इसे लेकर हर किसी ने अपने ढंग से टीका टिप्पणी की। कहा गया कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस रसातल में जा चुकी है। इस वजह से कांग्रेस ने यहां ज्यादा वक्त खपाना ठीक नहीं समझा। इस सूबे को ज्यादा वक्त दिया जाना चाहिए था। यह बात यात्रा जयराम रमेश ने मानी पर साथ ही यह कहकर नई अटकल की गुंजाइश भी छोड़ दी कि यह आखिरी यात्रा नहीं थी। साफ है कि राहुल निकट भविष्य में पूरब से पश्चिम की दूसरी यात्रा भी निकाल सकते हैं।
देश के दूसरे कई हिस्सों में कई क्षेत्रीय दलों ने राहुल गांधी की इस यात्रा का स्वागत किया। पर उत्तर प्रदेश के दोनों बड़े दलों सपा और बसपा ने इससे किनारा ही किया। क्यों, इस पर न किसी ने उनसे सफाई मांगी और न उन्होंने देने की जरूरत समझी। हां, मेरठ और सराहनपुर मंडल के जिन इलाकों से पद यात्रा गुजरी, वहां रालोद और किसान यूनियन के लोगों ने जरूर उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। जयंत चौधरी खुद राहुल गांधी से नहीं मिले पर समर्थकों को यात्रा का स्वागत और समर्थन करने का निर्देश जरूर दिया।
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दो बड़ी हस्तियों की जयंती थी। राहुल गांधी दोनों की समाधि पर जाना नहीं भूले। चौधरी चरण सिंह की जयंती पर 23 दिसंबर को किसान घाट गए। जयंत चौधरी ने सपा-बसपा की लाइन क्यों नहीं पकड़ी, जबकि वे सपा के सहयोगी हैं और पिछला विधानसभा चुनाव मिलकर लड़े थे। जयंत चौधरी पूर्व में भाजपा के सहयोगी भी रह चुके हैं। अनुभव से वे जान चुके हैं कि भाजपा से हाथ मिलाने का मतलब है अपने जनाधार से हाथ धोना। इसके उलट राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा गठबंधन कांग्रेस का ही हो सकता है। इसके साथ जाकर उनके पिता अजित सिंह पहले 1994 में और फिर 2012 में केंद्र में मंत्री पद पा गए थे। कांग्रेस ने उनके जनाधार को कमजोर करने की भी कभी कोई चाल नहीं चली।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान और दलित आबादी ज्यादा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अब हर सियासी दल की चुनावी तैयारी 2024 के लोकसभा चुनाव पर केंद्रित है। भाजपा तो हर समय ही चुनावी मूड में रहती है। इसके उलट विरोधियों की तैयारी भी अभी तक कमजोर ही दिखती है और रणनीति भी साफ नहीं है। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने न कांग्रेस से हाथ मिलाया और न बसपा से तालमेल में कोई दिलचस्पी दिखाई। वे मानकर चल रहे थे कि मतदाता भाजपा से नाराज हैं और उसका फायदा केवल सपा को होगा। ऐसा हुआ नहीं। दोबारा मुख्यमंत्री बनने का अखिलेश का सपना चकनाचूर हो गया।
बहुकोणीय संघर्ष में भाजपा आसानी से बहुमत पाकर फिर सत्ता में आ गई। हकीकत तो यही है कि बहुकोणीय संघर्ष की परिस्थिति अभी तो भाजपा के अनुकूल ही रहने वाली है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को वाकई गंभीर चुनौती देनी हैै तो विपक्ष को एकजुट होना पड़ेगा। कांग्रेस को अलग-थलग करके एकजुट होने की बात गले नहीं उतर सकती। अपने जन्मदिन 15 जनवरी को लखनऊ में प्रकट होकर बसपा सुप्रीमो मायावती ने अचानक एलान कर दिया कि अगला लोकसभा चुनाव वे अकेले लड़ेंगी। यह जानते हुए भी कि उनका जनाधार 2007 के बाद से लगातार घटा है।
कभी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी रह चुकी बसपा को उत्तर प्रदेश में विधानसभा की केवल एक सीट मिली। ऐसे में अकेले चुनाव लड़कर मायावती क्या 2014 के हश्र को ही हासिल नहीं करेंगी जब अस्सी में से उन्हें एक भी सीट नसीब नहीं हो पाई थी। गनीमत रही कि उन्होंने 2019 में सपा से गठबंधन कर लिया और दस सीटें पा गई। बसपा के दलित वोट बैंक में दूसरे दलों ने सेंध लगाई है तो आजमगढ़ और रामपुर की लोकसभा व रामपुर शहर की विधानसभा सीट के उपचुनाव के नतीजों ने इस मिथक को भी तोड़ दिया है कि उत्तर प्रदेश का मुसलिम मतदाता समाजवादी पार्टी के पीछे लामबंद रहेगा।
अखिलेश और मायावती आज चाहे जितनी घुड़की दें कि वे कांग्रेस से गठबंधन नहीं करेंगे, पर जमीनी हकीकत उन्हें अपना बचा-खुचा जनाधार बचाने के लिए अंतत: कांग्रेस के पाले में जाने को बाध्य करेगी। बसपा से दलित और सपा से मुसलमान ही कांग्रेस की तरफ खिसक गए तो इन दोनों क्षेत्रीय दलों को अपना वजूद बचाने में ही लोहे के चने चबाने पड़ जाएंगे। इसलिए सियासी पंडित इन दोनों दलों के एकला चलो के राग को ज्यादा सीटें पाने के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाने की रणनीति से अधिक कुछ नहीं मानते। केवल क्षेत्रीय दलों के मोर्चा बना लेने से भाजपा के खिलाफ प्रभावी विकल्प का भ्रम तो पाला जा सकता है पर चुनौती नहीं दी जा सकती।j