एक अनोखे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 20 साल पुराने मामले के सजायाफ्ता को संवैधानिक बेंच के फैसले का हवाला देकर बरी कर दिया। दरअसल एक क्लीनर को इस आधार पर सजा सुनाई गई थी कि उसके पास से रिश्वत लेने के आरोप में 300 रुपये मिले थे। सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने अपने फैसले में कहा कि संवैधानिक बेंच के हाल के फैसले में कहा गया है कि रिश्वत की मांग और रिकवरी दोनों की प्रूव होनी चाहिए।
जस्टिस अभय सिंह ओका और राजेश बिंदल की बेंच ने कहा कि संवैधानिक बेंच ने हाल ही में कहा था कि रिश्वत लेने के मामले में मांग और रिकवरी दोनों ही साबित होनी चाहिए। डबल बेंच ने पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए क्लीनर को 20 साल पुराने मामले में बरी कर दिया।
महज रकम की बरामदगी से मांग साबित नहीं हो सकता
मौजूदा मामले में ट्रायल कोर्ट ने खास तौर से देखा था कि रिश्वत की मांग साबित नहीं हुई थी। उच्च न्यायालय का फैसला इस धारणा पर आधारित था कि चूंकि अपीलकर्ता से पैसा बरामद किया गया था, इसलिए मांग की गई होगी। राज्य ने दलील दी थी कि तथ्य यह है कि स्वतंत्र गवाहों की मौजूदगी में अपीलकर्ता से एक जैसे सीरियल नंबर वाले फेनोल्फथेलिन कोटेड करेंसी नोट बरामद किए गए थे। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि रिश्वत की मांग की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रिश्वत की मांग का कोई सबूत नहीं था
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रिश्वत की मांग का कोई सबूत नहीं था। अदालत ने कहा, “अगर नीरज दत्ता बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली सरकार) में संविधान बेंच द्वारा निर्धारित कानून के आलोक में अभियोजन पक्ष की ओर से पेश किए गए सबूत की जांच की जाती है, तो अपीलकर्ता का दोष साबित और सजा नहीं हो सकती है। इसे कानूनी रूप से कायम रहना चाहिए।” इसलिए भ्रष्टाचार अधिनियम 1988 की रोकथाम – अधिनियम के तहत सजा को बनाए रखने के लिए मांग और वसूली दोनों को साबित किया जाना चाहिए।