संजय वर्मा
विकसित देशों में तो अब यह समझ बन गई है कि वे किसी भी तरह का प्रदूषण अपने यहां पैदा नहीं होने देंगे। इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ को लेकर वहां ठोस नीतियां अपनाई जा रही हैं। पर भारत जैसे देशों की समस्या यह है कि यहां न तो जनता के स्तर पर ऐसी कोई जागरूकता है और न सरकारों को इसकी चिंता है।
आधुनिक होती जा रही मानव सभ्यता की एक बड़ी समस्या यह है कि वह कई तरह का कचरा पैदा कर रही है। यह कचरा वैचारिक भी है और भौतिक भी। वैचारिक कचरे की असंख्य मिसालें सोशल मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर हर वक्त मिलती रहती हैं। पता नहीं कि इस कचरे से सभ्यता को कभी निजात मिल भी पाएगी या नहीं। पर भौतिक कचरे के तमाम रूपों में से एक के इलाज के बारे में कुछ कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। यह है इलेक्ट्रॉनिक कचरा, जिससे निपटने का एक बेहतरीन उदाहरण टोक्यो ओलंपिक खेलों में पेश किया गया। ओलंपिक में विजेता खिलाड़ियों को जो पदक दिए गए, वे सभी कबाड़ हो चुके मोबाइल (स्मार्टफोन) और लैपटॉप से बने थे। सोने, चांदी और कांसे के ऐसे करीब पांच हजार पदक बनाए गए जो तीन सौ उनतालीस खिलाड़ियों व टीमों को दिए गए।
ये मोबाइल फोन और लैपटॉप जापानियों से ‘टोक्यो मेडल प्रोजेक्ट’ के तहत जमा किए गए थे। सिर्फ मेडल ही नहीं, बल्कि ओलंपिक की मशाल भी उस एल्युमिनियम के ऐसे कबाड़ से बनाई गई जिसका इस्तेमाल 2011 में जापान में आए भूकम्प के दौरान अस्थायी घरों को बनाने में हुआ था। ओलंपिक के आयोजन से करीब चार साल पहले वर्ष 2017 में शुरू किए गए टोक्यो मेडल प्रोजेक्ट में जापान के नब्बे फीसद शहरों से अस्सी टन वजन के करीब हजारों पुराने स्मार्टफोन और लैपटॉप जमा किए थे। इनके पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) से बत्तीस किलो सोना, करीब तीन सौ तीस किलो चांदी और लगभग दो हजार दो सौ पचास किलो तांबा निकाला और पदक बनवाए गए। इस तरह टोक्यो ओलंपिक दुनिया का पहला ऐसा खेल आयोजन बन गया, जिसमें दिए गए सभी पदक इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ से बने थे।
हालांकि इससे पहले भी छिटपुट स्तर पर ऐसे प्रयोग हुए हैं। साल 2016 के रियो ओलंपिक में तीस फीसद सोने और चांदी के पदकों में कबाड़ हो चुकी कारों से निकली सामग्री का इस्तेमाल हुआ था। ओलंपिक में किए जा रहे ऐसे प्रयोगों से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि अगर इलेक्ट्रॉनिक कचरे से निपटने के गंभीर प्रयास शुरू नहीं किए गए, तो यह प्राणी जगत लिए बड़ा खतरा बनने वाला है। यह खतरा कितना बड़ा हो सकता है, इसका आकलन चौंकाने वाला है। एक आकलन में बताया गया है कि वर्ष 2019 में विश्व स्तर पर रिकॉर्ड पांच करोड़ छत्तीस लाख टन कचरा पैदा हुआ जो क्वीन मैरी-2 जैसे आकार वाले साढ़े तीन सौ क्रूज जहाजों के वजन के बराबर है। समान रूप से वितरित करने पर इलेक्ट्रॉनिक कचरे की यह मात्रा लगभग साढ़े सात किलो प्रति व्यक्ति ठहरती है।
समस्या का एक बड़ा पहलू यह है कि दुनिया में जिस तरह इलेक्ट्रॉनिक सामान की मांग बढ़ती जा रही है, उससे इसके कचरे की मात्रा में हर दिन इजाफा हो रहा है। खासतौर से स्मार्टफोन बड़ी मुसीबत साबित हो रहे हैं। हालात ये हैं कि दुनिया में मोबाइल फोनों की संख्या इंसानी आबादी से ज्यादा हो चुकी है। भारत, चीन, इंडोनेशिया, अमेरिका आदि देशों में स्मार्टफोनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। कोरोना काल में तो स्मार्टफोन, टैबलेट और लैपटॉप की मांग आॅनलाइन पढ़ाई जैसी विवशताओं के कारण और भी बढ़ी है। इसके अलावा इनके नए-नए संस्करणों के प्रति लोगों की चाहत ने भी मुश्किल खड़ी कर दी है। लोग कुछ ही महीनों में गैजेट बदलते रहते हैं।
