इस सिलसिले में पर्यावरण संरक्षण और विलुप्तहोते वन्यजीवों की चिंता लगभग हाशिये पर ढकेल दी गई है। हालांकि तमाम पर्यावरणविद लंबे समय से आगाह करते रहे हैं कि अगर वन्यजीवों का उचित संरक्षण नहीं किया गया तो पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्रणियों का जीवन-चक्र अस्त-व्यस्त हो जाएगा। मगर कभी-कभी महज दिखावे के लिए कुछ मामलों में संवेदनशीलता दिखाई जाती है, गंभीरता का सर्वथा अभाव है। वन्यजीवों के संरक्षण कोलेकर हुए अब तक के प्रयासों और इस दिशा में गंभीरता का विश्लेषण कर रहे हैं प्रदीप श्रीवास्तव।
पिछले दिनों नामीबिया से लाकर आठ चीते मध्यप्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़े गए। उसके बाद से विलुप्त हो रहे वन्यजीवों के संरक्षण को लेकर बहस तेज हो गई है। ये चीते करीब सात दशक बाद भारत के जंगलों में दिख रहे हैं। हालांकि, पर्यावरण को लेकर हम कई दशक से बात कर रहे हैं, लेकिन बीते सालों में मौसम में तेजी से हो रहे बदलाव और उसके प्रभावों ने इस ओर आम लोगों का भी ध्यान खींचा है।
चीतों को लाकर हमने ‘प्रकृति संरक्षण’ में एक सफलता तो हासिल कर ली है, लेकिन हमें अभी बहुत काम करना है। हम भले गाय को माता मानते और शेर को जंगल का राजा कहते हैं, लेकिन जब इनके संरक्षण की बात आती है, तो हम इन्हें इनके भाग्य के भरोसे छोड़ देते हैं। इसी का परिणाम है जंगलों से जानवरों का समाप्त होना और पर्यावरण को तेजी से नुकसान पहुंचना। पर्यावरण पर संकट मानव अस्तित्व के लिए भी संकट पैदा करता है। जंगलों के अस्तित्व के लिए जैव विविधता बहुत जरूरी है। अगर यह एक बार समाप्त हो गया तो उसे दोबारा नहीं बनाया जा सकता। यह इसलिए गंभीर विषय है, क्योंकि जंगल और जानवरों के बिना न तो किसी ग्रह और न ही मनुष्य की कल्पना की जा सकती है।
वन्यजीवों की विविध प्रजातियां
पृथ्वी पर पूरी दुनिया में जीवों की संख्या लगभग अठारह लाख मानी जाती है। हालांकि लाखों जीवों के बारे में हमें अभी जानकारी ही नहीं है। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी पर पचास लाख से पांच करोड़ के बीच जीव हैं। इनमें से अधिकांश का वर्णन और नामकरण अब भी नहीं हो सका है, जबकि जीव-जातियों की पहचान और इनके नामकरण का क्रमबद्ध कार्य पिछले ढाई सौ सालों से किया जा रहा है। भारत की पारिस्थितिक और भौगोलिक दशाओं में विविधता के कारण यहां अनेक प्रकार के जीव-जंतु पाए जाते हैं।
हमारे देश में करीब पचहत्तर हजार जीवों की प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें करीब साढ़े तीन सौ स्तरनधारी, साढ़े बारह सौ पक्षी, डेढ़ सौ उभयचर, इक्कीस सौ मछलियां, साठ हजार कीट और चार हजार से अधिक मोलस्क और रीढ़ वाले जीव हैं। मगर दुर्भाग्य से, संरक्षण के अभाव में, इन जीवों की संख्या तेजी से कम हो रही है। खत्म हो रहे जीवों में जंगली जीव ही नहीं, पहाड़ों, नदियों तथा महासागरों में रहने वाले वे जीव भी शामिल हैं, जिन पर अभी तक मनुष्यों की नजर नहीं पड़ी थी। अनजाने में ही मानवीय गतिविधियों के कारण पिछले कुछ वर्षों से इस तरह के जीवझ्रजंतु तेजी से लुप्त हो रहे हैं।
‘इंटरनेशनल यूनियन फार द नेचर ऐंड नेचुरल रिसोर्सेज’ (आइयूसीएन) एक मान्यता प्राप्त संस्था है, जो वैश्विक स्तर पर संकटग्रस्त जीवों और पेड़झ्रपौधों को सूचीबद्ध करती है। इसकी रिपोर्ट को ‘रेड डाटा बुक’ कहते हैं। रेड डाटा बुक में शामिल जीवों के संरक्षण की कवायद पूरी दुनिया में की जाती है। इसकी रिपोर्ट के अनुसार 1970 से 2020 तक जीवों की संख्या में तेजी से कमी आई है। जलीय जीवों के अवैध शिकार, फफूंद संक्रमण और औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषण के कारण तीन सौ प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं।
