संपादकीय: भ्रष्टाचार की जड़ें
भ्रष्ट अधिकारियों पर सतत निगरानी और कार्रवाई के दावों के बावजूद सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार किस कदर हावी है, हाल की कुछ घटनाओं ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है।

दो दिन पहले गुवाहाटी में रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी को एक करोड़ रुपए की घूस मांगने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इस अधिकारी ने एक निजी कंपनी को ठेका दिलवाने के एवज में यह रकम मांगी थी। पिछले हफ्ते राजस्थान में दौसा जिले की एसडीएम और पुलिस अधीक्षक को लाखों रुपए की घूस लेने के मामले में पकड़ा गया।
देश सेवा का संकल्प लेकर प्रशासनिक सेवा में आए इन अधिकारियों ने राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के काम में लगी कंपनी से यह घूस ली थी। इसी महीने राजस्थान में ही एक जिला कलक्टर और उनके निजी सचिव को मोटी घूस लेने के मामले में गिरफ्तार किया गया था। ये घटनाएं बताती हैं कि चाहे बड़े स्तर पर हो या फिर जिला, तहसील या पंचायत स्तर पर, भ्रष्टाचार से मुक्त प्रशासन की कल्पना नहीं की जा सकती। भले कोई राज्य कितने दावे क्यों न करे कि उसके यहां भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन है, लेकिन भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी और अधिकारी जिस तरह से लूट-खसोट मचा रहे हैं, वह सरकारों के भ्रष्टाचार मुक्त होने के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है।
भारत के शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार का रोग जन्मजात है। पिछले तीन-चार दशकों में यह समस्या और विकट हुई है। आश्चर्य की बात तो यह है कि चुनावों में कोई भी राजनीतिक दल इसे मुद्दा बनाने से चूकता नहीं है और भ्रष्टाचार खत्म करने और साफ-सुथरा प्रशासन देने का वादा करता है, लेकिन सत्ता में आते ही यह वादा हवा हो जाता है।
सरकारों और प्रशासन में हर स्तर भ्रष्टाचार पर जिस तेजी से बढ़ा है, उससे आमजन की मुश्किलें ज्यादा बढ़ी हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल इक्यावन फीसद लोगों ने घूस देकर अपने काम निकलवाए। सबसे ज्यादा यानी छब्बीस फीसद लोगों को संपत्ति और भूमि संबंधी कामों के लिए घूस देनी पड़ी, बीस फीसद लोगों को पुलिस में पैसे खिलाने पड़े। इसी तरह नगर निगम, बिजली विभाग, जल विभाग, आरटीओ दफ्तर और अस्पताल ऐसे ठिकाने हैं, जिनसे आमजन का सीधा साबका पड़ता है और जहां बिना घूस के काम करा पाना संभव नहीं है।
भारत में केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, राजस्व खुफिया निदेशालय सहित कई जांच एजेंसियां हैं जिन पर भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की जिम्मेदारी है। हालांकि जांच एजेंसियां भी इस बीमारी से पूरी तरह मुक्त होंगी, कह पाना मुश्किल है। सीबीआइ को लेकर तो समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने जो तल्ख टिप्पणियां की हैं, वे स्थिति की गंभीरता को बताने के लिए पर्याप्त हैं। राज्यों में भी भ्रष्टाचार निरोधक विभाग और लोकायुक्त जैसी संस्थाएं हैं। फिर भी भ्रष्ट अधिकारियों के हौसले बुलंद होना बताता है कि उनके आगे सरकारी तंत्र बौना पड़ चुका है।
इसकी वजह यह है कि भ्रष्टाचार के मामलों में त्वरित और ठोस कार्रवाई नहीं होती और ज्यादातर मामलों में आरोपियों को बचाने में एक बड़ा तंत्र जुट जाता है। पकड़े गए अधिकारियों और कर्मचारियों को दिखावे के तौर पर निलंबित भले कर दिया जाए, लेकिन थोड़े समय बाद ही सब कुछ पहले की तरह हो जाता है।
वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने कर महकमों से जुड़े कई अफसरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर यह संकेत दिया था कि वह भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेगी। लेकिन भ्रष्टाचारियों का तंत्र सरकार के तंत्र से कहीं ज्यादा सुसंगठित और मजबूत है। ऐसे में भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए सख्त कानूनों के उपयोग से भी ज्यादा जरूरी है मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना, जिसका अभाव भ्रष्ट तंत्र के विकास को बढ़ावा देता है।