इसके कारण जीवाणु, संक्रमण का इलाज करने वाली दवाओं से जीतने की ताकत विकसित कर लेते हैं। अब यह खतरा पानी में घर कर गया है। इस खतरे को लेकर अमेरिका के जान हापकिंस स्कूल आफ मेडिसिन, सेंटर फार डिजीज डायनामिक्स और भारत के इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) ने दुनिया के 41 देशों में पानी के नमूनों को लेकर जांच की, जिसमें चौंकाने वाले नतीजे सामने आए हैं।
शोध के लिए नालों के साथ ही शोधन संयंत्रों से भी पानी के नमूने लिए गए। जांच में पाया गया कि कई जगहों के पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी अधिकतम सीमा से ज्यादा है। भारत और चीन में बेकार पानी और उसे साफ करके पीने के पानी में बदलने वाले शोधन संयंत्र, एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) पैदा करने का बड़ा ठिकाना बन रहे हैं। इसकी वजह है- पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी। यह जानकारी द लांसेट में छपे हाल के एक शोध में सामने आई है। इस शोध पत्र के लेखक हैं- नदा हाना, प्रोफेसर अशोक जे तामहंकर और प्रोफेसर सेसिलिया स्टाल्सबी लुंडबोर्ग।
चीन में एएमआर की स्थिति पैदा करने का सबसे ज्यादा जोखिम नल के पानी में पाया गया। इसमें सिप्रोफ्लोएक्सिन की काफी मौजूदगी मिली। भारत जैसे देशों में शहरी इलाकों में आमतौर पर नगर निगम और नगरपालिकाएं लोगों को नल के पानी की आपूर्ति करती हैं। इस पानी को पहले शोधन संयंत्रों में साफ किया जाता है। संयंत्र तक पहुंचने वाले पानी में कई स्रोतों का योगदान होता है।
मसलन, अस्पताल, मवेशीपालन की जगहें, दवा बनाने वाली जगहों से निकासी आदि। एएमआर, दुनियाभर के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के लिए गंभीर खतरा है. इसके कारण इंसानों और जानवरों में ऐसे संक्रमण पैदा हो सकते हैं, जिनपर मौजूदा दवाएं बेअसर होंगी और इलाज नहीं हो सकेगा. एएमआर, दुनियाभर के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के लिए गंभीर खतरा है. इसके कारण इंसानों और जानवरों में ऐसे संक्रमण पैदा हो सकते हैं, जिनपर मौजूदा दवाएं बेअसर होंगी और इलाज नहीं हो सकेगा।
एएमआर, दुनियाभर के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के लिए गंभीर खतरा है। इसके कारण इंसानों और जानवरों में ऐसे संक्रमण पैदा हो सकते हैं, जिनपर मौजूदा दवाएं बेअसर होंगी और इलाज नहीं हो सकेगा। एंटीमाइक्रोबियल (सूक्ष्मजीवरोधी) वो तत्व हैं, जो जीवाणु या फंगी जैसे सूक्ष्मजीवों को खत्म करता है, उन्हें बढ़ने और बीमारी फैलाने से रोकता है।
इसी से जुड़ी स्थिति है एएमआर, जिसमें ये सूक्ष्मजीव खुद को नष्ट करने वाली दवाओं, यानी एंटीबायोटिक्स से लड़ने और उन्हें हराने की क्षमता विकसित कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में जीवाणु खत्म नहीं होते और बढ़ते रहते हैं। नतीजतन, स्थापित इलाज की प्रक्रिया और दवाएं बेअसर हो जाती हैं। संक्रमण की स्थिति जानलेवा हो सकती है और इसके दूसरे जानवरों और इंसानों में फैलने का जोखिम बढ़ जाता है। अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1928 में दुनिया की पहली एंटीबायोटिक दवा पेनिसिलिन का आविष्कार किया था।
इस खोज के लिए फ्लेमिंग को 1945 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला। पेनिसिलिन की खोज के साथ ही एंटीबायोटिक दवाओं का दौर शुरू हुआ। कई तरह के संक्रमणों में प्रभावी इलाज मिला। इनके कारण अनगिनत लोगों की जान बचाई जा सकी। एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक इस्तेमाल में जोखिम भी बहुत हैं। इनसे संक्रमण पैदा करने वाले कुछ जीवाणु खत्म हो जाते हैं और कुछ उस दवा से लड़ने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा कर लेते हैं।
जितना ज्यादा एंटीबायोटिक इस्तेमाल किया जाए, बैक्टीरिया के प्रतिरोधी (इम्यून) होने की संभावना भी उतनी ज्यादा बढ़ती है। मवेशीपालन भी एएमआर का बड़ा जरिया बन रहा है। गाय, मुर्गा और सूअर जैसे मांस और दूध के लिए पाले जाने वाले जानवरों को बड़े स्तर पर एंटीमाइक्रोबियल दवाएं दी जाती हैं। यूरोप के कई देशों में इससे निपटने के लिए सख्त कानून बनाए गए हैं, जिनसे मदद भी मिल रही है।
वर्ष 2021 में यूरोपियन फूड सेफ्टी अथारिटी (ईएफएसए) ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मवेशियों को एंटीबायोटिक दिए जाने में कमी आई है। 2016 से 2018 के बीच मांस और डेयरी के लिए पाले जाने वाले जानवरों में पालीमिक्सिन श्रेणी के एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करीब 50 फीसद तक कम हुआ है। लेकिन भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में अभी भी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है।