लालू की किंगमेकर जैसी दमदार वापसी के पीछे कुछ तो वजह है…
जातिगत-जटिलताओं में उलझे बिहार में नब्बे के दशक में सत्ता में आने वाले और घोटाले के दाग दामन पर लगने के बाद अपनी सत्ता खो बैठने वाले लालू प्रसाद यादव के बोलने के अलग अंदाज की भले ही नकल उतारी जाती हो...

जातिगत-जटिलताओं में उलझे बिहार में नब्बे के दशक में सत्ता में आने वाले और घोटाले के दाग दामन पर लगने के बाद अपनी सत्ता खो बैठने वाले लालू प्रसाद यादव के बोलने के अलग अंदाज की भले ही नकल उतारी जाती हो, लेकिन उन्हें करीब से देखने वाले लोगों का मानना है कि राजनीतिक मोर्चे पर लालू की दमदार वापसी यह दिखाती है कि वह जन भावनाओं पर कितनी मजबूत पकड़ रखते हैं। पंजाब के एक जाने माने निजी स्कूल के प्राचार्य अरुण जी 1970 के दशक के दौरान पटना विश्वविद्यालय में लालू के जूनियर रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘जब मैंने टीवी पर नतीजे देखे तो मुझे खुशी हुई। यह खुशी किसी पार्टी विशेष के लिए नहीं थी, बिहार के लिए थी।’
अरुण ने कहा, ‘पूरे चुनाव के दौरान ‘जंगल राज’ का हौव्वा बना कर रखा गया और यह बेहद दुखद है कि जनादेश के बाद भी, लालू पर प्रहार जारी हैं। टिप्पणियां अच्छी, बुरी या भद्दी हो सकती हैं लेकिन लोग इस व्यक्ति को नजरअंदाज कतई नहीं कर सकते।’पटना में रहने वाले पूर्व रॉ अधिकारी ज्योति कुमार सिन्हा (71) ने जब 1990 में लालू के सत्ता में आने की खबर सुनी, तब वे खुद पेरिस में थे। उन्होंने इस खबर का स्वागत किया लेकिन समय बीतने के साथ उनका मोह इस नेता से भंग हो गया है। सिन्हा ने बताया, ‘यह अविश्वसनीय था और लालू के सत्ता में आने से देशभर में एक जोश पैदा हो गया था। यह लोकतंत्र का जादू था और सामाजिक सशक्तीकरण की ओर बढ़ने की शुरुआत थी। मुख्यमंत्री के रूप में लालू का पहला कार्यकाल अच्छा था।’
सिन्हा यह बात मानते हैं कि लालू कुछ हद तक ‘सशक्तीकरण की भावना’ लेकर आए लेकिन उन्होंने आरोप लगाया कि ‘लालू ने एक राजनेता बनने का बड़ा अवसर गंवा दिया और इसकी बजाय वह किसी अन्य साधारण नेता की तरह होकर रह गए।’
जेपी की ‘संपूर्ण क्रांति’ से उभर कर आए लोगों में से एक रहे लालू के राजनीतिक सफर की शुरुआत जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले छात्र आंदोलन से हुई, जो अंतत: पूरे देश में फैल गया था। इस देशव्यापी आंदोलन का नतीजा इंदिरा गांधी की सरकार गिर जाने के रूप में सामने आया था।
बोलने के अपने एक अलग अंदाज के कारण अक्सर प्रेस बिहार के इस पूर्व मुख्यमंत्री को निशाना बनाता रहा है। कितने ही टीवी शो प्रस्तोता उनके बोलने के अंदाज की नकल उतारते हुए नजर आते हैं।
अरुण ने कहा, ‘बिहार के अंदर और बाहर कई लोग उनके बारे में जो कुछ भी सोचते हों, मुझे नहीं लगता कि लालू के तौर-तरीके किसी भी तरह से बिहार की छवि खराब करते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘लालू छात्र राजनीति के दिनों में भी बोलने के दौरान अपने विशेष देहाती अंदाज का इस्तेमाल करते थे। धीरे-धीरे उनका यह अंदाज उनकी खासियत बन गया।’ अरुण ने कहा, ‘वह उस तरह से बोलते हैं क्योंकि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से बात कर रहे होते हैं….वे वंचित, गंवई और ठेठ तबके से बात कर रहे होते हैं। एक ऐसा वंचित समुदाय, जो कि उनमें अपना नेता देखता है।’
गुड़गांव में कार्यरत आईटी पेशेवर राम कुमार ने कहा, ‘लालू निचली जाति के लोगों तक सामाजिक सशक्तीकरण लेकर आए। वह हाशिए पर जीने वालों और निचले तबकों की आवाज बन कर उभरे …इस बात को कम करके नहीं देखा जा सकता।’ उन्होंने कहा, ‘मैं मुजफ्फरपुर के एक गांव से आता हूं और ऊंची जाति का हूं। मेरे बचपन के दिनों में, मैं देखा करता था कि निचली जाति के लोग जमीन पर और ऊंची जाति के लोग कुर्सियों पर बैठा करते थे। लालू जब मुख्यमंत्री बन कर आए तो यह चीज गायब होना शुरू हो गई। अब आप गांव जाते हैं तो यह बदलाव आपको दिखाई देता है।’
उन्होंने कहा, ‘लालू का कद बढ़ने को ऊंची जाति के कई लोग एक खतरे के रूप में देखते थे क्योंकि वह उनकी जाति से नहीं आते थे। इससे समाज में टकराव पैदा हुआ और वह कुछ हद तक अभी भी मौजूद है।’
किशनगंज, सीवान, सासाराम और दरभंगा में जिला मजिस्ट्रेट रहे पटना निवासी राम बहादुर प्रसाद ने कहा, ‘1990 के दशक में विकास की कमी का दोष सिर्फ लालू को देना गलत होगा। केंद्र से पर्याप्त धन ही नहीं मिल रहा था।’ प्रसाद ने कहा, ‘‘जहां तक ‘जंगलराज’ का मुद्दा है तो यह सच है कि 90 के दशक के बीच में लालू के जेल जाने पर कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गई थी लेकिन लोग आज उस दौर का हौव्वा बना कर डर नहीं पैदा कर सकते। चीजें बदल गई हैं।’
अरुण को भी लगता है कि बिहार के दुर्भाग्य के लिए अकेले लालू को दोष नहीं दिया जा सकता। उन्होंने दावा किया, ‘लालू को विरासत में एक खस्ताहाल व्यवस्था मिली थी क्योंकि बिहार का पतन तो 1960 के दशक के मध्य में संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान ही शुरू हो गया था। शिक्षा, स्वास्थ्य और कई अन्य क्षेत्र पहले से ही बदहाल स्थिति में थे। यह कह सकते हैं कि नब्बे के दशक में लालू के दौर में इस गिरावट में तेजी आई। यहां तक कि चारा घोटाला भी जगन्नाथ मिश्रा के शासनकाल में हुआ।’ उन्होंने कहा, ‘अगर लालू ने बुरी चीजें की हैं तो उन्होंने अच्छी चीजें भी की हैं, जैसे रेलमंत्री के रूप में उनका काम। उसे किसी मीडिया ने चुनावों में अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं किया। आपको लालू जैसे व्यक्तित्व का आकलन करने में इन चीजों को ध्यान में रखना होगा कि वह बेहद साधारण पृष्ठभूमि से उठ कर और दृढ़ प्रतिबद्धताओं के साथ यहां तक पहुंचे हैं।’