिबंधीय देश भारत सौर और पवन ऊर्जा के विस्तार से अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का रास्ता भी खोज रहा है। इसके लिए भारत की पहल पर भी उष्णकटिबंधीय देशों को एकजुट करने का प्रयास भी हुआ। कार्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर सम्मेलनों में साहस दिखाने वाले देशों की कमी नहीं है, मगर देश के भीतर आर्थिक विकास की आपा-धापी के चलते वायदों पर भी खरे नहीं उतर पाते हैं।
गौरतलब है कि जैसे आम जीवन में बजट बिगड़ जाए तो जीवन की जरूरतें पूरी करने में कठिनाई होती है, वैसे ही कार्बन बजट में असंतुलन हो जाए तो पृथ्वी पर अस्तित्व की लड़ाई खड़ी हो जाती है। कार्बन बजट से आशय है वातावरण में कार्बन-डाई आक्साइड की वह मात्रा जिसके बाद कार्बन बढ़ने से पृथ्वी का तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस से अधिक होने लगेगा।
यदि इससे वाकई बचना है तो वैश्विक उत्सर्जन में हर साल औसतन एक सौ चालीस करोड़ टन की कटौती करनी होगी तब कहीं जाकर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन के मामले में शून्य तक पहुंचा जा सकेगा। कार्बन उत्सर्जन से उत्पन्न समस्या निजी नहीं है और दुनिया के देश भले ही आर्थिक संपन्नता और सभ्यता के चरम पर हों, मगर पृथ्वी को उसी की भांति बनाए रखने में यदि सफल नहीं होते हैं तो दुनिया को इसकी बड़ी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना होगा।