इन दिनों बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बहुत बहसें होती हैं। देखने की बात यह है कि अकसर ये बहसें मध्यवर्ग को संबोधित होती हैं, जबकि गरीब बच्चों की मुश्किलें भी कोई कम नहीं। मगर बहसें भी उन्हीं के लिए अकसर आयोजित की जाती हैं, जो अच्छे खरीददार होते हैं। क्योंकि इन बहसों के पीछे कोई न कोई प्रायोजक अपने तैयार उत्पाद को बेचने के लिए खड़ा रहता है। इसीलिए प्रकारांतर से बचपन से ही बच्चों को अच्छा उपभोक्ता बनाने पर जोर दिया जाता है। क्योंकि अगर बचपन से ही किसी ब्रांड को खरीदने, खाने, उपभोग की आदत पड़ जाए, तो वह जीवन भर बनी रहती है।
पर सोचने की बात यह भी है कि जीवन भर का उपभोक्ता बनाना हो, तो बच्चे का जीवन चाहिए, उसका अच्छा स्वास्थ्य चाहिए। उसकी अच्छी शिक्षा चाहिए, जिससे कि खूब कमा सके और बाजार में मिलने वाले तरह-तरह के उत्पादों को खरीद सके। अजीब विरोधाभास है। एक तरफ बच्चों का स्वास्थ्य है, दूसरी तरफ उन्हें उन्हीं चीजों के प्रति आकर्षित करना है, जो उसके स्वास्थ्य को चौपट कर रही हैं। तीसरी तरफ औद्योगिक विकास है, जिससे कि अर्थव्यवस्था पटरियों पर तेजी से दौड़ती रहे। आखिर जाएं, तो किधर जाएं।
बच्चे की मासूमियत बचानी है तो उसे परिवार का सहारा चाहिए। माता-पिता क्या करें जो इन दिनों चौबीस गुणे सात के चाकर हैं। नौकरी बचे, तो ही बच्चे की दैनंदिन जरूरतें पूरी कर पाएंगे। ऐसे में बच्चे को समय दें कि नौकरी बचाएं। फिर समाज में एक विचार यह भी बन चला है कि अपने लिए समय निकालें, अपने लिए जिएं, क्योंकि उम्र निकली जा रही है। जीवन एक ही बार तो मिलता है। ऐसे में कई माता-पिता, बहुत से यूरोपीय माता-पिता की तरह बच्चों को आया, या ‘डे केयर सेंटर’ के भरोसे छोड़ कर घूमने निकल पड़ते हैं।
दक्षिण दिल्ली के एक ‘डे केयर सेंटर’ के बारे में पढ़ा था कि वह चौबीस घंटे खुला रहता है। वहां एक जोड़ा अपने चार महीने के बच्चे को छोड़ कर विदेश चला गया था। हो सकता है, हम इसमें बहुत गौरव अनुभव करें, लेकिन उस बच्चे का क्या, जिसे इतनी छोटी उम्र में ही अकेला छोड़ दिया गया। चारों ओर स्वार्थपरता का बोलबाला है। हर विमर्श दूसरे के खिलाफ है। वह सिर्फ अपने ही बारे में सोचता है।
विदेशों में भारत के माता-पिता की इस बारे में बहुत आलोचना होती है कि वे अपने बच्चों को लेकर कुछ अधिक ही सुरक्षात्मक होते हैं। वे उन्हें हमेशा बच्चा ही समझते हैं। इस आलोचना में भावनात्मक रिश्ते, चिंता, आदि को बिल्कुल भुला दिया जाता है। भारत में माता-पिता बच्चों के लिए अपना जीवन लगा देते हैं, इस त्याग को भी याद नहीं रखा जाता।
हाल ही में एक अध्ययन में बताया गया था कि दादी-नानी जब अपने नाती-पोतों को देखती हैं, तो उनमें एक विशेष हार्मोन का संचार होता है। वैसे भी अपने यहां कहावत मशहूर है कि मूल से सूद प्यारा।एक रिपोर्ट के अनुसार जिन बच्चों को कहानियां सुनाई जाती हैं, उनका विकास तेजी से होता है। हमारी दादी, नानियां इस बात को जानती थीं। एक बच्ची डाक्टर नहीं बनना चाहती थी। मां उसे डाक्टर बनना चाहती थी। बात इतनी बढ़ी कि बच्ची ने मां को मार डाला। इसीलिए बच्चों पर अपने सपने न लादें।
एक रिसर्च ने निष्कर्ष निकाला कि अगर बच्चे को ज्यादा सब्जी और पौष्टिक आहार खिलाना है तो थाली में ज्यादा परोसिए। जबकि परंपरागत अनुभव कहता है कि खाने की आदतें थोड़ा-थोड़ा खिलाकर विकसित की जाती हैं। कई बार बच्चों पर फिल्मों, धारावाहिकों का इतना असर होता है कि वे झूठी कहानी गढ़ लेते हैं। तीसरी में पढ़ने वाले एक बच्चे ने अपने अपहरण की झूठी कहानी गढ़ ली थी।