कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी और जेएनयू में राजनीतिक विरोध पर कार्रवाई से पता चलता है कि देश में ऐसी सरकार है जो नुकसानदायक होने के साथ ही राजनीतिक रुप से अक्षम है। यह संवैधानिक देशभक्ति को कुचलने लिए राष्ट्रवाद, असहमति को दबाने को कानूनी निरंकुशता, छाेटे लाभ के लिए राजनीतिक ताकत और संस्थानों को नष्ट करने के लिए प्रशासनिक ताकत का इस्तेमाल कर रही है। जेएनयू में कथित भारत विरोधी नारों और अफजल गुरु की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित करने के बाद कार्रवाई की शुरुआत हुई। इसके चलते कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी का आदेश दे दिया, जबकि उसके भाषण में कुछ भी देश विरोधी नहीं है। जिस तरह से राजनाथ सिंह और समृति ईरानी ने भारत माता को बचाने और राष्ट्र विरोधियों को दबाने की बात कही, उससे कई बातें साफ होती है। यह राजनीतिक फैसला था जिसे सरकार में ऊपर बैठे लोगों ने लिया। सरकार की ओर से यह साफ संदेश प्रतीत होता है कि वह असहमति सहन नहीं करेगी। इससे सरकार की राष्ट्रवाद पर दंभपूर्ण धृष्ट एकाधिकार की झलक भी मिलती है। सरकार न केवल मतभेद बल्कि विचारों को भी कुचल देना चाहती है, जो कि विश्वविद्यालयों पर इसके लगातार हो रहे हमलों से दिख रहा है।
ये ऐसा राष्ट्रवाद चलाना चाहते हैं कि जिसमें विचारों के लिए कोई जगह न हो। हो सकता है कि कुछ छात्र अपनी विचारधारा के चलते भटक गए हो। लेकिन विश्वविद्यालय वाद विवाद की जगह है और यहां अफजल गुरु की फांसी पर भी चर्चा हो सकती है। इस बात को याद रखना जरूरी है कि यहां सवाल देशभक्ति का नहीं है। मीडिया का बड़ा हिस्सा राष्ट्रवाद का सवाल खड़ाकर चर्चा का विषय तय कर रहे हैं। यहां यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है राष्ट्र विरोधी होना अपराध नहीं है। यदि राष्ट्रवाद की परिभाषा संकुचित, गंभीर आलोचना नहीं सह सकती, निरंकुश है तो राष्ट्र विरोधी होना नैतिकता हो जाती है।
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सरकार की कार्रवाई निंदनीय होने के साथ ही राजनीतिक मूर्खता भी है। छोटी सोच से देखें तो सरकार का एजेंडा है कि: राष्ट्रवाद के जरिए जनता को भ्रम में डालो और ध्रुवीकरण करो। द्वेषपूर्ण राजनीति को नियंत्रण दो कि उसने जिन संस्थानों को वामपंथी करार दिया है कि वैसा सरकार माने। लेकिन दीर्घकालिक रूप से यह सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाती है। यह विपक्ष को एकजुट होने का मौका देती है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संसद का एक और सत्र इसकी भेंट चढ़ जाए। और हो सकता है विपक्ष अपनी जगह पर सही हो। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस और वामपंथियों का अभिव्यक्ति की आजादी पर रिकॉर्ड अच्छा हो। उनके लिए यह सबक लेने का मौका है। उन्होंने भी भाजपा को दबाने के लिए सभी कानूनी उपायों का सहारा लिया।
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सरकार की कार्रवाई से निर्णय लेने की क्षमता में कमी साफ नजर आती है। छात्र राजनीति की मुद्दे को सरकार के मंत्री राष्ट्रीय आपदा बता रहे हैं। वहीं एबीवीपी विचारधारा के मुद्दे पर विश्वविद्यालयों में सरकार से दखल देने की मांग करती है जो कि भविष्य के लिए सहीं नहीं है। इससे जो लोग वामपंथ के साथ नहीं थे वे भी उनके साथ आ गए। राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों में जेएनयू की महत्ता खत्म हो रही थी और भाजपा ने इसे पुनर्जीवित कर दिया। वामपंथियों के भाजपार्इ आलाेचकों का भी मानना है कि यह कदम आत्मघाती गोल है। पिछले दो साल में अपने साथ हुए बर्ताव से भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा। सहिष्णुता मामले के चलते भाजपा सरकार के सारे अच्छे काम दब जाएंगे। ऐसा भाजपा विरोधी गठबंधन के चलते नहीं बल्कि लोकतंत्र पर हमले के चलते होगा। सम्मानीय मंत्रियों को समझना चाहिए कि यदि यह राष्ट्रवाद को लेकर बहस है तो फिर जेएनयू के बजाय उनसे पूछताछ होनी चाहिए। उन्होंने लोकतंत्र को चेतावनी दी है। यह सबसे बड़ा राष्ट्रविरोधी कृत्य है।
- लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रेसीडेंट हैं और इंडियन एक्सप्रेस में कॉन्ट्रिब्यूटिंग एडिटर हैं।