मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों के आपसी विवाद सुलझाने के लिए कोई काजी एक मध्यस्थ की भूमिका तो निभा सकता है लेकिन वह किसी मसले में अदालत की तरह न्याय का निर्णय करके डिक्री सरीखा आदेश पारित नहीं कर सकता।
हाईकोर्ट की इंदौर बेंच के जस्टिस विवेक रुसिया और जस्टिस राजेंद्र कुमार वर्मा ने एक व्यक्ति की जनहित याचिका का निपटारा करते हुए यह टिप्पणी की। मुस्लिम समुदाय के इस व्यक्ति ने 2018 में याचिका दायर करके इंदौर के दारुल-कजा छावनी के मुख्य काजी के आदेश को कानूनी चुनौती दी थी।
याचिका में शख्स ने आरोप लगाया था कि मुख्य काजी ने उसकी पत्नी की ‘खुला’(किसी मुस्लिम महिला द्वारा अपने शौहर से तलाक मांगे जाने की इस्लामी प्रक्रिया) के लिए दायर अर्जी पर सुनवाई करते हुए तलाक का फरमान सुना दिया था।
डबल बेंच ने फैसले में कहा कि अगर कोई काजी अपने समुदाय के लोगों के आपसी विवाद हल करने के लिए एक मध्यस्थ की भूमिका निभाता है, तो इसमें कोई आपत्ति नहीं। लेकिन वह किसी अदालत की तरह ऐसे विवादों में निर्णय नहीं कर सकता। वो अदालत की तरह डिक्री नहीं जारी कर सकता। कोर्ट ने सर्वोच्च अदालत की एक नजीर का हवाला देते हुए कहा कि काजी के ऐसे किसी आदेश की कोई कानूनी शुचिता नहीं है। ऐसे आदेश को एकदम नजरअंदाज किया जा सकता है।
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि उसने याचिकाकर्ता और उसकी पत्नी के बीच के वैवाहिक विवाद को लेकर कोई राय नहीं जताई है। दोनों पक्ष देश के कानून के तहत इसका समाधान पाने को स्वतंत्र हैं। कोर्ट ने केवल काजी के दायरे को सीमित करने के लिए अपना फैसला सुनाया है। आगे से ऐसा कोई भी फैसला मान्य नहीं होगा। सभी इसका ध्यान रखें।