संकट की स्थितियां
इसके अलावा प्राकृतिक आपदाएं, विभिन्न प्रकार के रोग, जीवों की प्रजनन क्षमता में कमी भी प्रमुख कारण हैं। यूरोप के समुद्र में ह्वेल और डाल्फिन जैसे भारी-भरकम जीव तेजी से खत्म हो रहे हैं। एक आंकड़े के मुताबिक गाय, भेड़ और बकरियों जैसे जानवरों के उपचार के समय दी जा रही खतरनाक दवाओं के कारण दक्षिण-पूर्व एशिया में गिद्धों की संख्या में कमी आई है। भारत में गिद्धों की संख्या में सत्तानबे फीसद की गिरावट दर्ज की गई है।
गिद्धों की कमी से मृत पशुओं की सफाई, बीजों का प्रकीर्णन और परागण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और कई तरह की बीमारियां पनप रही हैं। भारत ने भी वन जीवों के संरक्षण पर काफी जोर दिया है। क्योंकि, आजादी के बाद देश का तेजी से विकास किया जाना जरूरी था, इसलिए निर्माण परियोजनाओं, सड़कों, बांधों आदि के लिए जंगलों और कृषि भूमि को काटा गया।
इससे विभिन्न वन्यजीवों और पौधों के निवास स्थान की हानि हुई। ये गतिविधियां जानवरों को उनके घर से वंचित करती हैं। परिणामस्वरूप या तो उन्हें किसी अन्य निवास स्थान पर जाना पड़ता है या फिर वे विलुप्त होते गए। साथ ही, संसाधनों का उपयोग बुद्धिमानी से नहीं किया गया, इसका अत्यधिक इस्तेमाल किया गया, जिससे कई प्रजातियां विलुप्त होने लगी। आधुनिक युग में भी मनोरंजन के लिए जानवरों का शिकार करना आम बात है। कई तरह के उत्पादों के लिए भी जानवरों का अवैध शिकार किया गया। कस्तूरी हिरण आज करीब-करीब विलुप्त हो चुका है।
सुरक्षा के उपाय
हालांकि, ‘वन्यजीव संरक्षण’ संबंधी कई कानून हैं। वन्यजीव का मतलब ऐसे जानवर जो पालतू या समझदार नहीं हैं। वे पूरी तरह जंगल के माहौल में रहते हैं। ऐसे जानवरों की प्रजातियों का संरक्षण जरूरी है और वे विलुप्त न हों, इस पूरी प्रक्रिया को वन्यजीव संरक्षण कहा जाता है। वन सुरक्षा कानून 1980 में बना और इसमें संशोधन 1981 और 1991 में किए गए, ताकि वनों को संरक्षित किया जा सके।
वनों की सुरक्षा के लिए 1981 में ‘फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया’ की स्थापना की गई थी। इसका मुख्य कार्य वनों के क्षेत्र को मापने के लिए देशव्यापी सर्वेक्षण के माध्यम से देश के वन धन को इकट्ठा और मूल्यांकन करना है। राष्ट्रीय वन नीति 1988 में अस्तित्व में आई। इसका निर्माण करने का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा करते हुए पारिस्थितिकी संतुलन को संरक्षित करना है।
इसकी नीति का उद्देश्य वनों के संरक्षण और देश भर में गहन वन कार्यक्रमों को लागू करना है। योजनाओं और सरकारी प्रयास से पारिस्थितिक पुनर्स्थापना, पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, पर्यावरण विकास, भूमि में गिरावट, वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान की जांच के उद्देश्य से राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसका हमें काफी लाभ मिला।
भारत सरकार ने 1973 में टाइगर परियोजना की शुरूआत की। इसके तहत बाघों की घटती जनसंख्या के संरक्षण की पहल शुरू की गई। बंगाल के बाघ बढ़ती मानव गतिविधियों और प्रगति के परिणामस्वरूप काफी तेजी से कम होते जा रहे थे। इसलिए उनके निवास स्थान और उनकी संख्या को बचाने बचाया गया। इसका फायदा भी हुआ और खत्म हो रहे रायल बंगाल टाइगर को बचाया गया।
बाद में उनकी संख्या एक से पांच हजार के लगभग बढ़ गई। इसके लिए नौ संरक्षित क्षेत्रों को बढ़ा कर पचास किया गया। यह वास्तव में राष्ट्रीय पशु बाघ के संरक्षण की दिशा में एक सफल प्रयास था। इसी तरह, ‘प्रोजेक्ट एलीफेंट’ शुरू किया गया। सड़क, रेलवे, रिसार्ट, इमारत आदि के निर्माण जैसी विकास संबंधी गतिविधियों के कारण जंगलों और चारागाह की जगहें कम होने लगीं, जिससे मानव और जंगली जानवरों के बीच संघर्ष बढ़ा।
