परमजीत सिंह वोहरा
पिछले दिनों जब भारतीयों की बचत के आधिकारिक आंकड़े घोषित हुए, तो एक बार फिर यह प्रमुखता से स्थापित हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था को सिर्फ लोगों की क्रय क्षमता से जोड़ कर देखना तर्कसंगत नहीं है। वैसे तो पुराने समय से ही भारतीय समाज में आर्थिक बचत करने की परंपरा रही है, लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में जब भौतिकवादी जीवन आर्थिक विकास का प्रतिबिंब माना जाता है, तब भी अगर आम भारतीय अपनी आर्थिक बचत के प्रति जागरूक है, तो यह निश्चित रूप से भारत के आर्थिक विकास के लिए एक अच्छा संकेत है। भारतीय अर्थव्यवस्था में अगर हम आर्थिक बचत के आंकड़ों का विश्लेषण करें, तो 2004 से 2010 तक वर्ष-दर-वर्ष आर्थिक बचत और जीडीपी का प्रतिशत लगातार बढ़ता रहा। 2010 में आर्थिक बचत 36.9 प्रतिशत थी, जो आज तक का अधिकतम स्तर है। उस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिवर्ष विकास दर भी तेजी से बढ़ रही थी।
2021-22 में आर्थिक बचत जीडीपी के तीस प्रतिशत से ऊपर रही
2011 के बाद से आर्थिक बचत के आंकड़ों में कमी देखी गई है और इसके कारणों में आर्थिक विकास की दर में कमी आना, महंगाई का ऊपरी स्तर पर चले जाना तथा शुरुआती कुछ वर्षों में देश की राजनीतिक सत्ता के प्रति असंतोष की भावना मुख्य थी। इसी बीच कोरोना महामारी ने एक वैश्विक संकट के रूप में दस्तक दी, जिसने संपूर्ण समाज के लिए आर्थिक परेशानियां भी एकाएक पैदा कर दी। 2020-21 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक बचत जीडीपी का 28 प्रतिशत थी, क्योंकि पूर्णबंदी के दौरान बड़ी मात्रा में लोगों का रोजगार चला गया था। फिर भी सकारात्मक रुख इस बात से स्पष्ट होता है कि 2021-22 में आर्थिक बचत जीडीपी के तीस प्रतिशत से ऊपर रही। यानी भारतीयों में आर्थिक बचत का रुझान लगातार बरकरार है।
भारतीयों का आर्थिक बचत करने का रुझान बड़ी तेजी से बदल रहा
जब भी आर्थिक बचत की बात होती है, तो व्यक्ति के दिमाग में दो प्रश्न एक साथ उठते हैं। पहला, शायद प्रति व्यक्ति खर्चा कम हो रहा है, इसलिए आर्थिक बचत बढ़ रही है। दूसरा, प्रति व्यक्ति वित्तीय आय बढ़ रही है, जिससे आर्थिक बचत भी बढ़ रही है। ये दोनों प्रश्न परस्पर विरोधाभासी हैं। पहला प्रश्न नकारात्मक रुख लिए है, तो दूसरा सकारात्मक सोच का है। इन सबके बीच एक बात और चकित करती है कि भारतीयों का आर्थिक बचत करने का रुझान बड़ी तेजी से बदल रहा है।
भारतीयों के रुख को किसी एक पक्ष पर अनुमानित करना बड़ा मुश्किल है। मसलन, पिछले एक दशक में घरेलू बचत का बैंकिंग जमाओं में हिस्सा बड़ी तेजी से गिरा है। यह बात वर्षों से चली आ रही इस सोच को एकाएक दरकिनार कर देती है कि भारतीयों के लिए आर्थिक निवेश की पहली प्राथमिकता बैंकों में जमा करना है। 2011 के दशक तक घरेलू बचत का अट्ठावन प्रतिशत बैंकों की जमाओं में सम्मिलित होता था, जो कि 2020-21 में घट कर अड़तीस प्रतिशत ही रह गया। अगले वर्ष 2021-22 में यह आंकड़ा तेजी से घट कर पच्चीस प्रतिशत के स्तर पर आ गया। इसका एक कारण बैंक की जमाओं पर मिलने वाले ब्याज में तेजी से आई गिरावट है। दूसरा कारण कोरोना प्रभावित वर्षों में प्रति व्यक्ति आय में आई गिरावट है।
गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से निवेश को लेकर बैंकिंग क्षेत्र मुख्य आकर्षण का केंद्र नहीं रहा है, लेकिन भारतीयों की घरेलू बचत लगातार बढ़ रही है। स्पष्ट है कि आर्थिक निवेश के कई दूसरे स्रोत लोगों की प्राथमिकता में शामिल हो रहे हैं। मसलन, कोरोना महामारी के दौरान बीमा की तरफ आकर्षण तेजी से बढ़ा। भारत में जीवन बीमा आर्थिक निवेश का सदा प्रमुख स्रोत रहा है। प्रत्येक भारतीय को जीवन बीमा में आर्थिक निवेश का विचार पारिवारिक सोच के रूप में प्राप्त होता है।
कोरोना महामारी के दौरान चिकित्सा बीमा की तरफ लोगों का रुझान एकाएक तेजी से बढ़ा, पर यह स्थायी रूप नहीं ले पाया। अगले वित्तवर्ष में ही इसमें कमी देखी गई। बीमा व्यवसाय के लिए यह बड़ी चिंता का विषय है कि क्यों भारत में आज भी बीमा का चलन बहुत कम है? कोरोना महामारी के वर्ष में जरूर यह 3.8 प्रतिशत से एकाएक बढ़ कर 4.2 प्रतिशत हो गया था। गौरतलब है कि बीमा का वैश्विक औसत आंकड़ा सात प्रतिशत है और कई विकसित देशों- अमेरिका, ब्रिटेन आदि- में तो यह दस प्रतिशत से ऊपर रहता है। बीमा कंपनियों को इस संबंध में जरूर सोचना चाहिए कि भारत में प्रीमियम की लागत इस संदर्भ में अधिक तो नहीं है?
