क्या उसने कोरोना के नाम पर नई अर्थव्यवस्था बनाने के लिए टीके की आड़ में कोई विफल प्रयोग किया है? क्या उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी ठेंगा दिखाया है? शायद इसका जवाब वही दे सकता है, जो कभी मिल पाएगा या नहीं, कहना मुश्किल है। मगर यह वहां की सरकार के लिए एक बड़ी असमंजस वाली स्थिति है।
इन दिनों चीन में फिर से कोरोना की लहर लौट आई है। बढ़ते मामलों के मद्देनजर की गई पूर्णबंदी के दौरान एक चिंगारी से भड़का विद्रोह पूरे चीन में फैल गया। इसमें शी जिंगपिंग की शून्य कोविड नीति और उनके कामकाज के तौर-तरीकों से नाराज लोगों के प्रदर्शन से अलग परेशानी खड़ी हो गई। करीब दस दिन पहले उरुमकी में पूर्णबंदी के दौरान एक रिहाइशी इमारत में लगी आग से दस लोगों की मौत हो गई।
उसके बाद नागरिकों का गुस्सा फूट पड़ा और हालात बेकाबू होते चले गए। लोगों का मानना है कि पूर्णबंदी के कारण उस आग को बुझाने में बाधा आई, जिसे लेकर लोगों की नाराजगी बढ़ गई और बेजिंग, शंघाई सहित दर्जन भर से ज्यादा शहरों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। यों तो चीन में विरोध का अपना एक अलग इतिहास है, मगर इस बार के प्रदर्शन थोड़े अलग हैं।
आनन-फानन में पहले बेहद सख्ती और अब एकाएक थोड़ी ढिलाई का फैसला बताता है कि शायद शी जिंगपिंग की नीति लोगों की हिफाजत से ज्यादा तानाशाही का प्रतीक बन गई। इसी कारण लोगों को सड़कों पर उतरना पड़ा। चीनी उप-प्रधानमंत्री सुन चुनलान, जो कोविड से लड़ने की अगुआई कर रहे थे, ने संकेत दिए कि ओमीक्रान ज्यादा संक्रामक होने के बावजूद कम खतरनाक है। तो क्या वहां की जनता के धैर्य की परीक्षा तो नहीं ली जा रही थी?
हालांकि चीन ने अपने सभी नागरिकों को बहुत पहले टीके की दो खुराक लगवा दी थी, फिर भी कोरोना काबू नहीं हुआ, क्योंकि उसके सिनोफार्म कंपनी द्वारा बनाए टीके के बेअसर होने की बातें सामने आर्इं। अब वहां स्थिति यह है कि चीनी टीके की दूसरी और तीसरी खुराक ले चुके लोग भी तेजी से संक्रमित होने लगे। फिर शी जिनपिंग की बेचैनी बढ़ी और कड़ाई करना उनकी मजबूरी बन गई, जिसके नतीजे सामने हैं। चीन में वहां के बने छह तरह के टीके इस्तेमाल हो रहे हैं। इनमें दो टीके कोविलो और वोरो सेल सिनोफार्म कंपनी बनाती है।
अब तो दुनिया भर में आशंका जताई जाने लगी है कि चीन ने कहीं कोरोना के टीके भी नकली बना कर बड़ा खेल तो नहीं कर दिया? वहां के सेंटर फार डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के निदेशक गाओ फू ने खुद माना है कि वहां उपयोग हो रहे देशी टीकों में से ज्यादातर बेअसर साबित हुए। अब इसके अंतरराष्ट्रीय मायने क्या लगाए जाएंगे यह तो नहीं मालूम, लेकिन इतना जरूर पता है कि जिस तरह दुनिया के तमाम देशों ने कोरोना के साथ लड़ कर नई राह पकड़ी, उसमें चीन दुनिया से अलग-थलग पड़ गया, जिसका नतीजा सामने है।
जब दुनिया भर में कोरोना महामारी उफान पर थी, तब चीन कहीं इस मुगालते में तो नहीं था कि कोरोना नियंत्रण उसके लिए चुटकियों का खेल है? सबसे पहला मामला हुबेई प्रांत के वुहान में आया था और तब चीन पर कोविड को दबाने, फैलाने, यहां तक कि प्रयोगशाला में पनपाने के तमाम आरोप लगे थे। शायद वही चूक या अहं आज चीन के सामने चुनौती बन कर खड़ा है। मान भी लिया जाए कि कोरोना चीन की देन है, तो अब तक इस पर काबू न कर पाना और अपने लिए ही महामारी बना लेना शी जिंगपिंग सरकार के लिए गले की फांस जैसा है।
कोरोना का असर पूरी दुनिया ने झेला। सभी ने मान लिया है कि आगे इसी विषाणु के साथ जीना होगा, और जिसकी तैयारी भी कर ली। मगर चीन अपनी अकड़ में रहा। यही वजह है कि बीते तीन साल में बंदी, कड़े प्रतिबंधों, जांच अभियानों और बदतर एकांतवास केंद्रों में रह रहे लोग इतने बेबस और लाचार हो गए हैं कि उनकी सहनशीलता जवाब दे गई है। इसी के बाद कोविड बंदिशों के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए। इस सवाल का जवाब चीन सरकार के पास भी नहीं है कि शी जिनपिंग की शून्य कोविड नीति कब तक सहनी होगी?
