बुधवार को राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए हुई विपक्षी दलों की बैठक में आम आदमी पार्टी ने हिस्सा नहीं लिया था। इसके पीछे की वजह जानने के लिए हम आपको पांच साल पीछे ले चलते हैं। बात करते हैं साल 2017 की जब राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवारी के लिए सोनिया गांधी ने 17 विपक्षी पार्टियों को एक लंच में आमंत्रित किया गया था। उस समय कांग्रेस की आमंत्रितों की सूची में आम आदमी पार्टी का नाम गायब होना एक बड़ी चूक थी। कांग्रेस ने ‘आप’ को उस समय संयुक्त विपक्ष की मेज से दूर रखा, तब अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपने विधायकों के खिलाफ चुनावी उलटफेर और पुलिस के चल रहे मामलों में व्यस्त थी।
15 जून, 2022 तक कांग्रेस के अलावा सिर्फ AAP एकमात्र विपक्षी पार्टी है, जो दो राज्यों में 156 विधायकों और 10 राज्यसभा सांसदों की सामूहिक ताकत के साथ शासन कर रही है। इसके बावजूद राष्ट्रपति के चुनाव में उम्मीदवार पर चर्चा के लिए आम आदमी पार्टी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की बुलाई गई बैठक में संयुक्त रणनीति में नहीं शामिल हुई। हालांकि इस बार इस बैठक से खुद को दूर रखना आप का एक पहले से चुना हुआ विकल्प था क्योंकि वो गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों में अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिए तेजी से प्रयास कर रही है।
आम आदमी पार्टी के इस बैठक में हिस्सा नहीं लेने के पीछे तीन बड़े कारण हैं।
इस बैठक में कांग्रेस की उपस्थिति
आम आदमी पार्टी ने पिछले एक दशक से कांग्रेस को दिल्ली और पंजाब की राजनीति से हाशिए पर धकेल दिया है। इसके बाद से ही सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी एक साझा मंच साझा करने में सहज नहीं है। साल 2011 में आम आदमी पार्टी का उदय होता है ये पार्टी 5 अप्रैल को इंडिया अगेंस्ट करप्शन (IAC) आंदोलन से हुई थी। इस आंदोलन ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार को हिलाकर रख दिया था। कांग्रेस आईएसी के उस झटके से कभी उबर नहीं पाई। जिसके बाद एक वर्ग ने आम आदमी पार्टी का गठन किया। साल 2013 में कांग्रेस के बाहरी सहयोग आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में पहली बार अल्पमत की सरकार बनाई जिसके बाद साल 2014 में केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया आम आदमी पार्टी ने संवैधानिक कमजोरियों का हवाला देते हुए दिल्ली विधानसभा में एक जन लोकपाल विधेयक की शुरूआत को रोक दिया। साल 2019 के आम चुनावों से पहले गठबंधन की बातचीत टूटने के बाद दोनों दलों के बीच संबंधों में और खटास आ गई, जिससे केजरीवाल और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बीच एक कड़वा और सार्वजनिक विवाद शुरू हो गया।
अपनी छवि के प्रति जागरूक आम आदमी पार्टी
आम आदमी पार्टी को लगता है कि उसकी भ्रष्टाचार-विरोधी, आधुनिक छवि, गवर्नेंस में कमी लाने वाली छवि अन्य राजनीतिक दलों के पारंपरिक दृष्टिकोण से मेल नहीं खाती है। आम आदमी पार्टी ने लोकपाल बिल के नाम पर सामूहिक तौर पर जनता को एकजुट किया था। हालांकि पार्टी पहले भी ऐसे संयुक्त मंचों में दिखाई दी थी। केजरीवाल साल 2018 में उन विपक्षी नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने कर्नाटक में एच डी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया था। वह 2019 में कोलकाता में टीएमसी द्वारा आयोजित एक अन्य संयुक्त विपक्षी रैली में भी मौजूद थे। फरवरी 2019 में, AAP ने जंतर-मंतर पर ‘लोकतंत्र बचाओ’ रैली की भी मेजबानी की, जहां केजरीवाल ने कांग्रेस के आनंद शर्मा के साथ मंच साझा किया। लेकिन 2019 के आम चुनावों में हार ने फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है, जिससे रणनीति में बदलाव आया है। जबकि केजरीवाल बनर्जी, और टीआरएस के के चंद्रशेखर राव और डीएमके के एम के स्टालिन जैसे नेताओं से मिलना जारी रखते हैं, आप नेताओं का कहना है कि 2024 के चुनावों की अगुवाई में, पार्टी संयुक्त मंचों में भाग लेने से काफी हद तक दूर हो जाएगी जैसे कि उसने अतीत में किया था।
टीएमसी से तनावपूर्ण संबंध भी हैं एक बड़ा कारक
केजरीवाल का विपक्षी दलों के साथ बैठक में शामिल नहीं होने की एक वजह ये भी है कि टीएमसी के साथ आम आदमी पार्टी के संबंधों में पिछले एक – दो सालों गिरावट आई है। टीएमसी ने तटीय राज्य में विधानसभा चुनावों से पहले गोवा में आश्चर्यजनक रूप से एंट्री मारी, जहां आप 2015 से प्रवेश करने की कोशिश कर रही थी। इसी वजह से अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी के संबंधों के बीच भी तनाव आ गए। इन दोनों ही पार्टियों में कांग्रेस की खाली हो रही जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की होड़ लगी है। आपको बता दें कि असम एक और ऐसी जगह है जहां आने वाले दिनों में दोनों पार्टियां तलवार लेकर आर-पार करने के लिए तैयार हैं। आप की बंगाल इकाई भी टीएमसी सरकार पर लगातार हमले करती रही है।