इस बात की तस्दीक इन दिनों प्रमुखता से हो रही है कि अब भारतीयों की आर्थिक बचत का रुख बड़ी तेजी से भारतीय पूंजी बाजार की तरफ हो रहा है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2021-22 में दस लाख नए निवेशक भारतीय पूंजी बाजार से जुड़े हैं, जिन्होंने म्यूचुअल फंड में सिप (सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान) के माध्यम से आर्थिक निवेश किया।
इसमें एक वर्ष के दौरान ही घरेलू बचत का चार प्रतिशत से अधिक रुझान भारतीय पूंजी बाजार की तरफ देखने को मिला है। इसमें ‘हिस्सेदारी’ में प्रत्यक्ष निवेश तथा म्यूचुअल फंड दोनों एक मुख्य विकल्प के रूप में उभर कर सामने आए हैं। पिछले वित्तवर्ष में बड़ी संख्या में ‘आइपीओ’ में निवेश का विकल्प भी पूंजी बाजार में आर्थिक निवेश के लिए उपलब्ध था, जिनके माध्यम से कंपनियों ने बड़ी मात्रा में पूंजी जुटाई। एलआइसी का आइपीओ तो सबसे अधिक चर्चा में रहा।
नए दौर के स्टार्टअप में ‘पेटीएम’ और ‘जोमैटो’ के आइपीओ ने भी खूब चर्चा बटोरी। शायद यही मुख्य कारण था कि कोरोना काल में जब आर्थिक मंदी का दौर था, तब भी भारतीय पूंजी बाजार ने लगातार बढ़त बनाए रखी, क्योंकि उस समय बड़ी संख्या में नए निवेशक भारतीय पूंजी बाजार से जुड़े। उस दौरान वैश्विक निवेशकों की पहली प्राथमिकता भी चीन के बजाय भारत ही रहा। यह भी देखने को मिला कि भारतीयों का पेंशन तथा भविष्य निधि (प्रोविडेंट फंड) में भी निवेश के प्रति रुझान खूब बढ़ा है।
एक बात, जो आर्थिक बचत के आंकड़ों के विश्लेषण के बीच में एक विकट स्थिति को इंगित करती है, कि भारतीय समाज में इन दिनों महंगी कारों और महंगे घरों (फ्लैट्स) की खरीदारी तेजी से बढ़ रही है। इससे इस चिंता को बल मिलता है कि कहीं भारत में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ रही आर्थिक असमानता ही तो नहीं इस आर्थिक बचत की तेजी का प्रतीक है?
एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020-21 और 2021-22 में करीब चार लाख करोड़ रुपए का वित्तीय निवेश भवन निर्माण की विभिन्न परियोजनाओं में भारतीयों द्वारा किया गया। इस संदर्भ में यह भी सोचा जा सकता है कि शायद कोरोना महामारी की वजह से कई अप्रवासी भारतीय अपने मुल्क लौटे हैं और उन्हीं द्वारा बहुतायत में इन घरों की खरीदारी की गई है। जमीन की तरह इस दौरान सोने और चांदी में भी निवेश के प्रति रुझान देखने को मिला है।
यह भी समझना होगा कि पिछले वित्तवर्ष में महंगाई के आंकड़े हमेशा ऊपर ही रहे हैं, चाहे इसके पीछे कुछ वैश्विक कारण हों, जिनमें रूस-यूक्रेन युद्ध या रुपए के मुकाबले डालर का तुलनात्मक रूप से अधिक मजबूत होना। इन स्थितियों ने भारतीय निवेशकों को यह सोचने पर मजबूर किया है कि सात प्रतिशत से अधिक की महंगाई दर के सामने पांच प्रतिशत की बैंक जमाओं का ब्याज निश्चित रूप से नकारात्मक ही है। इसीलिए शायद उन्होंने अपने रुख को मोड़ते हुए शेयर बाजार आदि को प्राथमिकता देने की कोशिश की है।