सिद्धायनी जैन
विसंगति यह है कि लोग कृत्रिम सुविधाओं को ही वास्तविक सुख समझ बैठे हैं। इस बढ़ते तापमान के कारण पिछले कुछ सालों में एशिया महाद्वीप में लू के कारण मरने वालों की संख्या बढ़ी है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि नई पीढ़ी जीवन को संरक्षित करने के परंपरागत तरीकों को नहीं अपनाना चाहती।
मौसम विभाग को आशंका है कि मार्च में ही गर्म हवाएं चलने लगेंगी और इस साल गर्मी सारे कीर्तिमान तोड़ देगी। इस आशंका के मूल में गर्मी के वे आंकड़े हैं, जो फरवरी माह में दर्ज किए गए। अनेक शहरों में इस बार बसंत के दिन गर्म थे। पश्चिम और मध्य भारत के कई शहर फरवरी में पिछले पचास सालों में सबसे अधिक गर्म रहे।
मौसम विभाग की आशंका को देखते हुए भारत सरकार ने राज्यों को गर्मी की वजह से पैदा होने वाली बीमारियों से निपटने के लिए चेतावनी भी जारी की है। यह तैयारी पिछले दिनों एक अंतरराष्ट्रीय संगठन द्वारा जारी की गई उस चेतावनी की याद दिलाती है कि सन 2030 तक दुनिया के कई देशों में पारा इतना चढ़ जाएगा कि मनुष्य के लिए उसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाएगा।
यह चेतावनी निराधार नहीं है। पिछले वर्ष यूरोप के कई देशों ने बढ़ती गर्मी का कहर भुगता था। ब्रिटेन में लंदन ब्रिज के ढांचे को इसलिए तापरोधी चादर से ढंकना पड़ा था कि कहीं वह गर्मी से पिघल न जाए। फ्रांस में गर्मी के कारण रेल सेवाओं को रोकना पड़ा था। अनेक यूरोपीय शहरों में पहले तो गर्मी को देखते हुए नागरिकों को सलाह दी गई कि वे जरूरी होने पर ही घर से निकलें। अमेरिका से लेकर ब्राजील तक जंगलों के सुलगने की घटनाओं ने भी लंबे समय तक आबादी के एक बड़े हिस्से को परेशान किए रखा।
वातावरण में गर्मी बढ़ रही है, क्योंकि हम पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। अध्ययन कर्ताओं का मानना है कि 1850 से 1900 के दौर में हमारी जीवन-शैली में ऐसी बहुत-सी आदतें शामिल हो गर्इं, जो धीरे-धीरे संपूर्ण पर्यावरण के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई हैं। पृथ्वी की सतह पर तापमान में बढ़ोतरी भी तभी से प्रारंभ हुई।
खासकर औद्योगीकरण की दौड़ और प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक दोहन करने की नीयत ने तो हालात लगातार बेकाबू किए हैं। जीवाश्म र्इंधन का उपयोग, जंगलों का कटना और विकास के नाम पर जहरीली गैसों के उत्सर्जन ने ऐसे हालात कर दिए हैं कि पिछले लंबे समय से ओजोन परत के लगातार कमजोर होने की खबरें सामने आ रही हैं और हम फिर भी उन कारकों के उपयोग से बच नहीं रहे हैं, जिनके कारण उत्सर्जित गैंसें ओजोन परत का क्षरण बढ़ा रही हैं।
जंगलों के काटे जाने से न केवल ग्रीन हाउस प्रभाव, बल्कि पृथ्वी का तापमान भी बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए बनाए गए एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि दुनिया का तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार गैसों में से एक- कार्बन डाईआक्साइड के तीस प्रतिशत उत्सर्जन का जिम्मेदार जंगलों का काटा जाना है।
बड़ी संख्या में जंगलों के काटे जाने से आक्सीजन उत्पादन का एक बड़ा स्रोत समाप्त हो गया है। उधर, कल-कारखानों से लेकर सड़क पर वाहनों की बढ़ती संख्या ने शहरी इलाकों में कार्बन उत्सर्जन इस हद तक पहुंचा दिया है कि दुनिया के तमाम देश अपने यहां कार्बन उत्सर्जन की मात्रा न्यूनतम स्वीकार्य दर से कम करने पर विचार करने को विवश हैं।
पिछले कुछ वर्षों से कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण को लेकर नीतियां बनाने के लिए लगातार वैश्विक सम्मेलन हो रहे हैं। दुनिया के तमाम बड़े देश इस बात पर सहमत हैं कि 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की न्यूनतम दर हासिल की जानी चाहिए, मगर यह कैसे होगा, इस मुद्दे पर अलग-अलग क्षेत्रों के स्वार्थ अपेक्षित परिणाम नहीं आने दे रहे।
विकसित देश गरीब देशों को वादा किया गया धन उपलब्ध कराने में हिचक रहे हैं, तो विकासशील देश और अविकसित देश यह कह कर वांछित नीतियों से पीछे हट रहे हैं कि पर्यावरण संतुलन को विकसित देशों ने अपनी विभिन्न योजनाओं के जरिए बिगाड़ा है। अब अगर उन्हें उचित मुआवजा नहीं मिलता, तो वे किसी और के विकास की कीमत क्यों चुकाएं?