इसमें सबसे मुख्य है हाथी। सरकार ने 1992 में हाथियों की संख्या को संरक्षित करने, उनके आवास के रखरखाव, मानव-पशु संघर्ष को कम करने के साथ-साथ शिकार और अवैध शिकार को कम करने के लिए हाथी परियोजना की शुरुआत की। यह परियोजना केंद्रीय स्तर पर शुरू की गई, लेकिन इसकी पहल राज्यों द्वारा की गई। इस परियोजना के तहत विभिन्न राज्यों को आवश्यकता के अनुसार धन भी दिया गया। इस समय देश में सोलह राज्य मुख्य रूप से इस अभियान से जुड़े हैं।
1975 में मगरमच्छों को संरक्षित करने के लिए राज्य स्तर पर मगरमच्छ संरक्षण परियोजना शुरू की गई। इसका उद्देश्य मगरमच्छों के आवास के होते विनाश को रोकना था और इस प्रकार उनकी संख्या को बढ़ाने में मदद करना था। साथ ही, इनके शिकार और हत्या पर नजर रखी जाने लगी। इस पहल से 2012 तक इनकी संख्या सौ से बढ़ा कर एक हजार हो गई।
इसी तरह 1999 यूएनडीपी ने सागर कछुआ संरक्षण परियोजना शुरू की। इस परियोजना का उद्देश्य कछुओं की आबादी की घटती संख्या का उचित प्रबंधन और संरक्षण करना है। इसके अलावा भारत सरकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर अभ्यारण्य, वन्यजीव पार्क, राष्ट्रीय उद्यानों का विकास करके पर्यावरण विविधता को बनाए रखने के लिए काम कर रही है।
संरक्षण संबंधी कानून
वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम’, ‘वन संरक्षण अधिनियम’, ‘राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना’, ‘टाइगर परियोजना’, ‘राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य’, ‘जैव-क्षेत्रीय रिजर्व कार्यक्रम’ आदि कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। लेकिन, तेज औद्योगिक विकास और राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण पर्यावरण संरक्षण का काम अब भी काफी धीमा है, जबकि वैज्ञानिकों का मानना है कि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु में हो रहे बदलाव के कारण कई जीव धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित होने लगेंगे।
अगर ऐसा हुआ तो फिर विविधता और पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं यानी जलवायु परिवर्तन पर नकारात्मक असर पड़ेगा, जिसके परिणाम गंभीर होंगे। भले यह बात अजीब लगती हो, लेकिन पृथ्वी पर करीब बारह करोड़ वर्षों तक राज करने वाले डायनासोर जैसे दैत्याकार जीव के समाप्त होने का कारण मूलत: जलवायु परिवर्तन ही था। अगर जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं लिया गया तो आने वाले वर्षों में धरती से जीवों का अस्तित्व मिटना तय है।
‘ग्लोबल फारेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट’ (जीएफआरए) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 1990 से 2015 के बीच कुल वन क्षेत्र तीन फीसद घटा है और एक लाख दो हजार लाख एकड़ से अधिक का क्षेत्र 98,810 लाख एकड़ तक सिमट गया है यानी 3,190 लाख एकड़ वन क्षेत्र में कमी आई है। एक अनुमान के मुताबिक विकास के नाम पर प्रत्येक वर्ष सात करोड़ हेक्टेयर वनक्षेत्र का विनाश कर रहा है।
वनों के विनाश से वातावरण जहरीला होता जा रहा है और प्रतिवर्ष दो अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाईआक्साइड वायुमंडल में घुल-मिल रहा है। इससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है। जरूरत है कि समय रहते हम सचेत हो जाएं और अपने आसपास के वातावरण को हरा-भरा बनाना शुरू कर दें।