9 नवंबर को अयोध्या मामले में आए फैसले (Ayodhya Verdict) पर देश के बुद्धिजीवियों ने आपत्ति जाहिर की है। देश के जाने-माने शिक्षाविद, लेखक और कलाकारों से लेकर पुरातत्वविदों ने सर्वोच्च अदालत के फैसले के संबंध में रिव्यू की मांग की है। राजनीतिक दल सीपीएम समर्थित सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट की तरफ से जारी एक बयान पर 103 लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। हस्ताक्षर करने वालों में राजनीतिक वैज्ञानिक सीपी भांबरी और जोया हसन, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक, उत्सव पटनायक, सीपी चंद्रशेखर और जयति घोष शामिल हैं।
इनके अलावा इतिहासकार डीएन झा, इरफान हबीब और शिरीन मूसवी ने भी रिव्यू की मांग करते हुए हस्ताक्षकर किए हैं। वहीं, पत्रकारों में अंतरा देव सेन, सुकुमार मुरलीधरन, आनंद सहाय और पामेला फिलिप शामिल हैं। जबकि, थेटर आर्टिस्ट में एमके रैना, एनके शर्मा और केवल अरोड़ा तथा पूर्व नौकरशाह वजाहत हबीबुल्लाह जैसी शख्सियतों ने हस्ताक्षकर कर फैसले पर समीक्षा की मांग उठाई है।
‘द टेलिग्राफ’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) की पुरातत्व प्रोफेसर सुप्रिया वर्मा ने भी बयान पर हस्ताक्षर किए हैं। सुप्रिया वर्मा मामले में अभियोजन पक्ष की गवाह के रूप में पेश हुईं थी, उन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर आपत्ति जताई थी, जिसमें दावा किया गया था कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के नीचे एक गैर-मुस्लिम संरचना का ढांचा मौजूद था। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर समीक्षा की मांग उठाते हुए बयान में कहा गया है, “सबसे पहले चिंता यह है कि अदालत का फैसला तभी मुमकिन हो पाया है, जब 6 दिसंबर 1992 को आपराधिक तरीके से बाबरी मस्जिद को गिराया गया। अदालत ने स्वयं उस घटना को ‘गैर-कानूनी कदम” करार दिया है।
बयान में यह भी कहा गया है कि यदि मस्जिद अपने अस्तित्व में रहती, तो क्या विवादित स्थल की पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई हो पाती? अगर मस्जिद अपनी जगह पर कायम रहती तो अदालत के लिए हिंदुओं को जमीन देना आसान नहीं होता। इसमें यहा भी कहा गया है कि मस्जिद वाली जगह पर इतिहास में मुसलमानों के नमाज अदा करने से लेकर हिंदुओं के पूजा-पाठ के कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। हिंदुओं की मान्यता है कि राम अयोध्या में पैदा हुए, लेकिन किसी को पता नहीं उनका जन्म उसी स्थान विशेष पर हुआ था, जहां मस्जिद थी।