संपादकीय: संवाद की जरूरत
नए कृषि कानून वापस लेने की मांग को लेकर पिछले बत्तीस दिनों से देशभर के किसान जिस ताकत के साथ मोर्चे पर डटे हैं, उससे लगता नहीं है कि जल्द ही इस समस्या का कोई समाधान निकलने वाला है। सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच अब तक वार्ताओं के जितने भी दौर हुए, सब बेनतीजा रहे। बुधवार को एक बार फिर वार्ता होगी।

लेकिन अब तक दोनों ही पक्ष जिस तरह से अपनी-अपनी जिद पर अड़े हुए हैं, उससे कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिलता। हठधर्मिता का ऐसा रुख किसी भी तरह से परिपक्वता का परिचायक नहीं कहा जा सकता। सरकार बार-बार स्पष्ट शब्दों में इस बात को दोहरा रही है कि कुछ भी हो, कानून वापस नहीं लिए जाएंगे और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी जामा पहनाया जाएगा।
दूसरी ओर किसान संगठनों ने भी ठान लिया है कि जब तक सरकार इन कानूनों को वापस नहीं ले लेती तब तक आंदोलन खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। जैसे-जैसे समय गुजर रहा है, यह गतिरोध गंभीर रूप धारण करता जा रहा है। सरकार के रवैए से खिन्न पंजाब के एक वकील ने हरियाणा के बहादुरगढ़ में जहर खा कर जान दे दी। यह घटना बता रही है कि अगर जल्द ही आंदोलन खत्म नहीं हुआ तो किसान और किसान समर्थक किस सीमा तक जा सकते हैं।
किसान भले अपनी जायज मांगों को लेकर लड़ रहे हों, लेकिन इस आंदोलन को लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है, वह भी गंभीर चिंता की बात है। आए दिन पक्ष-विपक्ष के नेता एक दूसरे पर किसान हितों के साथ खिलवाड़ करने, किसानों को बहकाने और आंदोलन को हवा देने के जो आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं, उनसे यही संदेश जा रहा है कि यह किसानों का आंदोलन कम, राजनीतिक खींचतान ज्यादा है।
किसान संगठन ही आपस में बंट गए हैं। ज्यादातर किसान संगठन नए कृषि कानूनों को जहां किसान हितों के खिलाफ बता रहे हैं, वहीं कुछ किसान संगठन इसके समर्थन में उतर आए हैं। सवाल है कि इन कानूनों को लेकर किसानों के मन में जो भय और आशंकाएं हैं, उन्हें सरकार क्यों नहीं दूर कर पा रही है। अगर सरकार एमएसपी और मंडियों को खत्म नहीं करने का भरोसा लिख कर देने को तैयार है तो क्यों नहीं वह किसानों को यह समझा पा रही है कि एमएमपी को कानूनी जामा पहनाने में अड़चनें क्या हैं।
किसान आंदोलन लंबा खिंचने से आमजन को भारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। दिल्ली से सटे राज्यों की सीमा पर आवाजाही एक तरह से ठप है। राज्यों के बीच होने वाली सामान आपूर्ति पर असर पड़ा है, कच्चे माल की कमी से दिल्ली की औद्योगिक गतिविधियां ठप पड़ चुकी हैं। किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्गों पर आवाजाही अवरुद्ध कर रखी है।
अपनी मांगों के लिए आंदोलन करना उचित है, लेकिन आंदोलन से जब आम जनजीवन पर बुरा असर पड़ने लगे तो इसके लिए किसानों के साथ-साथ क्या सरकारें जिम्मेदार नहीं हैं? सरकार और किसान संगठनों को मिल-बैठ कर ही इस समस्या का समाधान निकालना होगा। किसानों की मांगों पर विचार करने के लिए एक समूह बनाए जाने की जरूरत है जिसमें सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के अलावा कृषि विशेषज्ञ और विपक्षी दलों के नेता भी शामिल हों और संवाद के जरिए समस्या का हल निकालें। साथ ही, किसानों को भी कानून वापस लेने की जिद छोड़नी होगी। किसी भी समस्या के समाधान का सर्वोत्तम उपाय तो संवाद ही है, जिसका फिलहाल अभाव देखने को मिल रहा है।