क्या चीन ने अपने नागरिकों के साथ धोखा किया है? क्या उसने कोरोना के नाम पर नई अर्थव्यवस्था बनाने के लिए टीके की आड़ में कोई विफल प्रयोग किया है? क्या उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को भी ठेंगा दिखाया है? शायद इसका जवाब वही दे सकता है, जो कभी मिल पाएगा या नहीं, कहना मुश्किल है। मगर यह वहां की सरकार के लिए एक बड़ी असमंजस वाली स्थिति है। शायद चीन सरकार यह भी सोच रही हो कि उस जैसा शक्ति और साधन संपन्न देश अपने यहां से पनपे इस विषाणु पर काबू नहीं कर पाएगा, तो और भी बड़ी बेइज्जती होगी।
यह सब अब आईने की तरह साफ दिख रहा है। यकीनन, चीन ऐसे दोराहे पर खड़ा है, जहां उसके पास संक्रमण रोकने के लिए न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही इस काम में अब वहां के लोगों का समर्थन है। दुनिया के दूसरे प्रभावित देशों की बात करें तो अमेरिका में कोरोना के नए संक्रमण के मामले लगभग नहीं आ रहे हैं, भारत में बहुत कम आ रहे हैं और मोतों का आंकड़ा भी बीते महीने के आखिरी हफ्ते में लगभग आधा सैकड़ा तक ही सीमित रहा।
हालात यह हैं कि जहां जिनपिंग यह आलाप भरते नहीं थक रहे हैं कि शून्य कोविड नीति से ही लोगों की जान बचाई जा सकती है, वहीं इससे लोगों के सामने तमाम आर्थिक समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। हर संक्रमित व्यक्ति को अलग रखने और कई जगह चार महीनों से लोगों के घरों में कैद रहने और खाना तथा दवा न मिलने से आक्रोश बढ़ता जा रहा है। अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमराई हुई है। लोगों के पास काम नहीं है।
कंपनियों को बेहद नुकसान हो रहा है। जहां ग्रामीण और शहरी बेरोजगारी बहुत बढ़ गई है, वहीं अतिमहत्त्वाकांक्षी तीसरी बार राष्ट्रपति बने शी जिनपिंग के लिए उनके अगले पांच वर्षों का कार्यकाल ऐतिहासिक बनाने के लिए कोई गुप्त योजना तो नहीं? अब कोरोना की चौथी लहर का खतरा सिर्फ चीन में नहीं, सिनोफार्म कंपनी के टीकों का इस्तेमाल करने वाले दुनिया के पचास से ज्यादा देशों के लिए बना हुआ है।
मगर चीन है कि देश के बदतर हालात के बावजूद वह अपनी सैन्य गतिविधियों से बाज नहीं आ रहा है। भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियां उसे फूटी आंखों नहीं सुहा रही हैं। चीन सुलग रहा है, लेकिन उसका समुद्री ताकत का विस्तार नहीं रुक रहा। अफ्रीकी देश जिबूती में सैन्य अड्डा बना चुका है, ताकि हिंद महासागर में भारतीय नौसेना के लिए नई और गंभीर चुनौतियां बने। पाकिस्तान के ग्वादर और म्यांमा के यंगून बंदरगाह से अंडमान और निकोबार पर हर वक्त निगाह रखने की नापाक कोशिशों के बीच कंबोडिया पर भी उसकी बदनीयती भरी हरकतें जारी हैं।
चरमराती अर्थव्यवस्था, भुखमरी झेलते, दवा को तरसते लोग और सड़कों पर जनविरोध दबाने के लिए टैंकों की परेड के बीच शी जिनपिंग की अपने ही नागरिकों पर जबरन नीति थोप कर नजरबंद रखने जैसे हालात कहीं अगले विश्व युद्ध के लिए उकसाने वाली चाल तो नहीं? पूरी दुनिया को पता है कि शी जिनपिंग अक्सर अपनी एकला चलो की नीति के चलते चचार्ओं में रहते हैं। माना कि कोरोना घातक है, लेकिन दुनिया के दूसरे देश कोरोना के साथ जीने की राह पकड़ चुके हैं और चीन अपना अलग राग क्यों आलाप रहा है? बस यहीं पर शक की गुंजाइश बनती है।