बाजार में स्मार्टफोन का नया मॉडल आते ही पुराना मोबाइल कबाड़ में फेंक देते हैं और नया ले लेते हैं। इस मामले में चीन और भारत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जहां हर मुल्क में डेढ़ अरब से ज्यादा आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत ने चार साल पहले 2017 में एक अरब मोबाइलधारकों का आंकड़ा छुआ था। जबकि चीन यह आंकड़ा वर्ष 2012 में ही पार चुका है। आंकड़ों के मुताबिक अभी दुनिया में सिर्फ चीन और भारत ऐसे देश हैं, जहां मोबाइल धारकों की संख्या डेढ़ अरब के पार है। दावा किया जाता है कि इन दो देशों की बदौलत यह दुनिया आठ अरब मोबाइलधारकों का मोहल्ला बन चुकी है। इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन (आइटीयू) का कहना है कि भारत, चीन, रूस, ब्राजील सहित करीब दस देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है।
इसमें कोई शक नहीं कि मोबाइल और लैपटॉप जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण संचार और कामकाज की मौजूदा जरूरतों के लिहाज से एक जरूरी साधन बन गए हैं। इनके बिना आज की दुनिया का काम नहीं चलता। कोरोना काल में यह बात और भी मुखरता से स्पष्ट हुई है। इन उपकरणों की बदौलत ढेर सारे काम और मनोरंजन के प्रबंध घर बैठे हो जा रहे हैं। लेकिन तरक्की और सुविधा के ये प्रबंध हमें इतिहास के एक ऐसे अनजाने मोड़ पर ले आए हैं जहां हमें यह नहीं मालूम कि आगे कितना खतरा है।
हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है। जैसे आठ साल पहले 2013 में इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आइटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग आॅफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल आठ लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के पैंसठ शहरों का योगदान है, पर सबसे ज्यादा ई-कबाड़ देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। दुनिया के कुछ दूसरे शहरों की तुलना में भारतीय शहर थोड़ा पीछे हो सकते हैं, लेकिन यह कोई संतोष की बात नहीं है।
असली दिक्कत ऐसे ई-कबाड़ से होने वाले पर्यावरणीय और मानवीय नुकसान की है। चाहे मोबाइल फोन हों, लैपटॉप या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण व उनकी बैटरियां आदि, इन सभी में इस्तेमाल होने वाले धात्विक, प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुल कर नष्ट नहीं होते। अंदाजा सिर्फ इससे लगा लें कि एक मोबाइल फोन की बैटरी ही छह लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा और फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लैड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होती है। कचरे में पहुंचनी वाली ये सारी चीजें अंतत: इंसानों और अन्य जीवों में कैंसर जैसी कई गंभीर बीमारियां पैदा करती हैं।
देश के कई इलाकों में विदेशों से ई-कचरा मंगा कर उनसे उपयोगी चीजें निकालने का कारोबार भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। यह हमारे लिए भविष्य का कम बड़ा संकट नहीं है। पुराने लैपटॉप, डेस्कटॉप, मोबाइल फोन, बैटरियां, कंडेसर और सीडी व फैक्स मशीनों को रसायनों डुबो कर उनसे थोड़ी-बहुत मात्रा में सोना, चांदी, प्लेटिनम आदि धातुओं को निकालने की कोशिश हमारे पानी और जमीनों को प्रदूषित कर रही है। यह कोशिश परोक्ष रूप से जानलेवा ही साबित होती है। विकसित देशों में तो अब यह समझ बन गई है कि वे किसी भी तरह का प्रदूषण अपने यहां पैदा नहीं होने देंगे। इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ को लेकर वहां ठोस नीतियां अपनाई जा रही हैं। पर भारत जैसे देशों की समस्या यह है कि यहां न तो जनता के स्तर पर ऐसी कोई जागरूकता है और न सरकारों को इसकी चिंता है। तकनीक के गुलाम होने के साथ-साथ हम पर्यावरण और सेहत की बलि लेने वाले इलेक्ट्रॉनिक कचरे की तरफ अगर आज निगाह नहीं डालेंगे तो भविष्य में आने वाली मुसीबतों से पार पाना आसान नहीं होगा।