पेड़ों के काटे जाने के अलावा, अवैज्ञानिक नगर नियोजन, बढ़ती जनसंख्या, डामर की सड़कों की बढ़ती संख्या, कंप्यूटर, एअर कंडीशनर और फ्रिज जैसे संयंत्रों का बढ़ता उपयोग भी हमारे परिवेश का पारा चढ़ाने के कारक हैं। कहा जा रहा है कि शहरों में बढ़ते निर्माण के कारण हवा की गति में कमी आई है और वह अपेक्षित शीतल प्रभाव नहीं उत्पन्न कर पाती। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार शहरों में बढ़ता भवनों का जंगल किस तरह तापमान बढ़ाने में मदद कर रहा है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मुंबई और पुणे के बीच अब बहुत घनी बसावट हो गई है।
पहले समुद्री हवाएं बिना रोक-टोक के मुंबई से पुणे पहुंच जाया करती थीं और लोगों को गर्मी में भी पंखे की आवश्यकता नहीं महसूस होती थी। मगर अब ऐसा नहीं है, क्योंकि ऊंची-ऊंची इमारतों ने समुद्री हवाओं को रोकना शुरू कर दिया है। राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, दिल्ली जैसे राज्यों में लोग गर्मी की छुट्टियों में अपनी छतों पर आराम से सो जाया करते थे। मगर अब गर्मी में छतों पर सोना मुहाल होता जा रहा है।
बदलती जीवन-शैली के चलते पिछले दो दशकों में पृथ्वी का तापमान अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। विसंगति यह है कि लोग कृत्रिम सुविधाओं को ही वास्तविक सुख समझ बैठे हैं। इस बढ़ते तापमान के कारण पिछले कुछ सालों में एशिया महाद्वीप में लू के कारण मरने वालों की संख्या बढ़ी है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि नई पीढ़ी जीवन को संरक्षित करने के परंपरागत तरीकों को नहीं अपनाना चाहती।
मसलन, भारत में ही जब लोग पहले गर्मी में निकलते थे, तो अपने सिर को ढंक कर रखते थे, पानी पिए बिना और भूखे पेट घर से नहीं निकलते थे और लू से बचने के उपाय करते थे। मगर नई पीढ़ी के लिए ये सब सिर्फ दिल को समझाने की बातें हैं। ऐसे में इस पीढ़ी के लिए गर्मी के दिन अधिक खौफनाक होने लगे हैं।
चिंता की एक बात यह भी है कि अगर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही तो यह कृषि पर भी प्रतिकूल असर डालेगी और इस कारण खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट आएगी। पिछले दो सालों में गेहूं की पैदावार पर इसका बुरा प्रभाव देखा गया है। यह स्थिति आबादी के एक बड़े हिस्से को भुखमरी की ओर ले जा सकती है।
अध्ययनों में पाया गया है कि गर्मी के कारण दुनिया के कुछ हिस्सों में सूखा बढ़ता जा रहा है, मरुस्थल फैल रहा है। अगर ऐसा होता है तो दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ेगी, जिन्हें मजबूरी में अपने स्थान से पलायन करना पऐगा। यह स्थिति दुनिया की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करेगी। इसका सबसे बुरा असर उस वर्ग पर होगा, जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में सर्वहारा कहा जाता है।
अगर दुनिया का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो ग्लेशियर और तेजी से पिघलेंगे, जिससे समुद्र किनारे बसे शहरों के एक बड़े हिस्से के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। इसमें यह भी यह ध्यान रखने की बात है कि इनमें से अधिकांश शहर व्यापार- व्यवसाय के बड़े केंद्र हैं। यानी, अगर उनकी भौगोलिक संरचना पर प्रतिकूल असर पड़ा, तो ऐसा होना क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। सभ्यता को खींच कर कुछ दशक पीछे के मानकों तक नहीं ले जाया जा सकता, लेकिन हम अपनी आदतों में बदलाव करके, अपनी जीवन-शैली में कुछ सुधार करके स्थितियों को और खराब होने से तो बचा ही सकते हैं।