भारतीय किसान यूनियन 15 मई को दो फाड़ हो गई। उत्तर प्रदेश का किसानों का यह सबसे बड़ा संगठन विघटन का शिकार तो अतीत में भी कई बार हुआ, सो इस बार का विभाजन कोई अनहोनी घटना नहीं मानी जा सकती। पर इस घटना का अगर सबसे विचित्र कोई पहलू है तो यह कि विघटन महेंद्र सिंह टिकैत की पुण्यतिथि के दिन हुआ। वही टिकैत जिनके नेतृत्व में 1986 में भारतीय किसान यूनियन की नींव पड़ी थी।
महेंद्र सिंह टिकैत की लोकप्रियता और धमक के कारण हर राजनीतिक दल ने उन पर डोरे डालने की कोशिश की। पर वे कभी किसी के बिछाए जाल में फंसे नहीं। भारतीय किसान यूनियन को उन्होंने मरते दम तक अराजनैतिक ही रखा। राकेश टिकैत और नरेश टिकैत उन्हीं के पुत्र हैं। नरेश बड़े हैं और पिता की मौत के बाद से बालियान खाप के मुखिया वही हैं। भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भी वही हैं जबकि राकेश टिकैत इसके राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।
भारतीय किसान यूनियन की चमक वैसे तो महेंद्र सिंह टिकैत के जीवनकाल में ही फीकी पड़ने लगी थी। लेकिन 15 मई 2011 को टिकैत के निधन के बाद किसानों का यह संगठन तितर-बितर हो गया था। इसमें अचानक जान पड़ी केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा 2020 में लागू किए गए तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के कारण।
शुरू में सरकार ने ये कानून अध्यादेश के जरिए लागू किए थे। फिर संसद से विधेयक पारित कराया तो विरोध में उत्तरी भारत के कई किसान संगठनों ने दिल्ली में इनके विरोध में सीमाओं पर बेमियादी धरना शुरू कर दिया। गाजीपुर सीमा के धरने का जिम्मा राकेश टिकैत की भारतीय किसान यूनियन ने संभाला तो सिंघू और टीकरी बार्डर पर पंजाब व हरियाणा के किसान संगठन डटे रहे।
यह धरना एक वर्ष से भी लंबे समय तक चला। देर से ही सही पर केंद्र सरकार को झुकना पड़ा। पहले तो सरकार ने खुद ही इन कानूनों पर अमल दो वर्ष के लिए स्थगित करने की घोषणा की फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी कानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी।
इसके बाद भी किसान नेताओं और केंद्र सरकार के बीच अनेक दौर की बातचीत के बावजूद कोई समझौता नहीं हो पाया। इस दौरान अनेक किसानों की कई कारणों से मौत भी हुई। उत्तर प्रदेश और चार अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव को देखते हुए आखिरकार प्रधानमंत्री ने खुद इन तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी। जिसे बाद में संसद से भी औपचारिक रूप से पूरा कर दिया।
राकेश टिकैत से बगावत करके लखनऊ में अपनी अलग भारतीय किसान यूनियन बनाने वाले सभी नेता लंबे समय से राकेश टिकैत के साथ तो थे ही, प्रमुख भूमिका में थे। इनमें राजेश सिंह चैहान फतेहपुर के हैं। जो नए संगठन में अध्यक्ष बनाए गए हैं। गठवाला खाप के मुखिया राजेश सिंह मलिक, हरिनाम सिंह वर्मा, मांगेराम त्यागी, दिगंबर सिंह, अनिल तालान और धर्मेंद्र मलिक सभी ने राकेश टिकैत पर अराजनैतिक होने की आड़ में राजनीति करने का आरोप लगाया है।
विधानसभा चुनाव इस फूट की जड़ माना जा रहा है। बागी नेताओं ने नाम तो नहीं लिया पर उन्हें शिकायत है कि टिकैत बंधुओं ने जयंत चौधरी के रालोद का खुलकर समर्थन किया। दूसरी तरफ राकेश टिकैत ने इशारों में इस विभाजन के पीछे भाजपा और उसकी उत्तर प्रदेश व केंद्र की सरकारों पर निशाना साधा है। वे कह रहे हैं कि संगठन छोड़कर जाने वालों की अपनी कुछ मजबूरी रही होगी।
संकेत सरकारी दबाव की तरफ है। पर वे दिखावा यही कर रहे हैं कि कुछ नेताओं के जाने से फर्क नहीं पड़ेगा। उनके संगठन की ताकत नेता नहीं बल्कि किसान हैं। जो अभी भी भारतीय किसान यूनियन के साथ हैं। अपने पिता के दौर में राकेश टिकैत दिल्ली पुलिस में सिपाही थे। दस साल नौकरी करने के बाद वे किसान आंदोलन में कूद पड़े थे। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी रही है। वे 2007 में कांग्रेस के उम्मीदवार की हैसियत से मुजफ्फरनगर से विधानसभा और 2014 में रालोद उम्मीदवार की हैसियत से अमरोहा से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। पर दोनों बार करारी हार का मुंह देखना पड़ा।
उनके संगठन के कुछ नेता पिछला विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे। टिकैत बंधुओं ने मदद नहीं की, फूट की एक वजह यह भी मानी जा रही है। बहरहाल भारतीय किसान यूनियन के लिए अपने कुनबे को सहेज कर न रख पाना एक झटका तो जरूर है। जहां तक भारतीय किसान यूनियन की स्थापना का सवाल है, यह किसानों के असंतोष के कारण 1986 में अचानक अस्तित्व में आई।
महेंद्र सिंह टिकैत ने शामली के पास कमूर्खेड़ी गांव के बिजली घर के पास अक्तूबर 1986 में धरना दिया था। जिसमें सभी खाप पंचायतों के मुखिया और किसान जुटे थे। धरने में दो लाख किसान लगातार दो दिन तक जमे रहे। कोई हिंसा हुई न अशांति। सारा बंदोबस्त किसानों ने खुद संभाला था। देशभर के तमाम बड़े किसान नेता जुटे थे। लेकिन टिकैत किसी के प्रभाव में नहीं आए और अचानक धरना खत्म कर दिया। एक तरह से उन्होंने सरकार को अपनी ताकत का अहसास करा दिया।
राकेश टिकैत और महेंद्र सिंह टिकैत में एक जमीनी फर्क और भी है। महेंद्र सिंह टिकैत ने अव्वल तो राष्ट्रीय स्तर का किसान नेता बनने की कोई चाह नहीं पाली और अगर कई किसान संगठनों के साथ समन्वय किया भी तो निर्णायक भूमिका अपने पास ही रखी। राकेश टिकैत न तो उतने प्रभावशाली हैं और न अब वैसी परिस्थितियां हैं। वे संयुक्त किसान मोर्चे की बात कर रहे हैं। अपने बागी सहयोगियों को मनाने की उन्होंने कम कोशिश नहीं की। पर महत्त्वाकांक्षाओं का टकराव हो तो फूट को कौन टाल सकता है। मजबूरी में उन्होंने बयान दिया है कि संयुक्त किसान मोर्चे में देश भर के 550 किसान संगठन हैं। भारतीय किसान यूनियन भी उन्हीं में एक है। कुछ पदाधिकारियों के बगावत करने से मोर्चे पर कोई असर नहीं होगा।