अच्छी बात है कि भारत सरकार ने आम लोगों का विरोध देख कर संचार साथी योजना रद्द कर दी है। फिलहाल। सवाल लेकिन अभी भी यह है कि इस जासूसी योजना के पीछे कौन लोग थे और उनकी मंशा क्या थी! साइबर सुरक्षा के बहाने किस आला मंत्री या अधिकारी ने सोचा कि साइबर डकैतों को रोकने के लिए एक ऐसा ऐप बनाया जाए जो भारत में बनने वाले हर सेलफोन में डालना अनिवार्य किया जाए? इन सवालों के जवाब ढूंढ़ना इसलिए जरूरी है कि वैसे भी सरकारी नजर हमारे निजी जीवन पर कुछ ज्यादा होती है आजकल।

आम लोग बेशक इस सरकारी दखलंदाजी से बच सकते हैं, लेकिन अगर हर फोन में एक जासूस बैठाने की कोशिश सफल हो जाती, तो भारतीय लोकतंत्र दुनिया की दृष्टि में कमजोर दिखने लगेगा। इस किस्म की जासूसी होती है अक्सर रूस, चीन और पाकिस्तान जैसे देशों में जहां लोकतंत्र नहीं, लोकतंत्र का ढोंग रचा जाता है झूठे चुनाव कराके। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अभी दिल्ली में थे, इसलिए बात उन्हीं से शुरू करते हैं।

पुतिन का आधे से ज्यादा जीवन बीता था रूस की शक्तिशाली केजीबी में काम करते। यह ऐसी जासूसी संस्था है, जिसने शीत युद्ध के समय से जासूसी द्वारा अपनी विदेश नीति बनाई थी। जासूसी पर इतना भरोसा था रूस के कम्युनिस्ट शासकों को कि अपने जासूसों को पश्चिमी देशों में रहने के लिए भेजा करते थे, जहां उनको अपनी रूसी पहचान मिटा कर बिल्कुल स्थानीय नागरिक की तरह बनने के लिए कहा जाता था। बरसों तक ये पकड़े नहीं जाते थे। इन चीजों के बारे में तब पता लगने लगा पश्चिमी देशों को जब, केजीबी के बड़े अफसर रूस से तंग आकर किसी दूसरे देश में भाग जाते थे।

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ऐसा ही एक आला अफसर था वसीली मित्रोखीन, जिसने रूस से भाग जाने के बाद केजीबी के सारे राज ‘मित्रोखीन आर्काइव’ नाम की किताबों में बता दिए थे। इन किताबों के जरिए मालूम हुआ कि इंदिरा गांधी के कई मंत्री केजीबी से जासूसी के लिए वेतन लेते थे। यह भी मालूम हुआ कि कुछ वामपंथी पत्रकार भी रूस का साथ विचारधारा के आधार पर नहीं, पैसों के लिए दे रहे थे। इन चीजों से ‘संचार साथी’ का क्या वास्ता है? गहरा वास्ता है, क्योंकि यह ऐप अगर डाले जाते हैं हमारे सेलफोन में, तो यकीन मानिए कि इनका असली काम साइबर सुरक्षा नहीं, जासूसी होगा। बिल्कुल वैसे, जैसे कुछ साल पहले सरकार ने ‘पेगासस’ नाम का ऐप इजराइल से खरीद कर पत्रकारों, राजनेताओं, वामपंथियों और विरोधियों के मोबाइल फोन में डालने की कोशिश की थी। असल में बात साइबर सुरक्षा की है ही नहीं।

राजनेता जितने बड़े हो जाते हैं, उतना ही वे अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। इस दौर में हाल यह है कि प्रधानमंत्री खुद अपने आपको असुरक्षित महसूस करते हैं इतना कि पिछले ग्यारह साल में उन्होंने एक भी प्रेस वार्ता को संबोधित नहीं किया है। सच यह भी है कि जब भी कोई पत्रकार उनकी आलोचना करता है अपने किसी अनजान ‘पाडकास्ट’ पर, तो उसके खिलाफ सरकार कार्रवाई किए बगैर नहीं रहती है। कुछ लोगों पर इतनी सख्त कार्रवाई होती है कि उनके ‘पाडकास्ट’ ही बंद हो जाते हैं। इस तरह की जासूसी में नई कड़ी बनने वाला था ‘संचार साथी’। जब इसका विरोध होने लगा, तो सरकार ने पहले तो सफाई देने की कोशिश की यह कह कर कि इसको अपने फोन में डालना अनिवार्य नहीं होगा और इसको कभी भी हटाया जा सकता है, लेकिन बात नहीं बनी। इसलिए कि सोशल मीडिया पर खूब हल्ला मचाया पत्रकारों और नेताओं ने।

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अभी के लिए इस योजना को सरकार ने वापस ले लिया है, लेकिन एक बार फिर नुकसान हुआ है नरेंद्र मोदी की निजी छवि का। न्यूयार्क में मुझे पिछले दस दिनों में ऐसे लोग मिले जिन्होंने स्पष्ट कहा कि उनकी नजरों में नरेंद्र मोदी एक लोकतांत्रिक राजनेता नहीं, तानाशाही फितरत के राजनेता हैं। ऐसा नहीं है कि यही बात डोनाल्ड ट्रंप के बारे में भी नहीं कही जाती है, लेकिन इसलिए कि ट्रंप रोज मिलते हैं पत्रकारों से और बेबाक तरीके से अपनी बातें रखते हैं, उनकी छवि अपने प्रधानमंत्री से थोड़ी बेहतर है।

चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है, तो प्रधानमंत्री अपने आपको इतना असुरक्षित क्यों महसूस करते हैं? क्यों नहीं उनमें कम से कम इतना आत्मविश्वास है जिसके बिना इतने बड़े देश को ढंग से चलाना मुश्किल है? थोड़ा-सा आत्मविश्वास दिखाते, तो संभव है कि विश्व के बड़े राजनेताओं में उनकी भी गिनती होती। न्यूयार्क में मुझे कई लोग मिले, जिन्होंने स्वीकार किया कि मोदी के आने के बाद भारत में विकास की रफ्तार बहुत बढ़ी है। उनका कहना था कि जब वे आजकल भारत आते हैं, तो उनको आश्चर्य होता है नई सड़कें और नए हवाई अड्डे देख कर। ऐसा कहने के बाद लेकिन यह भी हमेशा कहते हैं कि मोदी को वे पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि वे लोकतांत्रिक नहीं हैं।

संचार साथी वाली योजना का जिक्र अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी हुआ है और अक्सर इसके बारे में लोग कहते हैं कि ऐसी चीजें लोकतांत्रिक देशों में जब होने लगती हैं, तो सबूत मिलता है कि लोकतंत्र कमजोर किया जा रहा है। आमराय यही बन रही है दुनिया में कि भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है इतना कि देश की छवि अब उदारवादी लोकतांत्रिक देश की न रह कर थोड़ा बहुत ऐसी हो रही है जैसे रूस और पाकिस्तान की है। यानी इन देशों में चुनाव होते तो हैं, लेकिन लोकतंत्र पर बेड़ियां डाल कर, ताकि जब कोई इमरान खान जैसा कठिन राजनेता जीत जाता है, उसको जेल में डाल कर चलती है देश की गाड़ी।